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चित्रकथा - 4: आशा के बाद ओ. पी. नय्यर की पार्श्वगायिकाएँ

अंक - 4 आशा के बाद ओ. पी. नय्यर की पार्श्वगायिकाएँ “ हम कैसे बतायें तक़दीर ने हमको ऐसा मारा.. ” 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार। समूचे विश्व में मनोरंजन का सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम सिनेमा रहा है और भारत कोई व्यतिक्रम नहीं है। बीसवीं सदी के चौथे दशक से सवाक् फ़िल्मों की जो परम्परा शुरु हुई थी, वह आज तक जारी है और इसकी लोकप्रियता निरन्तर बढ़ती ही चली जा रही है। और हमारे यहाँ सिनेमा के साथ-साथ सिने-संगीत भी ताल से ताल मिला कर फलती-फूलती चली आई है। सिनेमा और सिने-संगीत, दोनो ही आज हमारी ज़िन्दगी के अभिन्न अंग बन चुके हैं। हमारी दिलचस्पी का आलम ऐसा है कि हम केवल फ़िल्में देख कर या गाने सुनने तक ही अपने आप को सीमित नहीं रखते, बल्कि फ़िल्म संबंधित हर तरह की जानकारियाँ बटोरने का प्रयत्न करते रहते हैं। इसी दिशा में आपके हमसफ़र बन कर हम आते हैं हर शनिवार ’चित्रकथा’ लेकर। ’चित्रकथा’ एक ऐसा स्तंभ है जिसमें बातें होंगी चित्रपट की और चित्रपट-संगीत की। फ़िल्म और फ़िल्म-संगीत से जुड़े विषयों से सुसज्जित इस पाठ्य स्तंभ के ती...

कातिल आँखों वाले दिलबर को रिझाती आशा की आवाज़

खरा सोना गीत - यार बादशाह यार दिलरुबा स्वर  - दीप्ती सक्सेना प्रस्तुति  - संज्ञा टंडन स्क्रिप्ट - सुजॉय चट्टरजी

"जब से पी संग नैना लागे" - क्यों लता नहीं गा सकीं ओ.पी.नय्यर के इस पहले पहले कम्पोज़िशन को

लता मंगेशकर और ओ.पी.नय्यर के बीच की दूरी फ़िल्म-संगीत जगत में एक चर्चा का विषय रहा है। आज इसी ग़लतफ़हमी पर एक विस्तारित नज़र ओ.पी.नय्यर की पहली फ़िल्म 'आसमान' के एक गीत के ज़रिए सुजॉय चटर्जी के साथ, 'एक गीत सौ कहानियाँ' की पाँचवी कड़ी में... एक गीत सौ कहानियाँ # 5 स्वर्ण-युग के संगीतकारों में बहुत कम ऐसे संगीतकार हुए हैं जिनकी धुनों पर लता मंगेशकर की आवाज़ न सजी हो। बल्कि यूं भी कह सकते हैं कि हर संगीतकार अपने गानें लता से गवाना चाहते थे। ऐसे में अगर कोई संगीतकार उम्र भर उनसे न गवाने की क़सम खा ले, तो यह मानना ही पड़ेगा कि उस संगीतकार में ज़रूर कोई ख़ास बात होगी, उसमें ज़रूर दम होगा। ओ.पी. नय्यर एक ऐसे ही संगीतकार हुए जिन्होने कभी लता से गाना नहीं लिया। अपनी पहली पहली फ़िल्म के समय ही किसी मनमुटाव के कारण जो दरार लता और नय्यर के बीच पड़ी, वह फिर कभी नहीं भर सकी। लता और नय्यर, दोनों से ही लगभग हर साक्षात्कार में यह सवाल ज़रूर पूछा जाता रहा है कि आख़िर क्या बात हो गई थी कि दोनों नें कभी एक दूसरे की तरफ़ क़दम नहीं बढ़ाया, पर हर बार ये दोनों असल बात को टालते रहे हैं...

