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एक समृद्ध तंत्रवाद्य सुरबहार

स्वरगोष्ठी – 167 में आज संगीत वाद्य परिचय श्रृंखला – 5 तंत्रवाद्य सुरबहार से उपजते गम्भीर और गमकयुक्त सुरों की बहार   ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी ‘संगीत वाद्य परिचय श्रृंखला’ की पाँचवीं कड़ी के साथ मैं कृष्णमोहन मिश्र, अपने सहयोगी सुमित चक्रवर्ती के साथ सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। मित्रों, इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के कुछ कम प्रचलित, लुप्तप्राय अथवा अनूठे वाद्यों की चर्चा कर रहे हैं। वर्तमान में प्रचलित अनेक वाद्य हैं जो प्राचीन वैदिक परम्परा से जुड़े हैं और समय के साथ क्रमशः विकसित होकर हमारे सम्मुख आज भी उपस्थित हैं। कुछ ऐसे भी वाद्य हैं जिनकी उपयोगिता तो है किन्तु धीरे-धीरे अब ये लुप्तप्राय हो रहे हैं। इस श्रृंखला में हम कुछ लुप्तप्राय और कुछ प्राचीन वाद्यों के परिवर्तित व संशोधित स्वरूप में प्रचलित वाद्यों का उल्लेख करेंगे। श्रृंखला की आज की कड़ी में हम आपसे एक ऐसे स्वरवाद्य की चर्चा करेंगे जिसका प्रचलन अब लगभग नहीं के बराबर हो रहा है। आज के सर्वाधिक प्रचलित तंत्रवाद्य स

रबिन्द्र संगीत (पहला भाग) - एक चर्चा संज्ञा टंडन के साथ

प्लेबैक इंडिया ब्रोडकास्ट (१४) रबिंद्रसंगीत एक विशिष्ट संगीत पद्धति के रूप में विकसित हुआ है। इस शैली के कलाकार पारंपरिक पद्धति में ही इन गीतों को प्रस्तुत करते हैं। बीथोवेन की संगीत रचनाओं(सिम्फनीज़) या विलायत ख़ाँ के सितार की तरह रबिंद्रसंगीत अपनी रचनाओं के गीतात्मक सौन्दर्य की सराहना के लिए एक शिक्षित, बुद्धिमान और सुसंस्कृत दर्शक वर्ग की मांग करता है। १९४१ में गुरूदेव की मृत्यु हो गई परन्तु उनका गौरव और उनके गीतों का प्रभाव अनन्त है। उन्होंने अपने गीतों में शुद्ध कविता को सृष्टिकर्त्ता, प्रकृति और प्रेम से एकीकृत किया है। मानवीय प्रेम प्रकृति के दृश्यों में मिलकर सृष्टिकर्त्ता के लिए समर्पण (भक्ति) में बदल जाता है। उनके 2000 अतुल्य गीतों का संग्रह गीतबितान(गीतों का बागीचा) के रूप में जाना जाता है। (पूरा टेक्स्ट यहाँ पढ़ें ) आईये आज के ब्रोडकास्ट में शामिल होईये संज्ञा टंडन के साथ, रविन्द्र संगीत पर इस चर्चा के पहले भाग में. स्क्रिप्ट है सुमित चक्रवर्ती की और आवाज़ है संज्ञा टंडन की    या फिर यहाँ से डाउनलोड करें

