आज बाँसुरी शास्त्रीय संगीत के मंच पर स्वतन्त्र वाद्य, संगति वाद्य, सुगम और लोक-संगीत का मधुर और लोकप्रिय वाद्य बन चुका है। सामान्य तौर पर देखने में बाँस की, खोखली, बेलनाकार आकृति होती है, किन्तु इस सुषिर वाद्य की वादन तकनीक सरल नहीं है। बाँसुरी का अस्तित्व महाभारतकाल से पूर्व कृष्ण से जुड़े प्रसंगों में उपलब्ध है। शास्त्रीय वाद्य के रूप में इसे उत्तर भारत के साथ दक्षिण भारत के संगीत में समान रूप से लोकप्रियता प्राप्त है। पण्डित रघुनाथ सेठ की छवि वर्तमान बाँसुरी वादकों में प्रयोगशील वादक के रूप में लोकप्रिय है। आज के अंक में हम पण्डित रघुनाथ सेठ की बाँसुरी पर चर्चा करेंगे।