जा जा जा रे बेवफा...मजरूह साहब ने इस गीत के जरिये दर्शाये जीवन के मुक्तलिफ़ रूप

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 663/2011/103 '...औ र कारवाँ बनता गया', गीतकार व शायर मजरूह सुल्तानपुरी को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला की चौथी कड़ी में आप सभी का एक बार फिर से स्वागत है। मजरूह साहब पर एक किताब प्रकाशित हुई है जिसे उनके दो चाहनेवालों नें लिखे हैं। ये दो शख़्स हैं अमेरीका निवासी भारतीय मूल के बैदर बख़्त और उनकी अमरीकी सहयोगी मारीएन एर्की। इन दो मजरूह प्रशंसकों नें उनकी ग़ज़लों को संकलित कर एक किताब के रूप में प्रकाशित किया है, जिसका शीर्षक है 'Never Mind Your Chains'। यह शीर्षक मजरूह साहब के ही लिखे एक शेर से आया है - "देख ज़िदान के परे, रंग-ए-चमन जोश-ए-बहार, रक्स करना है तो फिर पाँव की ज़ंजीर न देख"। अर्थात् चमन खिला हुआ है पिंजरे के ठीक उस पार, अगर नाच उठना है तो फिर पांव की बेड़ियों की तरफ़ न देख, never mind your chains। थोड़ा और क़रीब से देखा जाये तो उनकी यह ख़ूबसूरत ग़ज़ल उनके करीयर पर भी लागू होती है। उनका कभी न रुकने, कभी न हार स्वीकारने की अदा, लाख पाबंदियों के बावजूद उन्हें न रोक सकी, और आज उन्होंने एक अमर शायर व गीतकार के ...

दीवाना हुआ बादल, सावन की घटा छायी...जब स्वीट सिक्सटीस् में परवान चढा प्रेम

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 554/2010/254 जी व जगत की तमाम अनुभूतियों में सब से प्यारी, सब से सुंदर, सब से सुरीली, और सब से मीठी अनुभूति है प्रेम की अनुभूति, प्यार की अनुभूति। यह प्यार ही तो है जो इस संसार को अनंतकाल से चलाता आ रहा है। ज़रा सोचिए तो, अगर प्यार ना होता, अगर चाहत ना होती, तो क्या किसी अन्य चीज़ की कल्पना भी हम कर सकते थे! फिर चाहे यह प्यार किसी भी तरह का क्यों ना हो। मनुष्य का मनुष्य से, मनुष्य का जानवरों से, प्रकृति से, अपने देश से, अपने समाज से। दोस्तों, यह 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल है, जो बुना हुआ है फ़िल्म संगीत के तार से। और हमारी फ़िल्मों और फ़िल्मी गीतों का केन्द्रबिंदु भी देखिए प्रेम ही तो है। प्रेमिक-प्रेमिका के प्यार को ही केन्द्र में रखते हुए यहाँ फ़िल्में बनती हैं, और इसलिए ज़ाहिर है कि फ़िल्मों के ज़्यादातर गानें भी प्यार-मोहब्बत के रंगों में ही रंगे होते हैं। दशकों से प्यार भरे युगल गीतों की परम्परा चली आई है, और एक से एक सुरीले युगल गीत हमें कलाकारों ने दिए हैं। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों आप सुन रहे हैं फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर से चु्ने हुए...

कभी आर कभी पार लागा तीरे नज़र.....आज भी इस गीत की रिदम को सुनकर मन थिरकने नहीं लगता क्या आपका ?