वे (रवीन्द्रनाथ ठाकुर) असाधारण गीतकार तथा संगीतकार थे - माधवी बंद्योपाध्याय

सुर संगम - 33 -रवीन्द्रनाथ ठाकुर की सार्द्धशती वर्ष-२०११ पर श्रद्धांजलि (पहला भाग) बांग्ला और हिन्दी साहित्य की विदुषी श्रीमती माधवी बंद्योपाध्याय से कृष्णमोहन मिश्र की रवीन्द्र साहित्य और उसके हिन्दी अनुवाद विषयक चर्चा न त कर देना शीश को प्रभु, चरण कमल रज के तल में। मेरे अहं को सतत डुबोना, मेरे वचन अश्रु-जल में। ‘सुर संगम’ का आज का अंक हमने कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर की एक कविता के हिन्दी अनुवाद से किया है।‘गीतांजलि’ के इस पद का हिन्दी काव्यानुवाद विदुषी माधवी बंद्योपाध्याय ने किया है। १२ सितम्बर, १९३७ को उत्तर प्रदेश के अयोध्या में एक प्रवासी बंगाली परिवार में माधवी जी का जन्म हुआ था। पारिवारिक संस्कार और स्वाध्याय से उन्होने बांग्ला भाषा और साहित्य का गहन अध्ययन किया। अँग्रेजी विषय में उन्होने स्नातक तक शिक्षा ग्रहण की। माधवी जी को बाल्यावस्था से कविता, कहानी, निबन्ध आदि लिखने में पर्याप्त रुचि थी। विवाह के उपरान्त पति श्री दिलीप कुमार बनर्जी के सहयोग और प्रोत्साहन से बांग्ला और हिन्दी की मौलिक तथा अनूदित कृतियाँ एक के बाद एक प्रकाशित होती रहीं। अब तक माधवी जी की लगभग डेढ़ दर्जन पुस्

सुर संगम में आज - सगीत शिरोमणि कुमार गन्धर्व

सुर संगम - 30 - पंडित कुमार गंधर्व वे अपने गायन में छोटे-छोटे व सशक्त टुकड़ों व तानों के प्रयोग के लिए जाने जाते थे परंतु कैंसर से जूझने के कारण उनकी गायकी में काफ़ी प्रभाव पड़ा "मो तिया गुलाबे मरवो... आँगना में आछो सोहायो गेरा गेराई चमेली... फुलाई सुगंधा मोहायो..." उपरोक्त पंक्तियाँ हैं एक महान शास्त्रीय गायक की रचना के| एक ऐसा नाम जिसे शास्त्रीय भजन गायन में सर्वोत्तम माना गया है, कुछ लोगों का मानना है कि वे लोक संगीत व भजन के सर्वोत्तम गायक थे तो कुछ का मानना है कि उनकी सबसे बहतरीन रचनाएँ हैं उनके द्वारा रचित राग जिन्हें वे ६ से भी अधिक प्रकार के ले व तानों को मिश्रित कर प्रस्तुत करते थे| मैं बात करा रहा हूँ महान शास्त्रीय संगीतज्ञ पंडित कुमार गंधर्व की जिन्हें इस अंक के माध्यम से सुर-संगम दे रहा है श्रद्धांजलि| कुमार गंधर्व का जन्म बेलगाम, कर्नाटक के पास 'सुलेभवि' नामक स्थान में ८ अप्रैल १९२४ को हुआ, माता-पिता ने नाम रखा ' शिवपुत्र सिद्दरामय्या कोमकलीमठ'| उन्होंने संगीत की शिक्षा उन दिनों जाने-माने संगीताचार्य प्रो. बी. आर. देवधर से ली| बाल्यकाल से ही सं

सुर संगम में आज - सुर बहार की स्वरलहरियाँ

सुर संगम - 29 - सुर-बहार दुर्भाग्यपूर्वक, कई कारणों से सुर-बहार अन्य तंत्र वाद्यों की तरह लोकप्रिय नहीं हो सका। इसका सबसे प्रमुख कारण है इसकी विशाल बनावट जिसके कारण इसे संभालना व इसके यातायात में बाधा आती है। शा स्त्रीय तथा लोक संगीत को समर्पित साप्ताहिक स्तम्भ 'सुर-संगम' के सभी श्रोता- पाठकों का मैं, सुमित चक्रवर्ती हार्दिक स्वागत करता हूँ हमारे २९वें अंक में। हम सबने कहीं न कहीं, कभी न कभी, किसी न किसी को यह कहते अवश्य सुना होगा कि "परिवर्तन संसार का नियम है।" इस जगत में ईश्वर की शायद ही कोई ऐसी रचना हो जिसमें कभी परिवर्तन न आया हो। इसी प्रकार संगीत भी कई प्रकार के परिवर्तनों से होकर ग़ुज़रता रहा है तथा आज भी कहीं न कहीं किसी रूप में परिवर्तित किया जा रहा है तथा भारतीय शास्त्रीय संगीत भी इस परिवर्तन से अछूता नहीं रहा है। न केवल गायन में बल्कि शास्त्रीय वाद्यों में भी कई इम्प्रोवाइज़ेशन्स होते आए हैं। सुर-संगम के आज के अंक में हम चर्चा करेंगे ऐसे ही परिवर्तन की जिसने भारतीय वाद्यों में सबसे लोकप्रिय वाद्य 'सितार' से जन्म दिया 'सुर बहार' को। यूँ तो मान

