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"वो काग़ज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी" - हर कोई अपना बचपन देखता है इस नज़्म में

कुछ गीत, कुछ ग़ज़लें, कुछ नज़्में ऐसी होती हैं जो हमारी ज़िन्दगियों से, हमारी बचपन की यादों से इस तरह से जुड़ी होती हैं कि उन्हें सुनते ही वह गुज़रा ज़माना आँखों के सामने आ जाता है। जगजीत सिंह के जन्मदिवस पर उनकी गाई सुदर्शन फ़ाकिर की इस नज़्म की चर्चा आज 'एक गीत सौ कहानियाँ' में सुजॉय चटर्जी के साथ... एक गीत सौ कहानियाँ # 6 बचपन एक ऐसा समय है जिसकी अहमियत उसके गुज़र जाने के बाद ही समझ आती है। बचपन में ऐसा लगता है कि न जाने कब बड़े होंगे, कब इस पढ़ाई-लिखाई से छुटकारा मिलेगा? पर बड़े होने पर यह अहसास होता है कि टूटे दिल से कहीं बेहतर हुआ करते थे टूटे घुटने, इस तनाव भरी ज़िन्दगी से कई गुणा अच्छा था वह बेफ़िक्री का ज़माना। पर अब पछताने से क्या फ़ायदा, गुज़रा वक़्त तो वापस नहीं आ सकता, बस यादें शेष हैं उस हसीन ज़िन्दगी की, उन बेहतरीन लम्हों की। बस एक फ़रियाद ही कर सकते हैं उपरवाले से कि ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन, वो काग़ज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी। और यही इल्तिजा शायर सुदर्शन फ़ाकिर नें भी की थी अपने इ