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 546/2010/246 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक और नए सप्ताह में आप सभी का बहुत बहुत स्वागत है। दोस्तों, पिछले तीन हफ़्तों से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सज रही है एक ऐसी महफ़िल जिसे रोशन कर रहे हैं हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ समान फ़िल्मकार। 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ' लघु शृंखला के पहले तीन खण्डों में वी. शांताराम, महबूब ख़ान और बिमल रॊय के फ़िल्मी सफ़र पर नज़र डालने के बाद आज से हम इस शृंखला का चौथा और अंतिम खण्ड शुरु कर रहे हैं। और इस खण्ड के लिए हमने जिस फ़िल्मकार को चुना है, वो एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी कलाकार हैं। फ़िल्म निर्माण और निर्देशन के लिए तो वो मशहूर हैं ही, अभिनय के क्षेत्र में भी उन्होंने लोहा मनवाया है और साथ ही एक अच्छे नृत्य निर्देशक भी रहे हैं। इस बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न फ़िल्मकार को दुनिया जानती है गुरु दत्त के नाम से। आज से अगले चार अंकों में हम गुरु दत्त को और उनके फ़िल्मी सफ़र को थोड़ा नज़दीक से जानने और समझने की कोशिश करेंगे और साथ ही उनके द्वारा निर्मित और/या निर्देशित फ़िल्मों के कुछ बेहद लोकप्रिय व सदाबहार गानें भी सुनें...

मैं प्यार का राही हूँ...मुसाफिर रफ़ी साहब ने हसीना आशा के कहा कुछ- सुना कुछ

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 514/2010/214 'गी त गड़बड़ी वाले' शृंखला की आज है चौथी कड़ी। पिछले तीन कड़ियों में आपने सुने गायकों द्वारा की हुईं गड़बड़ियाँ। आज हम बात करते हैं एक ऐसी गड़बड़ी की जो किस तरह से हुई यह बता पाना बहुत मुश्किल है। यह गड़बड़ी है किसी युगल गीत में गायक और गायिका के दो अंतरों की लाइनों का आपस में बदल जाना। यानी कि गायक ने कुछ गाया, जिसका गायिका को जवाब देना है। और अगर यह जवाब गायिका दूसरे अंतरें में दे और दूसरे अंतरे में गायक के सवाल का जवाब वो पहले अंतरे में दे, इसको तो हम गड़बड़ई ही कहेंगे ना! ऐसी ही एक गड़बड़ी हुई थी फ़िल्म 'एक मुसाफ़िर एक हसीना' के एक गीत में। यह फ़िल्मालय की फ़िल्म थी जिसका निर्माण शशधर मुखर्जी ने किया था, राज खोसला इसके निर्देशक थे। ओ. पी. नय्यर द्वारा स्वरबद्ध यह एक आशा-रफ़ी डुएट था "मैं प्यार का राही हूँ"। गीतकार थे राजा मेहन्दी अली ख़ान। अब इस गीत में क्या गड़बड़ी हुई है, यह समझने के लिए गीत के पूरे बोल यहाँ पर लिखना ज़रूरी है। तो पहले इस गीत के बोलों को पढिए, फिर हम बात को आगे बढ़ाते हैं। मैं प्यार का राही हूँ, तेरी ...

बाबूजी धीरे चलना.....ओ पी ने बनाया इस प्रेरित गीत को इतना लोकप्रिय

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 447/2010/147 वि देशी धुनों पर आधारित हिंदी फ़िल्मी गीतों की लघु शृंखला 'गीत अपना धुन पराई' इन दिनों जारी है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर। ५० के दशक से क्लब सॊंग्स का एक ट्रेण्ड चल पड़ा था हिंदी फ़िल्मों में। यक़ीनन इन गीतों का आधार पाश्चात्य संगीत ही होना था। ऐसे में हमारे कई संगीतकारों ने इस तरह के क्लब सॊंग्स के लिए सहारा लिया विदेशी धुनों का, विदेशी गीतों का। ओ. पी. नय्यर साहब ने ५० के दशक में गीता दत्त से बहुत से ऐसे नशीले क्लब सॊंग्स गवाए और उन्ही में से एक बेहद मशूर गीत आज हम आपको सुनवाने जा रहे हैं। १९५४ की फ़िल्म 'आर पार' का वही मशहूर गीत "बाबूजी धीरे चलना, प्यार में ज़रा संभलना"। मजरूह साहब के बोल और गीता जी की नशीली आवाज़। 'आर पार' से पहले ओ.पी. नय्यर तीन फ़िल्मों में संगीत दे चुके थे - 'आसमान', 'छम छमा छम', और 'बाज़'। ये तीनों ही फ़िल्में फ़्लॊप हो जाने की वजह से इस नए संगीतकार की तरफ़ किसी ने ध्यान नहीं दिया। लेकिन जब १९५४ में 'आर पार' हिट हुई तो नय्यर साहब का यूनिक स्टाइल को लोगों ने म...

