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स्मृतियों के झरोखे से : पार्श्व गायन की शुरुआत "धूप छांव" से

भूली-बिसरी यादें भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष में आयोजित विशेष श्रृंखला ‘स्मृतियों के झरोखे से’ के एक नये अंक के साथ मैं कृष्णमोहन मिश्र अपने साथी सुजॉय चटर्जी के साथ आपके बीच उपस्थित हूँ और आपका हार्दिक स्वागत करता हूँ। आज मास का तीसरा गुरुवार है और इस दिन हम आपके लिए मूक और सवाक फिल्मों की कुछ रोचक दास्तान लेकर आते हैं। तो आइए पलटते हैं, भारतीय फिल्म-इतिहास के कुछ सुनहरे पृष्ठों को। यादें मूक फिल्म-युग की : लन्दन में भी प्रदर्शित हुआ ‘राजा हरिश्चन्द्र’   दा दा साहब फालके की बनाई पहली भारतीय मूक फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ से ही भारतीय सिनेमा का इतिहास आरम्भ होता है। इस फिल्म का पूर्वावलोकन 21अप्रैल 1913 को और नियमित प्रदर्शन 3मई, 1913 को हुआ था। भारतीय दर्शकों के लिए परदे पर चलती-फिरती तस्वीरें देखना किसी चमत्कार से कम नहीं था। दादा साहब फालके ने इस फिल्म के निर्माण के लिए ‘फालके ऐंड कम्पनी’ की स्थापना बम्बई (अब मुम्बई) में की थी। फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ के प्रदर्शन के बाद फालके ने अपनी अगली फिल्मों का निर्माण नासिक में किया। इ

स्मृतियों के झरोखे से : भारतीय सिनेमा के सौ साल – 8

भूली-बिसरी यादें भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष में आयोजित विशेष श्रृंखला ‘स्मृतियों के झरोखे से’ के एक नये अंक में मैं कृष्णमोहन मिश्र अपने सहयोगी स्तम्भकार सुजॉय चटर्जी के साथ आपका स्वागत करता हूँ। इस श्रृंखला में प्रत्येक मास के पहले और तीसरे गुरुवार को हम आपके लिए लेकर आते हैं, मूक फिल्मों के प्रारम्भिक दौर के कुछ रोचक तथ्य और दूसरे हिस्से में सवाक फिल्मों के प्रारम्भिक दौर की कोई उल्लेखनीय संगीत रचना और रचनाकार का परिचय। आज के अंक में हम आपसे इस युग के कुछ रोचक तथ्य साझा करेंगे।   ‘राजा हरिश्चन्द्र’ से पहले : उत्कृष्ट वृत्त-चित्रों से आगे बढ़ा भारतीय फिल्मों का काफिला भा रतीय सिनेमा के शुरुआती दौर में भावी फिल्मों के लिए दिशा की खोज जारी थी। मुहावरे गढ़े जा रहे थे। 3मई, 1913 को भारत में निर्मित पहली कथा-फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ तक पहुँचने में भारतीय फ़िल्मकारों को 17वर्ष लगे। 1896 से 1913 तक की अवधि में भारतीय फ़िल्मकार दो अलग-अलग दिशाओं में सक्रिय रहे। एक वर्ग फिल्म के निर्माण में तो दूसरा वर्ग फिल्म के व्यावसायिक प्रदर्शन के क्षेत्र में सलग्न था। बीसवीं शताब्दी