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नाज़ था खुद पर मगर ऐसा न था...... 'कहकशाँ’ में आज छाया की माया

 महफ़िल ए कहकशाँ 11 छाया गाँगुली  दो स्तों सुजोय और विश्व दीपक द्वारा संचालित "कहकशां" और "महफिले ग़ज़ल" का ऑडियो स्वरुप लेकर हम हाज़िर हैं, "महफिल ए कहकशां" के रूप में पूजा अनिल और रीतेश खरे  के साथ।  अदब और शायरी की इस महफ़िल में   आज पेश है छाया गाँगुली की आवाज़, इब्राहिम अश्क के बोल और भूपिंदर सिंह का संगीत । मुख्य स्वर - पूजा अनिल एवं रीतेश खरे  स्क्रिप्ट - विश्व दीपक एवं सुजॉय चटर्जी

नाज़ था खुद पर मगर ऐसा न था...... 'कहकशाँ’ में आज छाया की माया

कहकशाँ - 11 छाया गांगुली, इब्राहिम अश्क़, भूपेन्द्र सिंह   "नाज़ था खुद पर मगर ऐसा न था..." ’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के सभी दोस्तों को हमारा सलाम! दोस्तों, शेर-ओ-शायरी, नज़्मों, नगमों, ग़ज़लों, क़व्वालियों की रवायत सदियों की है। हर दौर में शायरों ने, गुलुकारों ने, क़व्वालों ने इस अदबी रवायत को बरकरार रखने की पूरी कोशिशें की हैं। और यही वजह है कि आज हमारे पास एक बेश-कीमती ख़ज़ाना है इन सुरीले फ़नकारों के फ़न का। यह वह कहकशाँ है जिसके सितारों की चमक कभी फ़ीकी नहीं पड़ती और ता-उम्र इनकी रोशनी इस दुनिया के लोगों के दिल-ओ-दिमाग़ को सुकून पहुँचाती चली आ रही है। पर वक्त की रफ़्तार के साथ बहुत से ऐसे नगीने मिट्टी-तले दब जाते हैं। बेशक़ उनका हक़ बनता है कि हम उन्हें जानें, पहचानें और हमारा भी हक़ बनता है कि हम उन नगीनों से नावाकिफ़ नहीं रहें। बस इसी फ़ायदे के लिए इस ख़ज़ाने में से हम चुन कर लाएँगे आपके लिए कुछ कीमती नगीने हर हफ़्ते और बताएँगे कुछ दिलचस्प बातें इन फ़नकारों के बारे में। तो पेश-ए-ख़िदमत है नगमों, नज़्मों, ग़ज़लों और क़व्वालियों की एक अदबी महफ़िल

आपकी याद आती रही...."अलाव" में जलते दिल की कराह

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 718/2011/158 'ए क पल की उम्र लेकर ' - सजीव सारथी की लिखी कविताओं की इस शीर्षक से किताब में से चुनकर १० कविताओं पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला की आठवीं कड़ी में आप सभी का स्वागत है। हमें आशा है कि अब तक इस शृंखला में प्रस्तुत कविताओं और गीतों का आपने भरपूर स्वाद चखा होगा। आज की कविता है ' अलाव '। तुम्हारी याद शबनम रात भर बरसती रही सर्द ठंडी रात थी मैं अलाव में जलता रहा सूखा बदन सुलगता रहा रूह तपती रही तुम्हारी याद शबनम रात भर बरसती रही शायद ये आख़िरी रात थी तुमसे ख़्वाबों में मिलने की जलकर ख़ाक हो गया हूँ बुझकर राख़ हो गया हूँ अब न रहेंगे ख़्वाब न याद न जज़्बात ही कोई इस सर्द ठंडी रात में इस अलाव में एक दिल भी बुझ गया है। बाहर सावन की फुहारें हैं, पर दिल में आग जल रही है। कमरे के कोने में दीये की लौ थरथरा रही है। पर ये लौ दीये की है या ग़म की समझ नहीं आ रहा। बाहर पेड़-पौधे, कीट-पतंगे, सब रिमझिम फुहारों में नृत्य कर रहे हैं, और यह क्या, मैं तो बिल्कुल सूखा हूँ अब तक। काश मैं भी अपने उस प्रिय जन के साथ भीग पाती! पर यह क्या, वह ल