फिल्म में गीत लिखना एक अलग ही किस्म की चुनौती है जिसे बेहद सफलता पूर्वक निभाया बीते दौर के गीतकारों ने

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # ३६ १९५५ में निर्माता निर्देशक ए. आर. कारदार ने किशोर कुमार और चांद उसमानी को लेकर बनायी फ़िल्म 'बाप रे बाप'। १९५२ तक नौशाद साहब ही कारदार साहब की फ़िल्मों में संगीत दे रहे थे। उसके बाद ग़ुलाम मोहम्मद, मदन मोहन और रोशन जैसे संगीतकार उनके साथ जुड़े। और 'बाप रे बाप' के लिए कारदार साहब ने चुना ओ.पी. नय्यर साहब को। और गीतकार चुना गया जाँनिसार अख़्तर को। जाँनिसार अख़्तर, जो जावेद अख़्तर साहब के पिता हैं, उन्होने नय्यर साहब के साथ कई फ़िल्मों में काम किया। जाँनिसार साहब ने भले ही बहुत सारी फ़िल्मों के लिए गानें लिखे, लेकिन उन्हे दूसरे गीतकारों की तुलना में कुछ कम ही याद किया जाता है। जाने क्यों! दोस्तों, अभी हाल में आइ.बी.एन-७ चैनल पर लता जी का एक इंटरव्यू लिया गया था और जावेद अख़्तर साहब उसमें लता जी से बातचीत कर रहे थे। तो जब जावेद साहब ने लता जी से पूछा कि कोई एक ऐसा गाना वो बताएँ जो सब से ज़्यादा उन्हे पसंद रहा है, तो पहले तो लता जी हिचकिचाई यह कहते हुए कि किसी एक गीत को चुनना नामुमकिन है। फिर भी जावेद साहब के ज़िद करने पर उन्होने युंही कह दिया क...

कुछ गीत इंडस्ट्री में ऐसे भी बने जिनका सम्बन्ध केवल फिल्म और उसके किरदारों तक सीमित नहीं था...

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # २४ "चै न से हमको कभी आप ने जीने ना दिया, ज़हर जो चाहा अगर पीना तो पीने ना दिया"। फ़िल्म 'प्राण जाए पर वचन ना जाए' का यह दिल को छू लेने वाला गीत आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल' की महफ़िल को रोशन कर रहा है। ओ. पी. नय्यर और आशा भोसले ने साथ साथ फ़िल्म संगीत में एक लम्बी पारी खेली है। करीब करीब १५ सालों तक एक के बाद एक सुपर डुपर हिट गानें ये दोनों देते चले आए हैं। कहा जाता है कि प्रोफ़ेशनल से कुछ हद तक उनका रिश्ता पर्सनल भी हो गया था। ७० के दशक के आते आते जब नय्यर साहब का स्थान शिखर से डगमगा रहा था, उन दिनों दोनों के बीच भी मतभेद होने शुरु हो गए थे। दोनों ही अपने अपने उसूलों के पक्के। फलस्वरूप, दोनों ने एक दूसरे से किनारा कर लिया सन् १९७२ में। इसके ठीक कुछ दिन पहले ही इस गीत की रिकार्डिंग् हुई थी। दोनों के बीच चाहे कुछ भी मतभेद चल रहा हो, दोनों ने ही प्रोफ़ेशनलिज़्म का उदाहरण प्रस्तुत किया और गीत में जान डाल दी। फ़िल्म के रिलीज़ होने के पहले ही इस फ़िल्म के गानें चारों तरफ़ छा गए। ख़ास कर यह गीत इतना ज़्यादा लोकप्रिय हो गया था कि फ़िल्मफ़ेयर ...

