Skip to main content

Posts

Showing posts with the label mayuri veena

संगीत वाद्य परिचय श्रृंखला : पं. श्रीकुमार मिश्र से बातचीत (२)

स्वरगोष्ठी – ८९ में आज   परदे वाले गज वाद्यों की मोहक अनुगूँज   ‘स्वरगोष्ठी’ के एक नए अंक के साथ, मैं कृष्णमोहन मिश्र फिर एक बार आज की महफिल में उपस्थित हूँ और आपका हार्दिक स्वागत करता हूँ। गत सप्ताह हमारे बीच जाने-माने इसराज और मयूरवीणा-वादक पण्डित श्रीकुमार मिश्र उपस्थित थे, जिन्होने गज-तंत्र वाद्य सारंगी के विषय में हमारे साथ विस्तृत चर्चा की थी। हमारे अनुरोध पर श्रीकुमार जी आज भी हमारे साथ हैं। आज हम उनसे कुछ ऐसे गज-तंत्र वाद्यों का परिचय प्राप्त करेंगे, जिनमें परदे होते हैं। कृष्णमोहन : श्रीकुमार जी, ‘स्वरगोष्ठी’ के सुरीले मंच पर एक बार पुनः आपका हार्दिक स्वागत है। गत सप्ताह हमने आपसे सारंगी वाद्य के बारे में चर्चा की थी। आज इस श्रृंखला में एक और कड़ी जोड़ते हुए सारंगी के ही एक परिवर्तित रूप के बारे में जानना चाहते हैं। वर्तमान में इसराज, दिलरुबा, तार शहनाई और स्वयं आप द्वारा पुनर्जीवित वाद्य मयूरवीणा ऐसे वाद्य हैं, जो गज से बजाए जाते हैं, किन्तु इनमें सितार की भाँति परदे लगे होते हैं। इन परदे वाले गज-वाद्यों की विकास-यात्रा क...

‘वीणा मधुर मधुर कछु बोल...’ : गीत के बहाने, चर्चा राग- भीमपलासी की

महात्मा गाँधी ने अपने जीवनकाल में एकमात्र फिल्म ‘रामराज्य’ देखी थी। १९४३ में प्रदर्शित इस फिल्म का निर्माण प्रकाश पिक्चर्स ने किया था। इस फिल्म के संगीत निर्देशक अपने समय के जाने-माने संगीतज्ञ पण्डित शंकरराव व्यास थे। बहुमुखी प्रतिभा के धनी, व्यासजी की कुशलता केवल फिल्म संगीत निर्देशन के क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि शास्त्रीय गायन, संगीत शिक्षण और ग्रन्थकार के रूप में भी सुरभित हुई। फिल्म ‘रामराज्य’ में पण्डित जी ने राग भीमपलासी के स्वरों में एक गीत संगीतबद्ध किया था। आज हमारी गोष्ठी में यही गीत, राग और इसके रचनाकार, चर्चा के विषय होंगे। SWARGOSHTHI – 53 – Pandit Shankar Rao Vyas ‘स्व रगोष्ठी’ के एक नए अंक के साथ, मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार फिर इस सांगीतिक बैठक में उपस्थित हूँ। आज हम लगभग सात दशक पहले की एक फिल्म ‘रामराज्य’ के एक गीत- ‘वीणा मधुर मधुर कछु बोल...’ और इस गीत के संगीतकार पण्डित शंकरराव व्यास के व्यक्तित्व-कृतित्व पर चर्चा करेंगे। कल २३ जनवरी को इस महान संगीतज्ञ की ११३वीं जयन्ती है। इस अवसर के लिए हम आज उन्हें स्वरांजलि अर्पित कर रहे हैं। कोल्हापुर में २३ जनवरी, १८९८ में ...

सुर संगम में आज - इसराज की मोहक ध्वनि और पण्डित श्रीकुमार मिश्र

सुर संगम- 37 – सितार और सारंगी, दोनों के गुण हैं इन वाद्यों में (दूसरा भाग) पढ़ें पहला भाग रा ग-रस-रंग की सुरीली महफिल ‘सुर संगम’ के एक और नये अंक में कृष्णमोहन मिश्र की ओर से आपका हार्दिक स्वागत है। गत सप्ताह हमने एक ऐसे लुप्तप्राय तंत्रवाद्य 'मयूरी वीणा' पर चर्चा आरम्भ की थी, जिसका चलन लगभग एक शताब्दी पूर्व समाप्त हो चुका था, किन्तु भारतीय संगीत के क्षेत्र में समय-समय पर ऐसे भी संगीतकार हुए हैं, जिन्होने लुप्तप्राय वाद्यों और संगीत-शैलियों का पुनरोद्धार किया है। जाने-माने इसराज-वादक पण्डित श्रीकुमार मिश्र एक ऐसे ही कलासाधक हैं, जिन्होने विभिन्न संगीत-ग्रन्थों का अध्ययन कर लगभग लुप्त हो चुके तंत्रवाद्य 'मयूरी वीणा' का नव-निर्माण किया। पिछले अंक में हमने पंजाब में इस वाद्य के विकास पर आपसे चर्चा की थी। आज के अंक में हम बंगाल में वाद्य के विकास की पंडित श्रीकुमार मिश्र द्वारा दी गई जानकारी आपसे बाँटेंगे। बंगाल के विष्णुपुर घराने के रामकेशव भट्टाचार्य सुप्रसिद्ध ताऊस अर्थात मयूरी वीणा वादक थे। उन्होने भी इस वाद्य को संक्षिप्त रूप देने के लिए इसकी कुण्डी से मोर की आकृति...

मयूरी वीणा के उद्धारक और वादक पण्डित श्रीकुमार मिश्र

सुर संगम- 36 – दो तंत्रवाद्यों का समागम है, मयूरी वीणा, दिलरुबा अथवा इसराज में (पहला भाग) सु र संगम के एक नये अंक में आप सब संगीतनुरागियों का, मैं कृष्णमोहन मिश्र हार्दिक स्वागत करता हूँ। आज के अंक में हम आपसे एक ऐसे पारम्परिक तंत्रवाद्य पर चर्चा करेंगे, जिसमें दो वाद्यों के गुण उपस्थित होते हैं। वैदिक काल से ही तंत्रवाद्य के अनेक प्रकार प्रचलन में रहे हैं। प्राचीन काल में गज (Bow) से बजने वाले तंत्रवाद्यों में ‘पिनाकी वीणा’, ‘निःशंक वीणा’, ‘रावणहस्त वीणा’ आदि प्रमुख रूप से प्रचलित थे। आधुनिक समय में इन्हीं वाद्यों का विकसित और परिमार्जित रूप ‘सारंगी’ और ‘वायलिन’ सर्वाधिक लोकप्रिय है। तंत्रवाद्य का एक दूसरा प्रकार है, जिसे गज (Bow) के बजाय तारों पर आघात (Stroke) कर स्वरों की उत्पत्ति की जाती है। प्राचीन काल में इस श्रेणी में ‘रुद्र वीणा’, ‘सरस्वती वीणा’, ‘शततंत्री वीणा’ आदि प्रचलित थे, तो आधुनिक काल में ‘सितार’, ‘सरोद’, ‘संतूर’ आदि आज लोकप्रिय हैं। इन दोनों प्रकार के प्राचीन वाद्यों की अपनी अलग-अलग विशेषताएँ हैं। प्राचीन गजवाद्यों में नाद पक्ष का गाम्भीर्य उपस्थित रहता है, जबकि आघात स...