उर्जा से भरी तान और ठेके "टप्पे" के

सुर संगम - 28 - पारंपरिक संगीत शैली - टप्पा टप्पों को एकाएक प्रस्तुत करने हेतु नियमानुसार पहले आलाप को ठुमरी अंग में गाया जाता है तथा उसके पश्चात तेज़ी से असमान लयबद्ध लहज़े में बुने शब्दों के उपयोग से तानायत की ओर बढ़ा जाता है| सु र-संगम के सभी श्रोता-पाठकों को सुमित चक्रवर्ती का स्नेह भरा नमस्कार! तो कहिए कैसे बीते गर्मियों के दिन? जैसे किसी किसी मुसाफ़िर का मंज़िल पाने पर संघर्ष समाप्त हो जाता है, मानो ठीक उसी प्रकार गर्मियों के ये झुलसा देने वाले दिन भी अब बीत चुके हैं| और आ गयी है वर्षा ऋतु सबके जीवन में हर्ष की नई फुहार लिए| तो हम ने भी सोचा की क्यों न इस बार के अंक में कुछ अलग प्रकार का संगीत चर्चा में लाया जाए| आज का सुर-संगम आधारित है पंजाब व सिंध प्रांतों की प्रसिद्ध उप-शास्त्रीय गायन शैली 'टप्पा' पर| टप्पा भारत की प्रमुख पारंपरिक संगीत शैलियों में से एक है| यह माना जाता है की इस शैली की उत्पत्ति पंजाब व सिंध प्रांतों के ऊँट चलाने वालों द्वारा की गई थी| इन गीतों में मूल रूप से हीर और रांझा के प्रेम व विरह प्रसंगो को दर्शाया जाता है| खमाज, भैरवी, काफ़ी, तिलांग, झिन्झोट

परदेस में जब घर-परिवार और सजनी की याद आई तब उपजा लोक संगीत "बिरहा"

सुर संगम - 27 - लोक गीत शैली -बिरहा बिरहा गायन के मंचीय रूप में वाद्यों की संगति होती है| प्रमुख रूप से ढोलक, हारमोनियम और करताल की संगति होती है| शा स्त्रीय और लोक संगीत के साप्ताहिक स्तम्भ "सुर संगम" के इस नए अंक में आप सभी संगीत-प्रेमियों का, मैं कृष्णमोहन मिश्र हार्दिक स्वागत करता हूँ| दोस्तों; भारतीय लोक संगीत में अनेक ऐसी शैलियाँ प्रचलित हैं जिनमें नायक से बिछड़ जाने या नायक से लम्बे समय तक दूर होने की स्थिति में विरह-व्यथा से व्याकुल नायिका लोकगीतों के माध्यम से स्वयं को अभिव्यक्त करती है| देश के प्रायः प्रत्येक क्षेत्र में नायिका की विरह-व्यथा का प्रकटीकरण करते गीत बहुतेरे हैं, परन्तु विरह-पीड़ित नायक की अभिव्यक्ति देने वाले लोकगीत बहुत कम मिलते हैं| उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल क्षेत्र में लोक-संगीत की एक ऐसी विधा अत्यन्त लोकप्रिय है, जिसे "बिरहा" नाम से पहचाना जाता है| चित्र परिचय बिरहा गुरुओं का यह 1920 का दुर्लभ चित्र है; जिसके मध्य में बैठे हैं, बिरहा को एक प्रदर्शनकारी कला के रूप में प्रतिष्ठित करने वाले गुरु बिहारी यादव, बाईं ओर है- रम्मन यादव तथा