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जब एक "मुक्कमल शायर" की तलाश कमाल अमरोही को ले आई निदा फाजली तक

दोस्तों सुजोय और विश्व दीपक द्वारा संचालित "कहकशां" और "महफिले ग़ज़ल" का ऑडियो स्वरुप लेकर हम हाज़िर हैं, महफिले कहकशां के रूप में. पूजा अनिल और रीतेश खरे के साथ अदब और शायरी की इस महफ़िल में सुनिए वो मशहूर किस्सा, जब कमाल अमरोही एक मुक्कमल शायर को ढूंढते ढूंढते जा पहुंचें निदा फाजली तक, और शुरू हुआ निदा फाजली का फ़िल्मी सफ़र. उम्मीद है हमारी ये प्रस्तुति आपको पसंद आएगी

मौसम है आशिकाना, ये दिल कहीं से उनको ऐसे में ढूंढ लाना...आईये सज गयी है महफिल ओल्ड इस गोल्ड की

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 251 दो स्तों, शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा शैल 'अदा' जी के बाद एक लम्बे इंतेज़ार के बाद हमें मिली हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड पहेली प्रतियोगिता' के तीसरे विजेयता के रूप में पूर्वी जी। और आज से अगले पाँच दिनों तक हम सुनने जा रहे हैं पूर्वी जी के पसंद के पाँच सदाबहार नग़में। पूर्वी जी ने हमें कुल दस गानें चुन कर भेजे थे, जिनमें से हमने पाँच ऐसे गीतों को चुना है जिनकी फ़िल्मों का कोई भी गीत अब तक 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर नहीं बजा है। हमें पूरी उम्मीद है कि पूर्वी जी के पसंद ये गानें आप सभी बेहद एन्जॉय करेंगे, क्योंकि उनका भेजा हुआ हर एक गीत है गुज़रे ज़माने का सदाबहार नग़मा, जिन पर वक़्त का कोई भी असर नहीं चल पाया है। शुरुआत कर रहे हैं लता मंगेशकर के गाए फ़िल्म 'पाक़ीज़ा' के गीत "मौसम है आशिक़ाना" से। वैसे तो 'पाक़ीज़ा' फ़िल्म का कोई भी गीत ताज़े हवा के झोंके की तरह है जो इतने सालों के बाद भी वही ताज़गी, वही ख़ुशबू लिए हुए है। इन मीठे धुनों को साज़ों से निकालकर फ़ज़ाओं में बिखेरने वाले जादूगर का नाम है ग़ुलाम मोहम्मद। जी हाँ, ...

ये खेल होगा नहीं दुबारा...बड़ी हीं मासूमियत से समझा रहे हैं "निदा" और "जगजीत सिंह"

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #५० म हफ़िल-ए-गज़ल की जब हमने शुरूआत की थी, तब हमने सोचा भी नहीं था कि गज़लों का यह सफ़र ५०वीं कड़ी तक पहुँचेगा। लेकिन देखिए, देखते हीं देखते वह मुकाम भी हमने हासिल कर लिया। यह आप सबके प्यार और हौसला-आफ़ज़ाई के कारण हीं मुमकिन हो पाया है, नहीं तो हर बार कुछ नया लाना इतना आसान नहीं होता। उम्मीद है कि हम आपकी उम्मीदों पर खड़े उतर रहे हैं। हर बार आपके लिए कुछ नया लाने में हमारा भी बड़ा फ़ायदा है। न जाने ऐसे कितने नगीने हैं जो मिट्टी-तले दबे रहते हैं और उनका हक़ बनता है कि हम उन्हें जानें, पहचानें और हमारा भी हक़ बनता है कि हम उन नगीनों से नावाकिफ़ नहीं रहें। बस इसी फ़ायदे के लिए हम हर बार आपके सामने आते रहते हैं। आपने जिस तरह हमारा आज तक साथ दिया है, बस यही इल्तज़ा है कि आगे भी साथ बने रहिएगा। इसी दुआ के साथ पिछली कड़ी के अंकों का खुलासा करते हैं। तो हिसाब कुछ यूँ बनता है: सीमा जी: ४ अंक, शामिख जी: २ अंक और शरद जी: १ अंक। अब बारी है आज के प्रश्नों की| ये रहे प्रतियोगिता के नियम और उसके आगे दो प्रश्न: हम आपसे दो सवाल पूछेंगे जिसके जवाब आज के या फिर पिछली कड़ियों के आलेख मे...

कहाँ हाथ से कुछ छूट गया याद नहीं - मीना कुमारी की याद में

मीना कुमारी ने 'हिन्दी सिनेमा' जगत में जिस मुकाम को हासिल किया वो आज भी अस्पर्शनीय है ।वे जितनी उच्चकोटि की अदाकारा थीं उतनी ही उच्चकोटि की शायरा भी । अपने दिली जज्बात को उन्होंने जिस तरह कलमबंद किया उन्हें पढ़ कर ऐसा लगता है कि मानो कोई नसों में चुपके -चुपके हजारों सुईयाँ चुभो रहा हो. गम के रिश्तों को उन्होंने जो जज्बाती शक्ल अपनी शायरी में दी, वह बहुत कम कलमकारों के बूते की बात होती है. गम का ये दामन शायद 'अल्लाह ताला' की वदीयत थी जैसे। तभी तो कहा उन्होंने - कहाँ अब मैं इस गम से घबरा के जाऊँ कि यह ग़म तुम्हारी वदीयत है मुझको पैदा होते ही अब्बा अली बख्श ने रुपये के तंगी और पहले से दो बेटियों के बोझ से घबरा कर इन्हे एक मुस्लिम अनाथ आश्रम में छोड़ आए. अम्मी के काफी रोने -धोने पर वे इन्हे वापस ले आए ।परिवार हो या वैवाहिक जीवन मीना जो को तन्हाईयाँ हीं मिली चाँद तन्हा है,आस्मां तन्हा दिल मिला है कहाँ -कहाँ तन्हां बुझ गई आस, छुप गया तारा थात्थारता रहा धुआं तन्हां जिंदगी क्या इसी को कहते हैं जिस्म तन्हां है और जां तन्हां हमसफ़र कोई गर मिले भी कहीं दोनों चलते रहे यहाँ तन्हां जल...