महफ़िल-ए-ग़ज़ल #६२ आ ज की महफ़िल में हम हाज़िर हैं शामिख जी की पसंद की दूसरी गज़ल लेकर। शामिख जी की इस बार की फरमाईश हमारे लिए थोड़ी मुश्किल खड़ी कर गई। ऐसा नहीं है कि हमें गज़ल ढूँढने में मशक्कत करनी पड़ी...गज़ल तो बड़े हीं आराम से हमें हासिल हो गई, लेकिन इस गज़ल से जुड़ी जानकारी ढूँढने में हमें बड़े हीं पापड़ बेलने पड़े। हमें इतना मालूम था कि इस गज़ल में आवाज़ मेहदी हसन साहब की है और संगीत भी उन्हीं का है। हमारे पास उनसे जुड़े कई सारे वाकये हैं, जो हम वैसे भी आपके सामने पेश करने वाले थे। लेकिन हम चाहते थे कि हमारी यह पेशकश बस गायक/संगीतकार तक हीं सीमित न हों बल्कि गज़लगो को भी वही मान-सम्मान और स्थान मिले जो किसी गायक/संगीतकार को नसीब होता है और इसीलिए गज़लगो का जिक्र करना लाजिमी था। अब हम अगर इस गज़ल की बात करें तो लगभग हर जगह इस गज़ल के गज़लगो का नाम "कलीम चाँदपुरी" दर्ज है, लेकिन इस गज़ल के मक़ते में तखल्लुस के तौर पर "क़ामिल" सुनकर हमें उन सारे स्रोतों पर शक़ करना पड़ा। अब हम इस पशोपेश में हैं कि भाई साहब "चाँदपुरी" तो ठीक है, लेकिन आपका असल नाम क्या...