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मेरी भी इक मुमताज़ थी....मधुकर राजस्थानी के दर्द को अपनी आवाज़ दी मन्ना दा ने..

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #५८ आ ज की महफ़िल में हम हाज़िर हैं शरद जी की पसंद की पहली नज़्म लेकर। शरद जी ने जिस नज़्म की फ़रमाईश की है, वह मुझे व्यक्तिगत तौर पर बेहद पसंद है या यूँ कहिए कि मेरे दिल के बेहद करीब है। इस नज़्म को महफ़िल में लाने के लिए मैं शरद जी का शुक्रिया अदा करता हूँ। यह तो हुई मेरी बात, अब मुझे "मैं" से "हम" पर आना होगा, क्योंकि महफ़िल का संचालन आवाज़ का प्रतिनिधि करता है ना कि कोई मैं। तो चलिए महफ़िल की विधिवत शुरूआत करते हैं और उस फ़नकार की बात करते हैं जिनके बारे में मोहम्मद रफ़ी साहब ने कभी यह कहा था: आप मेरे गाने सुनते हैं, मैं बस मन्ना डे के गाने सुनता हूँ। उसके बाद और कुछ सुनने की जरूरत नहीं होती। इन्हीं फ़नकार के बारे में प्रसिद्ध संगीतकार अनिल विश्वास यह ख्याल रखते थे: मन्ना डे हर वह गीत गा सकते हैं, जो मोहम्मद रफी, किशोर कुमार या मुकेश ने गाये हो लेकिन इनमें कोई भी मन्ना डे के हर गीत को नही गा सकता है। सुनने में यह बात थोड़ी अतिशयोक्ति-सी लग सकती है, लेकिन अगर आप मन्ना दा के गाए गीतों को और उनके रेंज को देखेंगे तो कुछ भी अजीब नहीं लगेगा। मन्ना द

सुनिए हुसैन बंधुओं के गाये चंद अनमोल शास्त्रीय भजन

राजस्थान के ग्वालियर घराने के मशहूर दो ग़ज़ल गायकों की जोड़ी उस्ताद मोहम्मद हुसैन और अहमद हुसैन की ग़ज़लों से हर कोई वाकिफ है. जो लोग फिल्मी संगीत तक ही सीमित हैं उन्होंने भी उनकी कव्वाली फ़िल्म "वीर ज़ारा" में अवश्य सुनी और सराही होंगी. जब दोनों एक स्वर में किसी ग़ज़ल को अपनी आवाज़ देते हैं तो समां बाँध देते हैं, पारस्परिक ताल मेल और संयोजन इतना जबरदस्त होता है कि देखने सुनने वाले बस मन्त्र मुग्द हो रहते हैं. कहते हैं संगीत मरहम भी है. रूह से निकली स्वरलहरियों की सदा में गजब का जादू होता है, हुसैन बंधुओं ने बेहद कमियाबी से अपने इसी संगीत को कैंसर पीडितों, नेत्रहीनों और शारीरिक विकलांगता से पीडितों को शारीरिक और मानसिक रूप से सबल बनाने में इस्तेमाल किया है. दोनों उस्ताद भाईयों ने अपने वालिद अफज़ल हुसैन जयपुरी से संगीत की तालीम ली. बहुत कम लोग जानते हैं कि ग़ज़लों के आलावा उन्होंने शास्त्रीय भजनों में भी अपने फन का ऐसा जौहर बिखेरा है कि उन्हें सुनकर तन मन और आत्मा तक आनंद से भर जाती है. आज हम आपको उनके गाये कुछ भजन सुनवायेंगे, जिन्हें सुनकर आप भी इस बात पर यकीन करने लगेंगे. ये शायद स

लौट चलो पाँव पड़ूँ तोरे श्याम-रफ़ी साहब का एक नायाब ग़ैर फ़िल्मी गीत

विविध भारती द्वारा प्रसारित किया जाने वाला ग़ैर-फ़िल्मी यानी सुगम संगीत रचनाओं का कार्यक्रम रंग-तरंग सुगम संगीत की रचनाओं को प्रचारित करने में मील का पत्थर कहा जाना चाहिये. इस कार्यक्रम के ज़रिये कई ऐसी रचनाएं संगीतप्रेमियों को सुनने को मिलीं हैं जिनके कैसेट अस्सी के दशक में बड़ी मुश्किल से बाज़ार में उपलब्ध हो पाते थे. ख़ासकर फ़िल्म जगत की कुछ नायाब आवाज़ों मो.रफ़ी, लता मंगेशकर, आशा भोसले, गीता दत्त, सुमन कल्याणपुरकर, मन्ना डे, महेन्द्र कपूर, उषा मंगेशकर, मनहर, मुबारक बेगम आदि के स्वर में निबध्द कई रचनाएं रंग-तरंग कार्यक्रम के ज़रिये देश भर में पहुँचीं. संगीतकार ख़ैयाम साहब ने फ़िल्मों में कम काम किया है लेकिन जितना भी किया है वह बेमिसाल है. उन्होंने हमेशा क्वॉलिटी को तवज्जो दी है. ख़ैयाम साहब ने बेगम अख़्तर, मीना कुमारी और मोहम्मद रफ़ी साहब को लेकर जो बेशक़ीमती रचनाएं संगीत जगत को दीं हैं उनमें ग़ज़लें और गीत दोनो हैं. सुगम संगीत एक बड़ी विलक्षण विधा है और हमारे देश का दुर्भाग्य है कि फ़िल्म संगीत के आलोक में सुगम संगीत की रचनाओं को एक अपेक्षित फ़लक़ नहीं मिल पाया है. संगीतकार ख़ैयाम ख़ैयाम साहब की संगीतबध्