आईना हमें देख के हैरान सा क्यूँ है...."सुरेश" की आवाज़ में पूछ रहे हैं "शहरयार"

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #५४ आ की महफ़िल में हम हाज़िर हैं सीमा जी की पसंद की दूसरी गज़ल लेकर। आज की गज़ल जिस फ़िल्म से(हाँ, यह फ़िल्मी-गज़ल है) ली गई है, उस फ़िल्म की चर्चा महफ़िल-ए-गज़ल में न जाने कितनी बार हो चुकी है। चाहे छाया गांगुली की "आपकी याद आती रही रात भर" हो, हरिहरण का "अजीब सानेहा मुझपे गुजर गया" हो या फिर आज की ही गज़ल हो, हर बार किसी न किसी बहाने से यह फ़िल्म महफ़िल-ए-गज़ल का हिस्सा बनती आई है। १९७९ में "मुज़फ़्फ़र अली" साहब ने इस चलचित्र का निर्माण करके न सिर्फ़ हमें नए-नए फ़नकार (गायक और गायिका) दिये, बल्कि "नाना पाटेकर" जैसे संजीदा अभिनेता को भी दर्शकों के सामने पेश किया। यह फ़िल्म व्यावसायिक तौर पर कितनी सफ़ल हुई या फिर कितनी असफ़ल इसकी जानकारी हमें नहीं है, लेकिन इस फ़िल्म ने लोगों के दिलों में अपना स्थान ज़रूर पक्का कर लिया। तो चलिए हम बढते हैं आज की गज़ल की ओर। आज की गज़ल को संगीत से सजाया है "जयदेव" साहब ने जिनके बारे में ओल्ड इज़ गोल्ड और महफ़िल-ए-गज़ल में बहुत सारी बातें हो चुकी हैं। यही बात इस गज़ल के गायक यानि की सुरेश

ख़ुसरो निज़ाम से बात जो लागी

भारतीय उपमहाद्वीप में प्रचलित सूफ़ी संगीत की विधाओं में सबसे लोकप्रिय है क़व्वाली. इस विधा के जनक के रूप में पिछली कड़ी में अमीर ख़ुसरो का ज़िक़्र भर हुआ था. उत्तर प्रदेश के एटा जिले के पटियाली गांव में १२५३ में जन्मे अमीर खुसरो का असली नाम अबुल हसन यमीनुद्दीन मुहम्मद था. कविता और संगीत के क्षेत्र में असाधारण उपलब्धियां अपने नाम कर चुके अमीर खुसरो को तत्कालीन खिलजी बादशाह जलालुद्दीन फ़ीरोज़ खिलजी ने को तूती-ए-हिन्द का ख़िताब अता फ़रमाया था. 'अमीर' का बहुत सम्मानित माना जाने वाला ख़िताब भी उन्हें खिलजी बादशाह ने ही दिया था. भीषणतम बदलावों, युद्धों और धार्मिक संकीर्णता का दंश झेल रहे तेरहवीं-चौदहवीं सदी के भारतीय समाज की मूलभूत सांस्कृतिक एकता को बचाए रखने और फैलाए जाने का महत्वपूर्ण कार्य करने में अमीर खुसरो ने साहित्य और संगीत को अपना माध्यम बनाया. तब तक भारतीय उपमहाद्वीप में सूफ़ीवाद अपनी जड़ें जमा चुका था और उसे इस विविधतापूर्ण इलाक़े के हिसाब से ढाले जाने के लिये जिस एक महाप्रतिभा की दरकार थी, वह अमीर ख़ुसरो के रूप में इस धरती पर आई. सूफ़ीवाद के मूल सिद्धान्त ने अमीर खुसरो को भी गहरे छ