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"सातों बार बोले बंसी" और "जाने दो मुझे जाने दो" जैसे नगीनों से सजी है आज की "गुलज़ार-आशा-पंचम"-मयी महफ़िल

कहकशाँ - 24 गुलज़ार, पंचम और आशा ’दिल पड़ोसी है’ में    "दिल पड़ोसी है, मगर मेरा तरफ़दार नहीं..." ’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के सभी दोस्तों को हमारा सलाम! दोस्तों, शेर-ओ-शायरी, नज़्मों, नगमों, ग़ज़लों, क़व्वालियों की रवायत सदियों की है। हर दौर में शायरों ने, गुलुकारों ने, क़व्वालों ने इस अदबी रवायत को बरकरार रखने की पूरी कोशिशें की हैं। और यही वजह है कि आज हमारे पास एक बेश-कीमती ख़ज़ाना है इन सुरीले फ़नकारों के फ़न का। यह वह कहकशाँ है जिसके सितारों की चमक कभी फ़ीकी नहीं पड़ती और ता-उम्र इनकी रोशनी इस दुनिया के लोगों के दिल-ओ-दिमाग़ को सुकून पहुँचाती चली आ रही है। पर वक्त की रफ़्तार के साथ बहुत से ऐसे नगीने मिट्टी-तले दब जाते हैं। बेशक़ उनका हक़ बनता है कि हम उन्हें जानें, पहचानें और हमारा भी हक़ बनता है कि हम उन नगीनों से नावाकिफ़ नहीं रहें। बस इसी फ़ायदे के लिए इस ख़ज़ाने में से हम चुन कर लाएँगे आपके लिए कुछ कीमती नगीने हर हफ़्ते और बताएँगे कुछ दिलचस्प बातें इन फ़नकारों के बारे में। तो पेश-ए-ख़िदमत है नगमों, नज़्मों, ग़ज़लों और क़व्वालियों की एक अदबी

आज की महफ़िल में सुनिए क्यों संगीतकार खय्याम दस वर्ष की छोटी उम्र में घर से भाग गए?

खय्याम  महफ़िल ए कहकशाँ 8 दो स्तों सुजोय और विश्व दीपक द्वारा संचालित "कहकशां" और "महफिले ग़ज़ल" का ऑडियो स्वरुप लेकर हम हाज़िर हैं, "महफिल ए कहकशां" के रूप में पूजा अनिल और रीतेश खरे  के साथ।  अदब और शायरी की इस महफ़िल में आज सुनिए आशा भोंसले की गाई और खय्याम साहब द्वारा संगीतबद्ध यह ग़ज़ल | मुख्य स्वर - पूजा अनिल एवं रीतेश खरे  स्क्रिप्ट - विश्व दीपक एवं सुजॉय चटर्जी

"ये गाँव प्यारा-प्यारा...", पर नहीं बसा सकीं वर्षा भोसले अपने सपनों का गाँव

गायिका वर्षा भोसले को श्रद्धांजलि "ये गाँव प्यारा-प्यारा, ये लवली-लवली गाँव, ये हरियाली पीपल की घनी छाँव, राजा बेटा धरती का प्यारा-प्यारा गाँव..." , बरसों बरस पहले जब वर्षा भोसले इस गीत को गाते हुए जिस प्यारे से इस गाँव की कल्पना की होगी, तब शायद ही उन्हें इस बात का इल्म हुआ होगा कि वो कभी अपने सपनों का गाँव नहीं बसा पाएँगी। आज जब वर्षा हमारे बीच नहीं रहीं तो उनका गाया हुआ यही गीत बार-बार मन-मस्तिष्क पर हावी हो रहा है। कल जब तक वो इस दुनिया में थीं तब शायद ही हम में से कोई उन्हें दैनन्दिन जीवन में याद किया होगा, पर उनके जाने के बाद दिल यह सोचने पर ज़रूर मजबूर कर रहा है कि उन्होंने यह भयानक क़दम क्यों उठाया होगा? क्यों मानसिक अवसाद ने उन्हें घेर लिया होगा? होश संभालने से पहले ही पिता से दूर हो जाने का दु:ख उनके कोमल मन को कुरेदा होगा? विश्व की श्रेष्ठ गायिकाओं में से एक आशा भोसले की बेटी होकर भी जीवन में कुछ ख़ास न कर पाने का ग़म सताया होगा? अपनी वैवाहिक जीवन की असफलता ने उनकी बची-खुची आशाओं पर भी पानी फेर दिया होगा? सम्पत्ति को लेकर पारिवारिक अशान्ति से वो तंग आ गई

