संगीता गुप्ता |
मुझसे मेरे पिता के बारे में कुछ लिखने को कहा गया था। हालाँकि वो मेरे ख़यालों में और मेरे दिल में हमेशा रहते हैं, मैं उस बीते हुए ज़माने को याद करते हुए यादों की उन गलियारों से आज आपको ले चलती हूँ....
ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 72
'ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष' के सभी पाठकों को सुजॉय चटर्जी का सप्रेम नमस्कार! दोस्तों, पिछले दिनों जब फ़ेसबूक पर मैंने संगीतकार मदन मोहन जी की सुपुत्री संगीता गुप्ता को अपने 'फ़्रेण्ड लिस्ट' में ऐड किया तब जैसे एक रोमांच सा हो आया यह सोच कर कि ये उस महान संगीतकार की पुत्री हैं और मैं उनसे चैट कर रहा हूँ। और मेरा दिल उनसे एक इंटरव्यू की माँग कर बैठा। पर "ना" में जवाब पाकर मैं ज़रा हताश हो गया, पर उनकी प्राइवेसी का सम्मान करते हुए उनके फ़ैसले को स्वीकार कर लिया। लेकिन हाल ही में मुझे संगीता जी का एक संदेश मिला कि उन्होंने अपने पिता पर एक लेख लिखा है और अगर मैं चाहूँ तो अपने पत्रिका में प्रकाशित कर सकता हूँ। मेरी ख़ुशी का जैसे ठिकाना न रहा। तो लीजिए आज इस विशेषांक में संगीता जी के लिखे उसी अंग्रेज़ी लेख का हिन्दी संस्करण पढ़िए, जो उनकी अनुमति से हम यहाँ पोस्ट कर रहे हैं। इस लेख का हिन्दी अनुवाद आपके इस दोस्त ने किया है।
"मुझसे मेरे पिता के बारे में कुछ लिखने को कहा गया था। हालाँकि वो मेरे ख़यालों में और मेरे दिल में हमेशा रहते हैं, मैं उस बीते हुए ज़माने को याद करते हुए यादों की उन गलियारों से आज आपको ले चलती हूँ। उनके बारे में पिछले तीस सालों में बहुत कुछ लिखा गया है, उनके प्रोफ़ेशनल करीयर के बारे में, उनकी उपलब्धिओं के बारे में, उनके काम के बारे में। वो अपने गीतों के ज़रिए आज भी जीवित हैं, जिन्हें हम हर रोज़ सुनते हैं, और इस तरह से उनके चाहने वालों के लिए वो आज भी ज़िन्दा हैं और हमारे आसपास ही कहीं मौजूद हैं।
आज मैं अपने दिल को खंगालते हुए अपने पिता के साथ गुज़रे ज़माने को संजोने की कोशिश कर रही हूँ, और उनकी उस शख़्सीयत के बारे में लिखने जा रही हूँ जिनसे शायद बहुत अधिक लोग वाक़ीफ़ न हो। हमनें उन्हें उस समय हमेशा के लिए खो दिया जब हम बहुत छोटे थे। क्या है कि हम ऐसा समझ बैठते हैं कि हमारे माँ-बाप हमसे कभी अलग नहीं हो सकते। कोई यह यकीन नहीं करना चाहता कि हमारे माता-पिता हमेशा हमारे साथ नहीं रहने वाले हमें गाइड करने के लिए। मुझे कभी यह अहसास नहीं हुआ कि मेरे पिता कौन थे। भले हम यह जानते थे कि वो एक मशहूर शख़्स थे, पर उनकी मृत्यु के बाद जो प्यार उन पर बरसाया गया है, उसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते थे। आज जब हम उम्र में बड़े हो गए हैं, आज हमें उनकी कीमत का सही अंदाज़ा हो पाया है। वो एक 'सेल्फ-मेड' और 'सेल्फ-रेस्पेक्टिंग्' इंसान थे। एक धनी और प्रसिद्ध व्यक्ति का बेटा होने के बावजूद उन्होंने कभी इस बात का फ़ायदा नहीं उठाया अपने करीयर में आगे बढ़ने के लिए। उन्होंने कभी अपने उन दोस्तों की तरफ़ सहायता के लिए हाथ नहीं बढ़ाया जो इंडस्ट्री में उन दिनों बड़े नाम थे। बल्कि वो ही लोग जो उनकी प्रतिभा को समझते थे, उन्हें मालूम होता था कि वो कहाँ हैं।
