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ख़ाक हो जायेंगे हम तुम को ख़बर होने तक.. उस्ताद बरकत अली खान की आवाज़ में इश्क की इन्तहा बताई ग़ालिब ने

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७४ इ क्कीस बरस गुज़रे आज़ादी-ए-कामिल को, तब जाके कहीं हम को ग़ालिब का ख़्याल आया । तुर्बत है कहाँ उसकी, मसकन था कहाँ उसका, अब अपने सुख़न परवर ज़हनों में सवाल आया । सौ साल से जो तुर्बत चादर को तरसती थी, अब उस पे अक़ीदत के फूलों की नुमाइश है । उर्दू के ताल्लुक से कुछ भेद नहीं खुलता, यह जश्न, यह हंगामा, ख़िदमत है कि साज़िश है । जिन शहरों में गुज़री थी, ग़ालिब की नवा बरसों, उन शहरों में अब उर्दू बे नाम-ओ-निशां ठहरी । आज़ादी-ए-कामिल का ऎलान हुआ जिस दिन, मातूब जुबां ठहरी, गद्दार जुबां ठहरी । जिस अहद-ए-सियासत ने यह ज़िन्दा जुबां कुचली, उस अहद-ए-सियासत को मरहूमों का ग़म क्यों है । ग़ालिब जिसे कहते हैं उर्दू ही का शायर था, उर्दू पे सितम ढा कर ग़ालिब पे करम क्यों है । ये जश्न ये हंगामे, दिलचस्प खिलौने हैं, कुछ लोगों की कोशिश है, कुछ लोग बहल जाएँ । जो वादा-ए-फ़रदा, पर अब टल नहीं सकते हैं, मुमकिन है कि कुछ अर्सा, इस जश्न पर टल जाएँ । यह जश्न मुबारक हो, पर यह भी सदाकत है, हम लोग हक़ीकत के अहसास से आरी हैं । गांधी हो कि ग़ालिब हो, इन्साफ़ की नज़रों में, हम दोनों के क़ातिल हैं, दोनों