Skip to main content

Posts

Showing posts with the label nusrat fateh ali khan

अँखियाँ नूं चैन न आवे...बाबा नुसरत की रूहानी आवाज़ आज महफ़िल ए कहकशां में

महफ़िल ए कहकशां  4 नुसरत फ़तेह अली खान दो स्तों सुजोय और विश्व दीपक द्वारा संचालित "कहकशां" और "महफिले ग़ज़ल" का ऑडियो स्वरुप लेकर हम हाज़िर हैं, "महफिल ए कहकशां" के रूप में पूजा अनिल और रीतेश खरे  के साथ।  अदब और शायरी की इस महफ़िल में आज सुनिए नुसरत फ़तेह अली खान साहब के रूहानी स्वर में एक जुदाई गीत. मुख्य स्वर - पूजा अनिल एवं रीतेश खरे  स्क्रिप्ट - विश्व दीपक एवं सुजॉय चटर्जी

अखियाँ नु चैन न आवे....नुसरत बाबा का रूहानी अंदाज़ आज 'कहकशाँ’ में

कहकशाँ - 8 नुसरत फ़तेह अली ख़ाँ और मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ें   "अब तो आजा कि आँखें उदास बैठी हैं..." ’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के सभी दोस्तों को हमारा सलाम! दोस्तों, शेर-ओ-शायरी, नज़्मों, नगमों, ग़ज़लों, क़व्वालियों की रवायत सदियों की है। हर दौर में शायरों ने, गुलुकारों ने, क़व्वालों ने इस अदबी रवायत को बरकरार रखने की पूरी कोशिशें की हैं। और यही वजह है कि आज हमारे पास एक बेश-कीमती ख़ज़ाना है इन सुरीले फ़नकारों के फ़न का। यह वह कहकशाँ है जिसके सितारों की चमक कभी फ़ीकी नहीं पड़ती और ता-उम्र इनकी रोशनी इस दुनिया के लोगों के दिल-ओ-दिमाग़ को सुकून पहुँचाती चली आ रही है। पर वक्त की रफ़्तार के साथ बहुत से ऐसे नगीने मिट्टी-तले दब जाते हैं। बेशक़ उनका हक़ बनता है कि हम उन्हें जानें, पहचानें और हमारा भी हक़ बनता है कि हम उन नगीनों से नावाकिफ़ नहीं रहें। बस इसी फ़ायदे के लिए इस ख़ज़ाने में से हम चुन कर लाएँगे आपके लिए कुछ कीमती नगीने हर हफ़्ते और बताएँगे कुछ दिलचस्प बातें इन फ़नकारों के बारे में। तो पेश-ए-ख़िदमत है नगमों, नज़्मों, ग़ज़लों और क़व्वालियों की एक अदबी

मेरा दिल तड़पे दिलदार बिना.. राहत साहब की दर्दीली आवाज़ में इस ग़मनशीं नज़्म का असर हज़ार गुणा हो जाता है

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०२ अ भी कुछ महीनों से हमने अपनी महफ़िल "गज़लगो" पर केन्द्रित रखी थी.. हर महफ़िल में हम बस शब्दों के शिल्पी की हीं बातें करते थे, उन शब्दों को अपनी मखमली, पुरकशिश, पुर-असर आवाज़ों से अलंकृत करने वाले गलाकारों का केवल नाम हीं महफ़िल का हिस्सा हुआ करता था। यह सिलसिला बहुत दिन चला.. हमारे हिसाब से सफल भी हुआ, लेकिन यह संभव है कि कुछ मित्रों को यह अटपटा लगा हो। "अटपटा"... "पक्षपाती"... "अन्यायसंगत"... है ना? शर्माईये मत.. खुलकर कहिए? क्या मैं आपके हीं दिल की बात कर रहा हूँ? अगर आप भी उन मित्रों में से एक हैं तो हमारा कर्त्तव्य बनता है कि आपकी नाराज़गी को दूर करें। तो दोस्तों, ऐसा इसलिए हुआ था क्योंकि वे सारी महफ़िलें "बड़े शायर" श्रृंखला के अंतर्गत आती थीं और "बड़े शायर" श्रृंखला की शुरूआत (जिसकी हमने विधिवत घोषणा कभी भी नहीं की थी) आज से ८ महीने और १० दिन पहले मिर्ज़ा ग़ालिब पर आधारित पहली कड़ी से हुई थी। ७१ से लेकर १०१ यानि कि पूरे ३१ कड़ियों के बाद पिछले बुधवार हमने उस श्रृंखला पर पूर्णविराम डाल दिया। और आज से

