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लोक कजरी : SWARGOSHTHI – 287 : FOLK KAJARI

स्वरगोष्ठी – 287 में आज पावस ऋतु के राग – 8 : कजरी गीतों के विविध स्वरूप ‘कैसे खेले जइबू सावन में कजरिया, बदरिया घेरि आइल ननदी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी हमारी श्रृंखला – “पावस ऋतु के राग” की आठवीं और समापन कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सभी संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। आपको स्वरों के माध्यम से बादलों की उमड़-घुमड़, बिजली की कड़क और रिमझिम फुहारों में भींगने के लिए आमंत्रित करता हूँ। यह श्रृंखला, वर्षा ऋतु के रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत पर केन्द्रित है। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं पर चर्चा कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी प्रस्तुत कर रहे हैं। भारतीय संगीत के अन्तर्गत मल्हार अंग के सभी राग पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में समर्थ हैं। आम तौर पर इन रागों का गायन-वादन वर्षा ऋतु में अधिक किया जाता है। इसके साथ ही कुछ ऐसे सार्वकालिक राग भी हैं जो स्वतंत्र रूप

रसभरी चैती : SWARGOSHTHI – 267 : CHAITI SONGS

स्वरगोष्ठी – 267 में आज होली और चैती के रंग – 5 : कुछ पुरानी चैती ‘यही ठइयाँ मोतिया हेराय गइलें रामा कहवाँ मैं ढूँढू ...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर हमारी श्रृंखला – ‘होली और चैती के रंग’ की पाँचवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला में हम ऋतु के अनुकूल भारतीय संगीत के कुछ ऐसे रागों और रचनाओं की चर्चा कर रहे हैं, जिन्हें ग्रीष्मऋतु के शुरुआती परिवेश में गाने-बजाने की परम्परा है। भारतीय समाज में अधिकतर उत्सव और पर्वों का निर्धारण ऋतु परिवर्तन के साथ होता है। शीत और ग्रीष्म ऋतु की सन्धिबेला में मनाया जाने वाला पर्व- होलिकोत्सव और चैत्रोत्सव प्रकारान्तर से पूरे देश में आयोजित होता है। यह उल्लास और उमंग का, रस और रंगों का, गायन-वादन और नर्तन का पर्व है। भारतीय संगीत की कई ऐसी लोक-शैलियाँ हैं, जिनका प्रयोग उपशास्त्रीय संगीत में भी किया जाता है। होली पर्व के बाद, आरम्भ होने वाले चैत्र से ग्रीष्म ऋतु का आगमन हो जाता है। इस परिवेश में पूरे उत्तर भारत