फिर किसी शाख ने फेंकी छाँव....और "बहुत देर तक" महकती रही तनहाईयाँ

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 719/2011/159 'ए ल्ड इज़ गोल्ड' के सभी चाहने वालों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! जैसा कि इन दिनों इस स्तंभ में आप आनंद ले रहे हैं सजीव सारथी की लिखी कविताओं और उन कविताओं पर आधारित फ़िल्मी रचनाओं की लघु शृंखला ' एक पल की उम्र लेकर ' में। आज नवी कड़ी के लिए हमने चुनी है कविता ' बहुत देर तक '। बहुत देर तक यूँ ही तकता रहा मैं परिंदों के उड़ते हुए काफ़िलों को बहुत देर तक यूँ ही सुनता रहा मैं सरकते हुए वक़्त की आहटों को बहुत देर तक डाल के सूखे पत्ते भरते रहे रंग आँखों में मेरे बहुत देर तक शाम की डूबी किरणें मिटाती रही ज़िंदगी के अंधेरे बहुत देर तक मेरा माँझी मुझको बचाता रहा भँवर से उलझनों की बहुत देर तक वो उदासी को थामे बैठा रहा दहलीज़ पे धड़कनों की बहुत देर तक उसके जाने के बाद भी ओढ़े रहा मैं उसकी परछाई को बहुत देर तक उसके अहसास ने सहारा दिया मेरी तन्हाई को। इस कविता में कवि के अंदर की तन्हाई, उसके अकेलेपन का पता चलता है। कभी कभी ज़िंदगी यूं करवट लेती है कि जब हमारा साथी हमसे बिछड़ जाता है। हम लाख कोशिश करें उसके दामन को अपनी ओर खींचे

कतरा कतरा मिलती है.....खुशी और दर्द के तमाम फूलों को समेट लेता है "वो" आकर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 717/2011/157 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' स्तंभ के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय और सजीव का प्यार भरा नमस्कार! आज इस सुरीली महफ़िल की शमा जलाते हुए पेश कर रहे हैं सजीव सारथी की लिखी कविता ' वो '। लघु शृंखला ' एक पल की उम्र लेकर ' की यह है सातवीं कड़ी। समय की पृष्ठभूमि पर बदलते रहे चित्र कुछ चेहरे बने कुछ बुझ गए कुछ कदम साथ चले कुछ खो गए पर वो उसकी ख़ुशबू रही साथ सदा उसका साया साथ चला मेरे हमेशा टूटा कभी जब हौंसला और छूटे सारे सहारे उन थके से लम्हों में डूबी-डूबी तन्हाइयों में वो पास आकर ज़ख़्मों को सहलाता रहा उसके कंधों पर रखता हूँ सर तो बहने लगता है सारा गुबार आँखों से वो समेट लेता है मेरे सारे आँसू अपने दामन में फिर प्यार से काँधे पर रख कर हाथ कहता है - अभी हारना नहीं अभी हारना नहीं मगर उसकी उन नूर भरी चमकती मुस्कुराती आँखों में मैं देख लेता हूँ अपने दर्द का एक झिलमिलाता-सा कतरा। इसमें कोई शक़ नहीं कि उस एक इंसान की आँखों में ही अपनी परछाई दिखती है, अपना दर्द बस उसी की आँखों से बहता है। जिस झिलमिलाते कतरे की बात कवि नें उपर कविता की अंतिम पंक्ति में

कुछ दिन पहले एक ताल में....क्लास्सिक कहानी कहने के अंदाज़ में लिखा मजरूह ने इस गीत को