ये बाज़ी इश्क़ की बाज़ी है जो चाहो लगा दो.... महफ़िल में पहली मर्तबा "नुसरत" और "फ़ैज़" एक साथ

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #४६ पि छली कड़ी में जहाँ सारे जवाब परफ़ेक्ट होते-होते रह गए थे(शरद जी अपने दूसरे जवाब के साथ कड़ी संख्या जोड़ना भूल गए थे), वहीं इस बार हमें इस बात की खुशी है कि पहली मर्तबा किसी ने कोई गलती नहीं की है। खुशी इस बात की भी है कि जहाँ हमारे बस दो नियमित पहेली बूझक हुआ करते थे(सीमा जी और शरद जी), वहीं इसी फ़ेहरिश्त में अब शामिख जी भी शामिल हो गए हैं। उम्मीद करते हैं कि धीरे-धीरे और भी लोग हमारी इस मुहिम में भाग लेने के लिए आगे आएँगे। अभी भी ५ कड़ियाँ बाकी हैं, इसलिए कभी भी सारे रूझान बदल सकते हैं। इसलिए सभी प्रतिभागियों से आग्रह है कि वे जोर लगा दें और जो अभी भी किसी शर्मो-हया के कारण खुद को छुपाए हुए हैं,वे पर्दा हटा के सामने आ जाएँ। चलिए अब पिछली कड़ी के अंकों का हिसाब करते हैं। इस बार का गणित बड़ा हीं आसान है: सीमा जी: ४ अंक, शरद जी: २ अंक, शामिख जी: १ अंक। और हाँ, शरद जी आपकी यह बहानेबाजी नहीं चलेगी। महफ़िल-ए-गज़ल में आपको आना हीं होगा और जवाब भी देना होगा। चलिए, अब बारी है आज के प्रश्नों की| तो ये रहे प्रतियोगिता के नियम और उसके आगे दो प्रश्न: ५० वें अंक तक हम हर बार आ

तेरी आवाज़ आ रही है अभी.... महफ़िल-ए-शाइर और "नासिर"

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #३० "म हफ़िल-ए-गज़ल" के २५वें वसंत (यूँ तो वसंत साल में एक बार हीं आता है, लेकिन हम ने उसे हफ़्ते में दो बार आने को विवश कर दिया है) पर हमने कुछ नया करने का सोचा, सोचा कि क्यों ना अपनी और अपने पाठकों की याद्दाश्त की मालिश की जाए। गौरतलब है कि हम हर बार एक ऐसी गज़ल या गैर फिल्मी नज़्म लेकर हाज़िर होते हैं, जिसे जमाना भुला चुका है या फिर भुलाता जा रहा है। आज कल नए-नए वाद्ययंत्रों की बाढ-सी आ गई है और उस बाढ में सच्चे और अच्छे शब्द गुम होते जा रहे हैं। इन्हीं शब्दों, इन्हीं लफ़्ज़ों को हमें संभाल कर रखना है। तो फिर गज़लों से बढिया खजाना कहाँ मिलेगा, जहाँ शुद्ध संगीत भी है, पाक गायन भी है तो बेमिसाल लफ़्ज़ भी हैं। इसलिए हमारा यह फ़र्ज़ बनता है कि ऐसी गज़लों, ऐसी नज़्मों को न सिर्फ़ एक बार सुने बल्कि बार-बार सुनते रहें। फिर जिन फ़नकारों ने इन गज़लों की रचना की है,उनके बारें में जानना भी तो ज़रूरी है और बस जानना हीं नहीं उन्हें याद रखना भी। अब हम तो एक कड़ी में एक फ़नकार के बारे में बता देते हैं और फिर आगे बढ जाते हैं। अगर हमें उन फ़नकारों को याद रखना है तो कुछ अंतरा

