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बिछुडती नायिका की अपने प्रियतम के लिए कामना -"मैं मिट जाऊँ तो मिट जाऊँ, तू शाद रहे आबाद रहे...."

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 684/2011/124 'र स के भरे तोरे नैन' - फिल्मों में ठुमरी विषयक इस श्रृंखला में मैं कृष्णमोहन मिश्र, एक बार फिर आपका स्वागत करता हूँ| कल की कड़ी में हमने आपसे चर्चा की थी कि नवाब वाजिद अली शाह के दरबार में 'ठुमरी' एक शैली के रूप में विकसित हुई थी| अपने प्रारम्भिक रूप में यह एक प्रकार से नृत्य-गीत ही रहा है| राधा-कृष्ण की केलि-क्रीड़ा से प्रारम्भ होकर सामान्य नायक-नायिका के रसपूर्ण श्रृंगार तक की अभिव्यक्ति इसमें होती रही है| शब्दों की कोमलता और स्वरों की नजाकत इस शैली की प्रमुख विशेषता तब भी थी और आज भी है| कथक नृत्य के भाव अंग में ठुमरी की उपस्थिति से नर्तक / नृत्यांगना का अभिनय मुखर हो जाता है| ठुमरी का आरम्भ चूँकि कथक नृत्य के साथ हुआ था, अतः ठुमरी के स्वर और शब्द भी भाव प्रधान होते गए| राज-दरबार के श्रृंगारपूर्ण वातावरण में ठुमरी का पोषण हुआ था| तत्कालीन काव्य-जगत में प्रचलित रीतिकालीन श्रृंगार रस से भी यह शैली पूरी तरह प्रभावित हुई| नवाब वाजिद अली शाह स्वयं उच्चकोटि के रसिक और नर्तक थे| ऊन्होने राधा-कृष्ण के संयोग-वियोग पर कई ठुमरी गीतों

क्या हमने बिगाड़ा है, क्यों हमको सताते हो....गुजरे दिनों में लौट चलिए सहगल और अमीरबाई के साथ इस नटखट से गीत में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 511/2010/211 इं सान मात्र से ग़लतियाँ होती रहती हैं। चाहे हम लाख कोशिश कर लें, छोटी मोटी ग़लतियाँ फिर भी हर रोज़ हम कर ही बैठते हैं। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और बहुत बहुत स्वागत है इस महफ़िल में! आप यह सोच रहे होगे कि यह हम क्या ग़लतियों की बातें लेकर बैठ गये। फिर भी दोस्तों, ज़रा सोचिए, क्या ऐसा भी कोई इंसान है जिसने अपने जीवन में कोई ग़लती ना की हो? बल्कि हम युं भी कह सकते हैं कि ग़लतियों से ही हमें सीखने का मौका मिलता है, अपने आप को सुधारने का मौका मिलता है। जिस दिन हमने कोई ग़लती ना की हो, जिस दिन हमें किसी परेशानी का सामना ना करना पड़ा हो, उस दिन हमें यह यकीन कर लेना चाहिए कि हम ग़लत राह पर चल रहे हैं। ये वाणी मेरी नहीं बल्कि स्वामी विवेकानंद की है। आज हम ग़लतियों की बातें इसलिए कर रहे हैं क्योंकि आज से हम जो शृंखला शुरु कर रहे हैं, उसका भी विषय यही है। युं तो हमारे फ़िल्मी गीतकार, संगीतकार, गायक, गायिकाएँ और फ़िल्म निर्माता व निर्देशक बड़ी ही सावधानी के साथ गानें बनाते हैं और पूरा पूरा पर्फ़ेक्शन उनमें डालने की कोशिश करते हैं, लेकिन फ़

मार कटारी मर जाना ये अखियाँ किसी से मिलाना न....अमीरबाई कर्नाटकी की आवाज़ में एक अनूठा गाना

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 348/2010/48 १९४७ का साल भारत के इतिहास का शायद सब से महत्वपूर्ण साल रहा होगा। इस साल के महत्व से हम सभी वाकिफ हैं। १५ अगस्त १९४७ को इस देश ने पराधीनता की सारी ज़ंजीरों को तोड़ कर एक स्वाधीन वातावरण में सांस लेना शुरु किया था। एक नए भारत की शुरुआत हुई थी इस साल। हालाँकि आज़ादी की ख़ुशी १५ अगस्त के दिन आई थी, लेकिन इस साल की शुरुआत एक बेहद दुखद घटना से हुई थी। और यह दुखद घटना थी हिंदी सिनेमा के पहले सिंगिंग् सुपरस्टार कुंदन लाल सहगल का निधन। १८ जनवरी १९४७ को वो चल बसे और एक पूरा का पूरा युग उनके साथ समाप्त हो गया। उनके अकाल निधन से फ़िल्म संगीत को जो क्षति पहुँची, उसकी भरपाई हो सकता है कि अगली पीढ़ी ने कर दी हो, लेकिन दूसरा सहगल फिर कभी नहीं जन्मा। एक तरफ़ सहगल का सितारा डूब गया, तो दूसरी तरफ़ से एक ऐसी गायिका का उदय हुआ इस साल जो फ़िल्म संगीत का सब से उज्वल सितारा बनीं और ६ दशकों तक इस इंडस्ट्री पर राज करती रहीं। लता मंगेशकर। जी हाँ, १९४७ में ही लता जी का गाया पहला एकल प्लेबैक्ड सॊंग् "पा लागूँ कर जोरी रे" फ़िल्म 'आप की सेवा में' में सुनाई दी