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 675/2011/115 क हानी भरे गीतों से सजी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इन दिनो चल रही लघु शृंखला 'एक था गुल और एक थी बुलबुल' में अब तक जिन "कहानीकारों" को हम शामिल कर चुके हैं, वो हैं किदार शर्मा, मुंशी अज़ीज़, क़मर जलालाबादी और हसरत जयपुरी। और इन कहानियों को हमें सुनाया सहगल, शांता आप्टे, सुरैया और लता मंगेशकर नें। आज इस लड़ी में एक और कड़ी को जोड़ते हुए सुनवा रहे हैं मजरूह सुल्तानपुरी की लिखी कहानी आशा भोसले के स्वर में। नर्गिस पर फ़िल्माया यह गीत है १९५८ की फ़िल्म 'लाजवंती' का। मजरूह साहब नें शुद्ध हिंदी के शब्दों का प्रयोग करते हुए इस कहानी रूपी गीत को लिखा है और दादा बर्मन का लाजवाब संगीत है इस गीत में। फ़िल्म का एक और कहानीनुमा गीत " चंदा मामा, मेरे द्वार आना " आप 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर पहले सुन चुके हैं। जैसा कि पिछले अंकों में हमनें बताया था कि फ़िल्मों में अक्सर नायिका अपने जीवन की दुखभरी कहानी को ही किसी बच्चे को लोरी-गीत के रूप में सुनाती है, इस गीत का भाव भी कुछ हद तक वैसा ही है। कहानी है एक बतख के जोड़े की और उनके

कोमल है कमज़ोर नहीं तू.....जब खुद एक सशक्त महिला के गले से निकला हो ऐसा गीत तो निश्चित ही एक प्रेरणा स्रोत बन जाता है

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 619/2010/319 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! 'कोमल है कमज़ोर नहीं' शृंखला की कल की कड़ी में हमनें यह कहा था कि पार्श्वगायन को छोड़ कर हिंदी फ़िल्म निर्माण के अन्य सभी क्षेत्रों में पुरुषों का ही शुरु से दबदबा रहा है। दोस्तों, भले ही पार्श्वगायन की तरफ़ महिलाओं ने बहुत पहले से ही क़दम बढ़ा लिया था, लेकिन इस राह पर चलने और सफलता प्राप्त करने के लिए भी गायिकाओं को कड़ी मेहनत करनी पड़ी है। १९३३ में एक बच्ची का जन्म हुआ था जिसने ९ वर्ष की आयु में ही अपने पिता को खो दिया। जब वो १६ वर्ष की हुईं तो एक ३१ वर्षीय आदमी से अपने परिवार के ख़िलाफ़ जाकर प्रेम-विवाह कर लिया। और इस वजह से उनके परिवार ने उनसे रिश्ता तोड़ लिया। और अफ़सोस की बात यह कि ससुराल वालों ने भी उनके साथ दुर्व्यवहार किया। अपने बच्चों को पालने के लिए वो पार्श्वगायन के मैदान में उतरीं। गर्भवती अवस्था में भी उन्हें कड़ी मेहनत करनी पड़ी। आगे चलकर उन्होंने अपने बच्चों को लेकर हमेशा के लिए अपने पति का घर छोड़ दिया। पार्श्वगायन में शुरु शुरु में उन्हें कमचर्चित संगीतकारों के लिए ही गाने के म

मुकाबला हमसे न करो....कभी कभी खिलाड़ी अपने जोश में इस तरह का दावा भी कर बैठते हैं