सेन्शुअस गीतों को एक नयी परिभाषा दी ओ पी नय्यर साहब ने

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # ०४ १९६८ में कमल मेहरा की बनायी फ़िल्म आयी थी 'क़िस्मत'। मनमोहन देसाई निर्देशित फ़िल्म 'क़िस्मत' की क़िस्मत बुलंद थी। फ़िल्म तो कामयाब रही ही, फ़िल्म के गीतों ने भी ख़ासा धूम मचाये। अपनी दूसरी फ़िल्मों की तरह इस फ़िल्म में भी ओ. पी. नय्यर ने यह सिद्ध किया कि ६० के दशक के अंत में भी वो नयी पीढ़ी के किसी भी लोकप्रिय संगीतकार को सीधी टक्कर दे सकते हैं। इस फ़िल्म का वह हास्य गीत तो आपको याद है न "कजरा मोहब्बतवाला", जिसमें शमशाद बेग़म ने विश्वजीत का प्लेबैक किया था! फ़िल्म की नायिका बबिता के लिये गीत गाये आशा भोसले ने। इस फ़िल्म में नय्यर साहब की सबसे ख़ास गायिका आशाजी ने कई अच्छे गीत गाये जिनमें से सबसे लोकप्रिय गीत आज हम इस महफ़िल के लिए चुन लाये हैं। तो चलिये हुज़ूर, देर किस बात की, आपको सितारों की सैर करवा लाते हैं आज! " आओ हुज़ूर तुमको सितारों में ले चलूँ, दिल झूम जाये ऐसी बहारों में ले चलूँ ", यह एक पार्टी गीत है, जिसे नायिका शराब के नशे मे गाती हैं। और आपको पता ही है कि इस तरह के हिचकियाँ वाले नशीले गीतों को आशाजी किस तरह ...

आप यूं ही अगर हमसे मिलते रहें....देखिये आपको भी 'ओल्ड इस गोल्ड' से प्यार हो जायेगा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 324/2010/24 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों आप सुन रहे हैं इंदु जी के पसंद के गीतों को। कुल पाँच में से तीन गानें हम पिछले तीन कड़ियों में सुन चुके हैं। आज है चौथे गीत की बारी। मोहम्मद रफ़ी और आशा भोसले की आवाज़ों में यह है फ़िल्म 'एक मुसाफ़िर एक हसीना' का एक बड़ा ही ज़बरदस्त और सुपरहिट डुएट " आप युं ही अगर हमसे मिलते रहे, देखिए एक दिन प्यार हो जाएगा"। "मस्त, प्यारा सा खूबसूरत गीत जिस के बिना कोई पिकनिक, कोई प्रोग्राम पूरा नही होता। साधना की मासूमियत भरा सौन्दर्य, प्यार के इजहार का खूबसूरत अंदाज, मधुर संगीत, सब ने मिल कर एक ऐसा गीत दिया है जिसे आप किसी भी कार्यक्रम में गा कर समा बांध सकते हैं और इंदु पुरी का मतलब ही...समा बंध जाना, महफिल की जान। " बहुत सही कहा इंदु जी, आपने। आप के पसंद पर यह गीत आज इस महफ़िल में ऐसा समा बांधेगा कि लोग कह उठेंगे कि भई वाह! क्या पसंद है! साधना और जॊय मुखर्जी पर फ़िल्माया यह गीत कश्मीर की ख़ूबसूरत वादियों में पिक्चराइज़ हुआ था। इस फ़िल्म की चर्चा तो हम पहले कर चुके हैं इस महफ़िल में, तो क्यों ना आ...