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लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में.. मादर-ए-वतन से दूर होने के ज़फ़र के दर्द को हबीब की आवाज़ ने कुछ यूँ उभारा

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०१ पू रे एक महीने की छुट्टी के बाद मैं वापस आ गया हूँ महफ़िल-ए-ग़ज़ल की अगली कड़ी लेकर। यह छुट्टी वैसे तो एक हफ़्ते की हीं होनी थी, लेकिन कुछ ज्यादा हीं लंबी खींच गई। दर-असल मेरे साथ वही हुआ जो इन महाशय के साथ हुआ था जिन्होंने "कल करे सो आज कर" का नवीनीकरण किया है कुछ इस तरह से: आज करे सो कल कर, कल करे सो परसो, इतनी जल्दी क्या है भाई, जीना है अभी बरसों। तो आप समझ गए ना? हर बुधवार को मैं यही सोचता था कि भाई पूरे सौ अंकों के बाद जाकर मुझे आराम करने का यह मौका नसीब हुआ है, तो इसे ज़ाया क्यों गंवाया जाए, चलो आज भी महफ़िल से नदारद हो लेता हूँ। यही सोचते-सोचते ४ हफ़्ते निकल गए। फिर जब इस बार बुधवार नजदीक आया तो विश्राम करने के विचार के साथ-साथ अपराध-बोध भी अपना सर उठाने लगा। अपराधबोध का मंतव्य था कि भाई तुमने तो सभी पाठकों से यह वादा किया था कि एक हफ़्ते में वापस आ जाओगे, फिर ये वादाखिलाफ़ी क्यों? अपराधबोध कम होता, अगर मेरे सामने सुजॉय जी का उदाहरण न होता। एक मैं हूँ जो सप्ताह में एक आलेख लिखता हूँ और अभी तक उन आलेखों की संख्या १०० तक हीं पहुँची है और एक ये हुज़ूर ...

गजरा बना के ले आ... एक मखमली नज़्म के बहाने अफ़शां और हबीब की जुगलबंदी

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #६७ क भी-कभी यूँ होता है कि आप जिस चीज से बचना चाहो, जिस चीज से कन्नी काटना चाहो, वही चीज आपकी ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा हो जाती है, आपकी पहचान बन जाती है। यह ज्यादातर इश्क़ में होता है और वो भी हसीनाओं के साथ। हसीनाएँ पहले-पहल तो आपको नज़र-अंदाज करती हैं, लेकिन धीरे-धीरे आप उनकी नज़र में बस जाते हैं। क्या आपने भी कभी यह महसूस किया है? किया हीं होगा... इश्क़ का यह नियम है। वैसे यहाँ पर मैं जिस कारण से इस मुद्दे को उठा रहा हूँ, उसकी जड़ में इश्क़ या हसीनाएँ नहीं हैं, बल्कि "आलस्य" है। अब आप सोचेंगे कि महफ़िल-ए-गज़ल में आलस्य की बातें.. तो जी हाँ, पिछली मर्तबा मैंने आलेख की लंबाई कम होने की वज़ह समय की कमी को बताया था, जो कि तब के लिए सच था, लेकिन वही ४५ मिनट वाला किस्सा आज फिर से दुहराया जा रहा है... और इस बार सबब कुछ और है। लेखक ने सामग्रियाँ समय पर जुटा लीं थीं, लेकिन उसी समय उसे(मुझे) आलस्य ने आ घेरा.. महसूस हुआ कि आलेख तो ४५ मिनट में भी लिखा जा सकता है और अच्छा लिखा जा सकता है, (जैसा कि सजीव जी की टिप्पणी से मालूम पड़ा) तो क्यों न सुबह उठकर हीं गज़ल की महफ़िल...