शहर के दुकानदारों को जावेद अख्तर की सलाह - एल्बम संगम से नुसरत साहब की आवाज़ में

बात एक एल्बम की # 07 फीचर्ड आर्टिस्ट ऑफ़ दा मंथ - नुसरत फतह अली खान और जावेद अख्तर. फीचर्ड एल्बम ऑफ़ दा मंथ - "संगम" - नुसरत फतह अली खान और जावेद अख्तर आलेख प्रस्तुतीकरण - सजीव सारथी जैसा कि आप जानते हैं हमारे इस महीने के फीचर्ड एल्बम में दो फनकारों ने अपना योगदान दिया है. नुसरत साहब के बारे में हम पिछले दो अंकों में बात कर ही चुके हैं. आज कुछ चर्चा करते हैं अल्बम "संगम" के गीतकार जावेद अख्तर साहब की. जावेद अख्तर एक बेहद कामियाब पठकथा लेखक और गीतकार होने के साथ साथ साहित्य जगत में भी बतौर एक कवि और शायर अच्छा खासा रुतबा रखते हैं. और क्यों न हों, शायरी तो कई पीढियों से उनके खून में दौड़ रही है. वे गीतकार/ शायर जानिसार अख्तर और साफिया अख्तर के बेटे हैं, और अपने दौर के रससिद्ध शायर मुज़्तर खैराबादी जावेद के दादा हैं. उनकी परदादी सयिदुन निसा "हिरमां" उन्नीसवी सदी की जानी मानी उर्दू कवियित्री रही हैं और उन्हीं के खानदान में और पीछे लौटें तो अल्लामा फजले हक का भी नाम आता है, अल्लामा ग़ालिब के करीबी दोस्त थे और "दीवाने ग़ालिब" का संपादन उन्हीं के ह

जब तेरी धुन में जिया करते थे.....महफ़िल-ए-हसरत और बाबा नुसरत

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१४ कु छ फ़नकार ऐसे होते हैं, जिनकी ना तो कोई कृति पुरानी होती है और ना हीं कीर्ति पर कोई दाग लगता है। वह फ़नकार चाहे मर भी जाए लेकिन फ़न की मौत नहीं होती और यकीन मानिए- एक सच्चे फ़नकार की परिभाषा भी यही है। एक ऐसे हीं फ़नकार हैं जिनके बारे में जितना भी लिखा जाए,ना तो दिल को संतुष्टि मिलती है और ना हीं कलम को चैन नसीब होता है। कहने को तो १९९७ में हीं उस फ़नकार ने इस ईहलोक को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया था,लेकिन अब भी फ़िज़ा में उनके सुरों की खनक और आवाज़ की चमक यथास्थान मौजूद है। ना हीं वक्त उसे मिटा पाया है और ना हीं मौत उसे बेअसर कर पाई है। उसी "शहंशाह-ए-कव्वाली", जिसे २००६ में "टाईम मैगजीन" ने "एशियन हिरोज" की फ़ेहरिश्त में शुमार किया था, की एक गज़ल लेकर हम आज यहाँ जमा हुए हैं। वह गज़ल वास्तव में सत्तर के दशक की है,जिसे पाकिस्तान के रिकार्ड लेबल "रहमत ग्रामोफोन" के लिए रिकार्ड किया गया था और यही कारण है कि तमाम कोशिशों के बावजूद मैं उस गज़ल के गज़लगो का नाम मालूम नहीं कर पाया। लेकिन परेशान मत होईये, गज़लगो का नाम नहीं मिला तो क्

वाइस ऑफ़ हेवन - कोई बोले राम-राम, कोई खुदाए........नुसरत फ़तेह अली खान.