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 604/2010/304 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार और स्वागत है आप सभी का इस स्तंभ में। तो कहिए दोस्तों, कैसा चल रहा है आपका क्रिकेट विश्वकप दर्शन? आपको क्या लगता है कौन है फ़ेवरीट इस बार? क्या भारत जीत पायेगा २०११ क्रिकेट विश्वकप? किन खिलाड़ियों से है ज़्यादा उम्मीदें? ये सब सवाल हम सब इन दिनों एक दूसरे से पूछ भी रहे हैं और ख़ुद भी अंदाज़ा लगाने की कोशिशें रहे हैं। लेकिन हक़ीक़त सामने आयेगी २ अप्रैल की रात जब विश्वकप पर किसी एक देश का आधिपत्य हो जायेगा। पर जैसा कि पहली कड़ी में ही हमने कहा था, जीत ज़रूरी है, लेकिन उससे भी जो बड़ी बात है, वह है पार्टिसिपेशन और स्पोर्ट्समैन-स्पिरिट। इसी बात पर आइए आज एक बार फिर कुछ रोचक तथ्य विश्वकप क्रिकेट से संबंधित हो जाए! • पहला विश्वकप मैच जो जनता के असभ्य व्यवहार की वजह से बीच में ही रोक देना पड़ा था, वह था १९९६ में कलकत्ते का भारत-श्रीलंका सेमी-फ़ाइनल मैच। • १९९६ में श्रीलंका पहली टीम थी जिसने बाद में बैटिंग कर विश्वकप फ़ाइनल मैच जीता। • २००३ विश्वकप में पाकिस्तान के शोएब अख़्तर ने क्रिकेट इतिहास में पहली बार १०० मा

जिंदगी है खेल कोई पास कोई फेल....भई कोई जीतेगा तो किसी की हार भी निश्चित है, जीवन दर्शन ही तो है ये खेल भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 602/2010/302 क्रि केट-फ़ीवर से आक्रांत सभी दोस्तों को हमारा नमस्कार, और बहुत स्वागत है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में। २०११ विश्वकप क्रिकेट जारी है इन दिनों और हम भी इस महफ़िल में बातें कर रहे हैं क्रिकेट विश्वकप की लघु शृंखला 'खेल खेल में' के माध्यम से। आइए आज विश्वकप से जुड़े कुछ रोचक तथ्य आपको बताएँ। • १९९९ विश्वकप में बंगलादेश ने एक मैच में पाकिस्तान को हराकर पूरे विश्व को चकित कर दिया था। ५ मार्च को नॊर्थम्प्टन में यह मैच खेला गया था। इसके अगले संस्करण में बांग्लादेश के भारत को पछाड कर हमारे कप के अभियान को मिट्टी में मिला दिया था, विश्व कप में अक्सर छोटी टीमें इस तरह के चमत्कार कर रोमाच बनाये रखती है, और यहीं से ये छोटी टीमें ताकतवर टीमों में तब्दील होती रहीं है, गौरतलब है कि १९८३ में भारत की गिनती भी एक कमजोर टीम में होती थी, मगर भारत का करिश्मा एक मैच तक नहीं वरन विश्व कप जीतने तक जारी रहा. • विश्वकप में अब तक सर्वश्रेष्ठ बोलिंग रेकॊर्ड रहा है वेस्ट-ईंडीज़ के विन्स्टन डेविस का, जिन्होंने १९८३ के विश्वकप में ऒस्ट्रेलिया के ख़िलाफ़ ५१ रन दे

"सातों बार बोले बंसी" और "जाने दो मुझे जाने दो" जैसे नगीनों से सजी है आज की "गुलज़ार-आशा-पंचम"-मयी महफ़िल

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #११० बा द मुद्दत के फिर मिली हो तुम, ये जो थोड़ी-सी भर गई हो तुम, ये वज़न तुम पर अच्छा लगता है.. अभी कुछ दिनों पहले हीं भरी-पूरी फिल्मफेयर की ट्रॉफ़ी स्वीकार करते समय गुलज़ार साहब ने जब ये पंक्तियाँ कहीं तो उनकी आँखों में गज़ब का एक आत्म-विश्वास था, लहजे में पिछले ४८ सालों की मेहनत की मणियाँ पिरोई हुई-सी मालूम होती थीं और बालपन वैसा हीं जैसे किसी पाँचवे दर्ज़े के बच्चे को सबसे सुंदर लिखने या सबसे सुंदर कहने के लिए "इन्स्ट्रुमेंट बॉक्स" से नवाज़ा गया हो। उजले कपड़ों में देवदूत-से सजते और जँचते गुलज़ार साहब ने अपनी उम्र का तकाज़ा देते हुए नए-नवेलों को खुद पर गुमान करने का मौका यह कह कर दे दिया कि "अच्छा लगता है, आपके साथ-साथ यहाँ तक चला आया हूँ।" अब उम्र बढ गई है तो नज़्म भी पुरानी होंगी साथ-साथ, लेकिन "दिल तो बच्चा है जी", इसलिए हर दौर में वही "छुटभैया" दिल हर बार कुछ नया लेकर हाज़िर हो जाता है। यूँ तो यह दिल गुलज़ार साहब का है, लेकिन इसकी कारगुजारियों का दोष अपने मत्थे नहीं लेते हुए, गुलज़ार साहब "विशाल" पर सारा दोष मथ दे

