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उड़न खटोले पर उड़ जाऊं.....बचपन के प्यार को अभिव्यक्त करता एक खूबसूरत युगल गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 391/2010/91 यु गल गीतों की जब हम बात करते हैं, तो साधारणत: हमारा इशारा पुरुष-महिला युगल गीतों की तरफ़ ही होता है। मेरा मतलब है वो युगल गीत जिनमें एक आवाज़ गायक की है और दूसरी आवाज़ किसी गायिका की। लेकिन जब भी युगल गीतों में ऐसे मौके आए हैं कि जिनमें दोनों आवाज़ें या तो पुरुष हैं या फिर दोनों महिला स्वर हैं, ऐसे में ये गानें कुछ अलग हट के, या युं कहें कि ख़ास बन जाते हैं। आज से हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर शुरु कर रहे हैं पार्श्वगायिकाओं के गाए हुए युगल गीतों, यानी कि 'फ़ीमेल डुएट्स' पर आधारित हमारी लघु शृंखला 'सखी सहेली'। इस शूंखला में हम १० फ़ीमेल डुएट्स सुनेंगे, यानी कि १० अलग अलग गायिकाओं की जोड़ी के गाए गीतों का आनंद हम उठा सकेंगे। ४० से लेकर ७० के दशक तक की ये जोड़ियाँ हैं जिन्हे हम शामिल कर रहे हैं, और हमारा विश्वास है कि इन सुमधुर गीतों का आप खुले दिल से स्वागत करेंगे। तो आइए शुरुआत की जाए इस शूंखला की। पहली जोड़ी के रूप में हमने एक ऐसी जोड़ी को चुना है जिनमें आवाज़ें दो ऐसी गायिकाओं की हैं जो ४० और ५० के दशकों में अपनी वज़नदार और नैज़ल...

आवाज़ दे कहाँ है...ओल्ड इस गोल्ड में पहली बार बातें गायक/अभिनेता सुरेन्द्र की

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 347/2010/47 ४० का दशक हमारे देश के इतिहास में राष्ट्रीय जागरण के दशक के रूप में याद किया जाता है। राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से इस दौर ने इस देश पर काफ़ी असरदार तरीके से प्रभाव डाला था। द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्त होते ही फ़िल्म निर्माण पर लगी रोक को उठा लिया गया जिसके चलते फ़िल्म निर्माण कार्य ने एक बार फिर से रफ़्तार पकड़ ली और १९४६ के साल में कुल १५५ हिंदी फ़िल्मों का निर्माण किया गया। लेकिन सही मायने में जिन दो फ़िल्मों ने बॊक्स ऒफ़िस पर झंडे गाढ़े, वो थे 'अनमोल घड़ी' और 'शाहजहाँ'। एक में नूरजहाँ - सुरैय्या, तो दूसरे में के. एल. सहगल। लेकिन दोनों फ़िल्मों के संगीतकार नौशाद साहब। वैसे हमने इन दोनों ही फ़िल्मों के गानें 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में बजाए हैं, लेकिन जब इस साल का प्रतिनिधित्व करने वाले किसी गीत को चुनने की बात आती है तो इन्ही दो फ़िल्मों के नाम ज़हन में आते हैं, और आने भी चाहिए। क्योंकि हमने 'शाहजहाँ' फ़िल्म के दो गीत सुनवाएँ हैं, तथा सहगल साहब और इस फ़िल्म से जुड़ी तमाम बातें भी बता चुके हैं, तो क्यों ना आज फ़िल्म...

जवाँ है मोहब्बत हसीं है ज़माना...यादें है इस गीत में मलिका-ए-तरन्नुम नूरजहाँ की

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 98 आ ज का 'ओल्ड इज़ गोल्ड' बहुत ख़ास है क्योंकि आज हम इसमे एक ऐसी आवाज़ आप तक पहुँचा रहे हैं जो ४० के दशक मे घर घर गली गली गूँजा करती थी। १९४७ में देश के बँटवारे के बाद वो फनकारा पाक़िस्तान चली गयीं और पीछे छोड़ गयीं अपनी आवाज़ का वो जादू जिन्हे आज तक सुनते हुए हमारे कान नहीं थकते और ना ही उनकी आवाज़ को कोई भुला ही पाया है. लताजी के आने से पहले यही आवाज़ थी हमारे देश की धड़कन, जी हाँ, हम बात कर रहे हैं मलिका-ए-तरन्नुम नूरजहाँ की। नूरजहाँ की आवाज़ उस ज़माने मे इतनी लोकप्रिय थी कि उन दिनों हर उभरती गायिका उन्हे अपना आदर्श बनाकर पार्श्वगायन के क्षेत्र में क़दम रखती थीं। यहाँ तक कि अगर हम सुरकोकिला लताजी के शुरुआती दो चार फ़िल्मों के गानें सुनें तो उनमें भी नूरजहाँ का अंदाज़ साफ़ झलकता है। यह बेहद अफ़सोस की बात है हम भारतवासियों के लिए कि स्वाधीनता के बाद नूरजहाँ अपने पति शौकत अली के साथ पाक़िस्तान जा बसीं जिससे कि हमारी यहाँ की फ़िल्में उनकी आवाज़ के जादू से वंचित रह गयीं। कहते हैं कि कला की कोई सीमा नहीं होती और ना ही कोई सरहद इसे रोक पायी है। नूरजहाँ की ...