बात एक एल्बम की # 06 फीचर्ड आर्टिस्ट ऑफ़ दा मंथ - नुसरत फतह अली खान और जावेद अख्तर. फीचर्ड एल्बम ऑफ़ दा मंथ - "संगम" - नुसरत फतह अली खान और जावेद अख्तर आलेख प्रस्तुतीकरण - नीरज गुरु "बादल" आज फिर नुसरत जी पर लिखने बैठा हूँ, समझ नहीं आता है कि क्या करूँ जो इस शख्स का नशा मुझ पर से उतर जाए. इनका हर सुर खुमारी का वो आलम लेकर आता है कि बस आँखें बंद हो जाती हैं, शरीर के कस-बल ढीले पड़ जाते हैं और एक गहरी ध्यान-मुद्रा में चला जाता हूँ. फिर लगता है कि कोई भी मुझे छेड़े नहीं. पर यह दुनिया है बाबा.....वो मुझे नहीं छोड़ती और यह नुसरत साहब मुझसे नहीं छूटते हैं. आज यही कशमकश मैं आपके साथ बाँटने निकला हूँ. आज जिस नुसरत साहब को हम जानते हैं, उन्हें पाकिस्तानी मौसिकी का रत्न कहा जाता है, बात बड़ी लगती है-सही भी लगती है, पर मेरी नज़र में उन्हें विश्व-संगीत की अमूल्य धरोहर कहा जाए तो कोई अतिशियोक्ति नहीं होगी. सूफियाना गायन ऐसा है कि कोई भी उसका दीवाना हो जाए, पर यह दीवानगी पैदा करने के लिए ही उस खुदा ने नुसरत जी को हमारे बीच भेजा था. उन्होंने क़व्वाली के ज़रिये, इस सूफियाना अंदा

आफ़रीन आफ़रीन...कौन न कह उठे नुसरत साहब की आवाज़ और जावेद साहब को बोलों को सुन...

बात एक एल्बम की # 05 फीचर्ड आर्टिस्ट ऑफ़ दा मंथ - नुसरत फतह अली खान और जावेद अख्तर. फीचर्ड एल्बम ऑफ़ दा मंथ - "संगम" - नुसरत फतह अली खान और जावेद अख्तर उन दिनों मैं राजस्थान की यात्रा पर था, जहाँ एक बस में मैंने उसके घटिया ऑडियो सिस्टम में खड़खड़ के बीच, "आफरीन-आफरीन.." सुना था. ज़्यादा समझ में नहीं आया पर धुन कहीं अन्दर जाकर समां गई- वहीँ गूँजती रही. फिर जब उदयपुर की एक म्यूजिक शाप पर फिर उसी धुन को सुना जो अबकी बार कहीं ज़्यादा बेहतर थी तो एक नशा-सा छा गया. यह आवाज़ थी जनाब नुसरत फतह अली भुट्टो साहब की. क्या शख्सियत, आवाज़ में क्या रवानगी, क्या खनकपन, क्या लहरिया, क्या सुरूर और क्या अंदाज़ गायकी का, जैसे खुदा खुद ज़मी पर उतर आया हो. मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि जब नुसरत साहब गाते होगें, खुदा भी वहीँ-कहीं आस-पास ही रहता होगा, उन्हें सुनता हुआ मदहोश-सा. धन्य हैं वो लोग, जो उस समय वहां मौजूद रहें होगें. उनकी आवाज़-उनका अंदाज़, उनका वो हाथों को हिलाना, चेहरे पर संजीदगी, संगीत का उम्दा प्रयोग, यह सब जैसे आध्यात्म की नुमाइंदगी करते मालूम देते हैं. दुनिया ने उन्हें देर

आबिदा और नुसरत एक साथ...महफिल-ए-ग़ज़ल में

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #०२ उ नकी नज़र का दोष ना मेरे हुनर का दोष, पाने को मुझको हो चला है इश्क सरफ़रोश। इश्क वो बला है जो कब किस दिशा से आए, किसी को पता नहीं होता। इश्क पर न जाने कितनी हीं तहरीरें लिखी जा चुकी हैं, लेकिन इश्क को क्या कोई भी अब तक जान पाया है। पहली नज़र में हीं कोई किसी को कैसे भा जाता है, कोई किसी के लिए जान तक की बाजी क्यों लगा देता है और तो और इश्क के लिए कोई खुद की हस्ती तक को दाँव पर लगा देता है। आखिर ऎसा क्यों है? अगर इश्क के असर पर गौर किया जाए तो यह बात सभी मानेंगे कि इश्क इंसान में बदलाव ला देता है। इंसान खुद के बनाए रस्तों पर चलने लगता है और खुद के बनाए इन्हीं रस्तों पर खुदा मिलते हैं। कहते भी हैं कि "जो इश्क की मर्जी वही रब की मर्जी " । तो फिर ऎसा क्यों है कि इन खुदा के बंदों से कायनात की दुश्मनी ठन जाती है। तवारीख़ गवाह है कि जिसने भी इश्क की निगेहबानी की है, उसके हिस्से में संग(पत्थर) हीं आए हैं। सरफ़रोश इश्क इंसान को सरफ़रोश बना कर हीं छोड़ता है,वहीं दूसरी ओर खुदा के रसूल हीं खुदा के शाहकार को पाप का नाम देने लगते हैं: संग-दिल जहां मुझसे भले हीं अलहदा

