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जाने न जाने गुल हीं न जाने, बाग तो सारा जाने है.. "मीर" के एकतरफ़ा प्यार की कसक औ’ हरिहरण की आवाज़

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९६ प ढ़ते फिरेंगे गलियों में इन रेख़्तों को लोग, मुद्दत रहेंगी याद ये बातें हमारियां। जाने का नहीं शोर सुख़न का मिरे हरगिज़, ता-हश्र जहाँ में मिरा दीवान रहेगा। ये दो शेर मिर्ज़ा ग़ालिब के गुरू (ग़ालिब ने इनसे ग़ज़लों की शिक्षा नहीं ली, बल्कि इन्हें अपने मन से गुरू माना) मीर के हैं। मीर के बारे में हर दौर में हर शायर ने कुछ न कुछ कहा है और अपने शेर के मार्फ़त यह ज़रूर दर्शा दिया है कि चाहे कितना भी लिख लो, लेकिन मीर जैसा अंदाज़ हासिल नहीं हो सकता। ग़ालिब और नासिख के शेर तो हमने पहले हीं आपको पढा दिए थे (ग़ालिब को समर्पित महफ़िलों में), आज चलिए ग़ालिब के समकालीन इब्राहिम ज़ौक़ का यह शेर आपको सुनवाते हैं, जो उन्होंने मीर को नज़र करके लिखा था: न हुआ पर न हुआ ‘मीर’ का अंदाज़ नसीब। ‘जौक़’ यारों ने बहुत ज़ोर ग़ज़ल में मारा।। हसरत मोहानी साहब कहाँ पीछे रहने वाले थे। उन्होंने भी वही दुहराया जो पहले मीर ने कहा और बाद में बाकी शायरों ने: शेर मेरे भी हैं पुर-दर्द वलेकिन ‘हसरत’। ‘मीर’ का शैवाए-गुफ़्तार कहां से लाऊं।। ग़ज़ल कहने की जो बुनियादी जरूरत है, वह है "हर तरह की भावनाओं