हालाँकि उन्हें कड़क स्वभाव का माना जाता रहा है, अन्दर से वो बहुत ही नर्म दिल वाले इंसान थे। कभी किसी को आर्थिक या अन्य कोई सहायता की ज़रूरत होती तो तुरन्त मदद के लिए राज़ी हो जाते। एक घटना जिसने मेरे दिल में उनके लिए इज़्ज़त को और बढ़ा दी, वह यह थी कि सचिन देव बर्मन के 'गाइड' फ़िल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का 'फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड' न मिलने पर वो बहुत निराश हो गए थे। वो यह बात भूल ही गए थे कि 'वो कौन थी' के संगीत के लिए उसी पुरस्कार के लिए उनके ख़ुद का भी नामांकन था और उन्हें उस फ़िल्म के लिए कोई भी अवार्ड नहीं मिल पाया था। यह वह ज़माना था जब संगीतकार, गीतकार और गायक एक दूसरे के दोस्त हुआ करते थे और एक दूसरे के अच्छे काम की तारीफ़ करना कभी नहीं भूलते थे। हर कलाकार अपना बेस्ट करने की कोशिश करते और यह चाहते भी थे दूसरे उनके कम्पोज़िशन्स को सुनें और उसका सही-सही आंकलन करें।
पिताजी खेलों के बहुत शौकीन थे। क्रिकेट, बैडमिन्टन, स्नूकर, बिलियर्ड्स, तैराकी का शौक था, और सभी खेल देखना पसन्द करते थे, क्रिकेट तो सबसे ज़्यादा। क्योंकि उन्हें मुख्य अतिथि के रूप में आय दिन निमन्त्रण मिलती रहती थीं, उनके साथ हम भी बड़े सारे कुश्ती और बॉक्सिंग् के मैचेस देखने जाया करते थे। दारा सिंह और उनके मशहूर चैम्पियन्स से मिलना एक यादगार घटना थी। पिता जी को अपने सुठाम शरीर पर बहुत नाज़ था। वो अपने मसल्स हमें दिखाया करते जब हम छोटे थे। रविवार के दिन सुबह-सुबह हम NSCI Club जाते थे तैराकी करने, और उसके बाद क्लब के लॉन में बहुत अच्छी ब्रेकफ़ास्ट भी करवाते थे। घुड़दौड़ (रेस क्लब) में जाना उनका एक और पैशन था। वो कभी कोई रेसिंग् ईवेण्ट मिस नहीं करते थे। वो रेस के ठीक एक दिन पहले "Cole" खरीद ले आते थे जिस पर सभी घोड़ों की जानकारी होती थी, और उसे अच्छी तरह से पढ़-समझ कर किसी एक घोड़े पर दाव लगाते थे। दूसरी तरफ़ मेरी मम्मी घुड़सावार के पोशाक के कलर-कम्बीनेशन को देख कर दाव लगाया करतीं। क्या कॉन्ट्रस्ट है! हमें कभी-कभी रेस में जाने की अनुमति मिलती, जिनमें बच्चों को ले जाने में मनाई नहीं होती। हम बहुत मज़े करते। रेसिंग् की ही तरह ताश खेलने में भी उनकी गहरी दिलचस्पी थी, फिर चाहे वह तीन पत्ती हो या रम्मी। उनकी म्युज़िक की सिटिंग् भी कम मज़ेदार नहीं थीं। पिताजी, गीतकार राजेन्द्र कृष्ण, हास्य अभिनेता ओम प्रकाश और भी बहुत से लोग एक जगह जमा होते और बैठकें होतीं। अगर गायक या निर्माता को आने में देरी होती तो पिताजी के तबलावादक महादेव इन्दौरकर, उनके सहायक घनश्याम सुखवाल और मिस्टर सूरी भी उन कहकहों में शामिल हो जाते। दीवाली के समय भी ख़ूब ताश के खेल खेले जाते।
