महफ़िल-ए-ग़ज़ल #०९ मि ट्टी दा बावा नईयो बोलदा वे नईयो चालदा....इस नज़्म ने न जाने कितनों को रूलाया है,कितनों को हीं किसी खोए अपने की याद में डूबो दिया है। अपने जिगर के टुकड़े को खोने का क्या दर्द होता है, वह इस नज़्म में बखूबी झलकता है। तभी तो "गायिका" मिट्टी का एक खिलौना बनाती है ताकि उसमें अपने खोए बेटे को देख सके, लेकिन मिट्टी तो मिट्टी ठहरी, उसमें कोई जान फूँके तभी तो इंसान बने। यह गाना बस ख़्यालों में हीं नहीं है, बल्कि यथार्थ में उस गायिका की निजी ज़िंदगी से जु्ड़ा है। ८ जुलाई १९९० को अपने बेटे "विवेक" को एक दु्र्घटना में खोने के बाद वह गायिका कभी भी वापस गा नहीं सकी। संगीत से उसने हमेशा के लिए तौबा कर लिया और खुद में हीं सिमट कर रह गई। उस गायिका या कहिए उस फ़नकारा ने अब अध्यात्म की ओर रूख कर लिया है,ताकि ईश्वर से अपने बेटे की गलतियों का ब्योरा ले सके। भले हीं आज वह नहीं गातीं, लेकिन फ़िज़ाओं में अभी भी उनकी आवाज़ की खनक मौजूद है और हम सबको यह अफ़सोस है कि उनके बाद "जगजीत सिंह" जी की गायकी का कोई मुकम्मल जोड़ीदार नहीं रहा। जी आप सब सही समझ रहे हैं, ह...