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गुल हुई जाती है अफ़सुर्दा सुलगती हुई शाम....... महफ़िल-ए-नौखेज़ और "फ़ैज़"

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #३१ आ ज की महफ़िल बड़ी हीं खुश-किस्मत है। आज हमारी इस महफ़िल में एक ऐसे शम्म-ए-चरागां तशरीफ़फ़रमां हैं कि उनकी आवभगत के लिए अपनी जबानी कुछ कहना उनकी शान में गुस्ताखी के बराबर होगा। इसलिए हमने यह निर्णय लिया है कि इनके बारे में या तो इन्हीं का कहा कुछ पेश करेंगे या फिर इनके जानने वालों का कहा। इनकी शायरी के बारे में उर्दू के एक बुजुर्ग शायर "असर" लखनवी फ़रमाते हैं: "इनकी शायरी तरक़्की के मदारिज (दर्जे) तय करके अब इस नुक्ता-ए-उरूज (शिखर-बिन्दु) पर पहुंच गई है, जिस तक शायद ही किसी दूसरे तरक्क़ी-पसंद (प्रगतिशील) शायर की रसाई हुई हो। तख़य्युल (कल्पना) ने सनाअत (शिल्प) के जौहर दिखाए हैं और मासूम जज़्बात को हसीन पैकर (आकार) बख़्शा है। ऐसा मालूम होता है कि परियों का एक ग़ौल (झुण्ड) एक तिलिस्मी फ़ज़ा (जादुई वातावरण) में इस तरह मस्ते-परवाज़ (उड़ने में मस्त) है कि एक पर एक की छूत पड़ रही है और क़ौसे-कुज़ह (इन्द्रधनुष) के अक़्कास (प्रतिरूपक) बादलों से सबरंगी बारिश हो रही है।" पंजाब के सियालकोट में जन्मे इस बेमिसाल शायर को "उर्दू" अदब और "उर्दू&qu