पिताजी एक बहुत अच्छे रसोइया भी थे। वो ख़ुद बाज़ार जाकर वो सब कुछ खरीद लाते जिनसे उन्हें कोई ख़ास व्यंजन बनाना होता। यहाँ तक कि जब मेरी मम्मी की सहेलियों को घर पर लंच के लिए बुलाए जाते तो पिताजी ख़ुद उन पार्टियों के लिए नॉन-वेज डिशेस बनाया करते। हर दिन ही जैसे दावत सी लगती। मुझे उनके द्वारा बनाए खाने की ख़ुशबू आज भी मेरे ख़यालों को महका जाती हैं। किसी हिल स्टेशन में जब हम घूमने जाते तो वहाँ के होटल मैनेजमेण्ट से अनुमति लेकर वहीं खाना बनाने लग जाते, और उस पिकनिक में बाहर के अतिथियों और अन्य लोगों को भी शामिल कर लेते। अपनी गाड़ियों के प्रति उनके प्यार की कोई कमी नहीं थी। स्टडबेकर चैम्पियन टू-डोर अमेरिकन कार, या फिर एम्गी जो उनके पास १९५६ में थी। मुझे याद है मैं उस गाडई में बैठी हुई थी और ग़लती से मैंने गीयर शिफ़्ट कर दी, जिस वजह से गाड़ी दीवार से जाकर टकराई। पर यह मुझे याद नहीं कि इस ग़लती के लिए क्या उन्होंने मुझे मारा था या नहीं। मैं बहुत छोटी सी थी उस वक़्त। वो अपनी गाड़ी ख़ुद ही धोते और साफ़ करते थे और कोई ड्राइवर भी नहीं रखा हुआ था। गाड़ी की ही तरह अपने घर को भी कलेजे से लगाये हुए थे। जब पूरी फ़ैमिली बाहर घूमने जाती, वो ख़ुद फ़र्श को साफ़ करते, यहाँ तक कि खिड़की के शीशों के हर एक पीस को बाहर निकाल कर साफ़ करते। हम वापस आकर देखते कि पूरा घर चमक रहा है।
पिताजी नें संगीत की औपचारिक शिक्षा कहीं से नहीं ली थी, पर हर तरह के संगीत को सुनने की कोशिश किया करते। बहुत से शास्त्रीय संगीत के कलाकारों को, यहाँ तक कि पाक़िस्तान के कलाकारों को भी वो घर पर बुलाते, और उन्हें खाना बनाकर खिलाते, और वो सब कलाकार देर रात तक उन्हें अपना संगीत सुनाया करते। पर हम बच्चों को उन बैठकों का हिस्सा बनने नहीं देते क्योंकि हमें अगले दिन सुबह स्कूल जाना होता। पर मैं और मेरे भाई लोग उस बन्द कमरे के बाहर बैठ कर सुनते रहते जब तक कि हमें नींद नहीं आ जाती।
यादें और भी बहुत सी हैं, जिनका कोई अन्त नहीं। यह अफ़सोस की बात है कि हमने उन्हें बहुत जल्दी खो दिया। उनके जाने के कुछ ही समय में हमने अपनी माँ को भी खो दिया। दोनों हमें छोड़ कर तब चले गए जब हमें उनकी सब से ज़्यादा ज़रूरत थी। उस समय किसी नें उनकी कीमत और महत्व को नहीं परख सके, न केवल पिता के रूप में, बल्कि एक बेहद प्रतिभाशाली कलाकार के रूप में भी, और बाद में उन्हें अब लीजेण्ड माना जाता है। यह अफ़सोस की बात नहीं तो और क्या है!!!"
मूल अंग्रेज़ी लेख - संगीता गुप्ता
हिन्दी अनुवाद - सुजॉय चट्टर्जी
तो दोस्तों, यह था आज का 'ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष', अगले सप्ताह फिर किसी विशेष प्रस्तुति के साथ फिर उपस्थित होंगे, पर कल से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नियमित स्तम्भ में पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!
Comments
एक बात याद आई ......मदनमोहन जी स्वयं भी बहुत अच्छा गाते थे .उनका गाना 'नैना बरसे रिमझिम रिमझिम' और 'माई री मैं कासे कहूँ पीर अपने जिया की' मुझे लताजी से भी ज्यादा उनकी आवाज मे पसंद है.थेंक्स टू यूट्यूब कि उनके ये दोनों गाने मुझे वहाँ मिल गये और सजीव जी ने वीडियो को ऑडियो मे कन्वर्ट करना सिखा दिया.जिससे ये दोनों गाने आज मेरे संग्रह मे शामिल है.जब इच्छा होती है सुन लेती हूँ.
उनके गाये ऐसे या इनसे भी ज्यादा शानदार,मधुर गानों की जानकारी हो तो मुझे जरूर बताइयेगा प्लीज़.वैसे उन्हें अभिनेता होना था.