अपने पडो़सी दिल से भीनी-भीनी भोर की माँग कर बैठे गोटेदार गुलज़ार साहब, आशा जी एवं राग तोड़ी वाले पंचम दा

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०९ गु लज़ार और पंचम - ये दो नाम दो होते हुए भी एक से लगते हैं और जब भी इन दोनों का नाम साथ में आता है तो सुनने वालों को मालूम हो जाता है कि कुछ नया कुछ अलबेला पक के आने वाला है बाहर.. अभी-अभी पतीला खुलेगा और कोई मीठी-सी नज़्म छलकते हुए हमारे कानों तक पहुँच जाएगी। ये दोनों फ़नकार एक-दूसरे के पूरक-से हो चले थे। कैसी भी घुमावदार सोच हो, किसी भी मोड़ पर बिन कहे मुड़ने वाले मिसरे हों या फिर किसी अखबार की सुर्खियाँ हीं क्यों न हो.. गुलज़ार के हरेक शब्द-नुमा ईंट का जवाब पंचम अपने सुरों के पत्थर (अजीब उपमा है.. यूँ होना तो फूल चाहिए, लेकिन मुहावरा बनाने वाले ने हमारे पास कम हीं विकल्प छोड़े हैं) से दिया करते थे... और जवाब ऐसा कि "साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे".. गुलज़ार के शब्द जहाँ शिखर पर हीं मौजूद रहें, वहीं उसी के इर्द-गिर्द पंचम अपनी पताका भी लहरा आएँ... तभी तो दोनों की जोड़ी आजतक प्यार और गुमान से याद की जाती है। लेकिन यह जोड़ी ज्यादा दिनों तक रह नहीं पाई। गुलज़ार को राह में अकेले छोड़कर पंचम दुसरी दुनिया में निकल लिए। पंचम के गुजरने का असर गुलज़ार पर किस हद

कारी कारी कारी अंधियारी सी रात.....सावन की रिमझिम जैसी ठडक है अन्ना के संगीत में भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 566/2010/266 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक नई सप्ताह के साथ हम हाज़िर हैं दोस्तों। फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के गीतों को सुनने और उनके बारे में जानने का सिलसिला जारी है। इन दिनों हम करीब से जान रहे हैं सी. रामचन्द्र को जिनके स्वरबद्ध और गाये हुए गानें हम शामिल कर रहे हैं उन पर केन्द्रित शृंखला 'कितना हसीं है मौसम' में। दोस्तों, युं तो सी. रामचन्द्र ने ज़्यादातर युगल गानें लता जी के साथ ही गाये थे, लेकिन एक वक़्त ऐसा भी आया कि जब उन दोनों के बीच अनबन हो गई और लता जी ने उनके लिए गाना बंद कर दिया। इसके बारे में विस्तार से हम कल की कड़ी में चर्चा करेंगे, आज बस इतना कहते हैं कि लता का विकल्प आशा बनीं और ५० के दशक के आख़िर के कुछ सालों में अन्नासाहब ने आशा भोसले से कई गीत गवाये। तो आइए आज उन चंद सालों में सी. रामचन्द्र और आशा भोसले के संगम से उत्पन्न गीतों की बात करें। इन फ़िल्मों में जो नाम सब से उपर आता है, वह है १९५८ की फ़िल्म 'नवरंग'। आज इसी फ़िल्म से एक गीत आपको सुनवाने जा रहे हैं। वैसे इस फ़िल्म के दो गीत हम आपको सुनवा चुके हैं - "तू छुपी ह