अखियाँ नु चैन न आवें....नुसरत बाबा का रूहानी अंदाज़ महफ़िल-ए-ग़ज़ल में

महफ़िल-ए-ग़ज़ल # ०१ अ ब तो आ जा कि आँखें उदास बैठी हैं, भूलकर होश-औ-गुमां बदहवास बैठी हैं। इश्क की कशिश हीं ऎसी है कि साजन सामने हो तो भी कुछ न सूझे और दूर जाए तब भी कुछ न सूझे। इश्क की तड़प हीं ऎसी है कि साजन आँखों में हो तो दिल को सुकूं न मिले और दिल में हो तो आँखों में कुछ चुभता-सा लगे। रूह तब तक मोहब्बत के रंग में नहीं रंगता जब तक पोर-पोर में साजन की आमद न हो। लेकिन अगर दिल की रहबर "आँखें" हीं साजन के दरश को प्यासी हों तो बिन मौसम सावन न बरसे तो और क्या हो। यकीं मानिए सावन बारहा मज़े नहीं देता : आँखों से अम्ल बरसे जो दफ़-अतन कभी, छिल जाए गीली धरती,खुशियाँ जलें सभी। बाबा नुसरत ने कुछ ऎसे हीं भावों को अपने मखमली आवाज़ से सराबोर किया है। "बैंडिट क्वीन" से यह पंजाबी गीत आप सबके सामने पेशे खिदमत है। शाइर वो क्या जो न झांके खुद के अंदर में, क्या रखा है खल्क-खुल्द, माह-औ-मेहर में? साहिर ने प्यासा में कहा है: "ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है" । इस सुखन के हरेक हर्फ़ से कई मायने निकलते हैं,जो ज़िंदगी को सच्चाई का आईना दिखाते हैं । एक मायना यह भी निकलता ह

सांसों की माला में सिमरूं मैं पी का नाम...बाबा नुसरत फ़तेह अली ख़ां की आवाज़ में एक दुर्लभ कम्पोज़ीशन

अपनी आकृति पए ध्यान मत दो, चाहे वह कैसी भी सुन्दर हो या बदसूरत प्रेम पर ध्यान दो और उस लक्ष्य पर जहां तुम्हें पहुंचना है ... अरे तुम! जिसके होंठ पपड़ा गए हैं, तुम जो लगातार खोज रहे हो पानी को प्यास से पपड़ाए तुम्हारे होंठ सबूत हैं इस बात का कि बिल आख़ीर तुम पानी के सोते तक पहुंच ही जाओगे यह कविता सबसे बड़े सूफ़ी कवि जलालुद्दीन रूमी की है. युद्ध, बाज़ारवाद, पैसे, उपनिवेशवाद और इन सबसे उपजे आतंकवाद से लगातार रूबरू अमरीकी समाज के बारे में एक नवीनतम तथ्य रूमी से जुड़ा हुआ है. वाल्ट व्हिटमैन और एमिली डिकिन्सन जैसे दिग्गज अमरीकी कवियों के संग्रह पिछले कई दशकों से बेस्टसैलर्स की सूची में सबसे ऊपर रहा करते थे. वर्ष २००६ और सात में इस स्थान पर रूमी काबिज़ हैं. आम अमरीकी जनता की पसन्द में आया यह बदलाव यह एक ऐसी प्रतिक्रिया है जो बार बार इस बात को अन्डरलाइन करती जाती है कि सूफ़ी काव्य और संगीत इतनी सदियों बाद आज भी प्रासंगिक है और अपनी सार्वभौमिकता में एक स्पन्दन छिपाए हुए है जो मुल्कों, सरहदों, मजहबों, भाषाओं और संवेदनाओं से बहुत आगे की चीज़ है. सूफ़ी दरवेश उस सर्वव्याप्त सर्वशक्तिमान प्रेम के ग