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Showing posts with the label tribute to the legand poets

मैं हर एक पल का शायर हूँ....साहिर लुधियानवी

अमर शायर / गीतकार साहिर लुधायनवी की २८वीं बरसी आओ कि कोई ख़्वाब बुनें कल के वास्ते वरना ये रात आज के संगीन दौर की डस लेगी जान-ओ-दिल को कुछ ऐसे कि जान-ओ-दिल ता-उम्र फिर न कोई हसीं ख़्वाब बुन सकें ये ख़्वाब ही तो अपनी जवानी के पास थे ये ख़्वाब ही तो अपने अमल के असास थे ये ख़्वाब मर गये हैं तो बे-रंग है हयात यूँ है कि जैसे दस्त-ए-तह-ए-संग है हयात आओ कि कोई ख़्वाब बुनें कल के वास्ते साहिर ने जब लिखना शुरू किया तब इकबाल, जोश, फैज़, फ़िराक, वगैरह शायरों की तूती बोलती थी, पर उन्होंने अपना जो विशेष लहज़ा और रुख अपनाया, उससे न सिर्फ उन्होंने अपनी अलग जगह बना ली बल्कि वे भी शायरी की दुनिया पर छा गये। प्रेम के दुख-दर्द के अलावा समाज की विषमताओं के प्रति जो आक्रोश हमें उनकी शायरी में मिलता है, एक ऐसा शायर जो खरा बोलता है दो टूक पर ख्वाब देखने की भी हिम्मत रखता है. जो तल्खियों को सीने में समेटे हुए भी कहता है कि आओ कोई ख्वाब बुनें. साहिर के शब्दों में अगर कहें तो - दुनिया के तजुरबातो-हवादिस की शक्ल में जो कुछ मुझे दिया है, लौटा रहा हूँ मैं अब्दुलहयी ‘साहिर’ 1921 ई. में लुधियाना के एक जागीरदार घरान...

अदा की आड़ में खंजर.... सुनिये उस्ताद शायर अमीर मिनाई की ग़ज़ल - शिशिर पारखी

एहतराम - अजीम शायरों को सलाम ( अंक ०४ ) शिशिर परखी के स्वरों में जारी है सफर एहतराम का, आज के उस्ताद शायर हैं अमीर मीनाई. निदा फाजिल साहब के शब्दों में अगर ग़ज़ल को समझें तो - "गजल केवल एक काव्य विधा नहीं है, यह उस संस्कृति या कल्चर को परिभाषित करती है जो गतिशील है और जो पल-पल बदलता रहता है।विश्व-साहित्य में यह एकमात्र अकेली विधा है जो महात्मा बुद्घ की मूर्ति की तरह जहाँ भी आती है अपने रूप-रंग, नैन-नक्श से वहीं की बन जाती है। " ग़ज़ल की इससे बेहतर परिभाषा क्या होगी. हजरत अमीर मीनाई (1828 –1901) लखनऊ में जन्में और रामपुर के सूफी संत अमीर शाह के शिष्य बने. अगर मीर और ग़ालिब ज़िंदगी पर एतबार के शायर थे तो दाग़ और अमीर बाज़ार के कारोबारी थे...उनके शेर हम आमो-खास की जुबां पर चढ़ जाते थे. देखिये ये बानगी - सुनी एक भी बात तुमने न मेरी सुनी हमने सारे ज़माने की बातें अंगूर में थी ये शै पानी की चार बूँदें जिस दिन से खिंच गई है तलवार हो गई है और खंजर चले किसी पे तड़पते हैं हम अमीर सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है या फ़िर ये - किसी अमीर की महफ़िल का ज़िक्र क्या है अमीर खुदा के घर भी ...

शिशिर पारखी की आवाज़ में मिर्जा दाग़ दहलवी की ग़ज़ल

एहतराम - अज़ीम शायरों का सलाम "एहतराम - अजीम शायरों को सलाम" की अगली कड़ी के रूप में आईये सुनें शिशिर पारखी की बेमिसाल आवाज़ में उस्ताद शायर मिर्जा दाग़ दहलवी की ये ग़ज़ल - आज एक उस्ताद शायर हैं मिर्जा दाग़ दहलवी - एक संक्षिप्त परिचय मिर्ज़ा ‘दाग़’ को अपने जीवनकाल में जो ख्याति, प्रतिष्ठा और शानो-शौकत प्राप्त हुई, वह किसी बड़े-से-बड़े शाइर को अपनी ज़िन्दगी में मयस्सर न हुई। स्वयं उनके उस्ताद शैख़, ‘ज़ौक़’ शाही क़फ़स में पड़े हुए ‘तूतिये-हिन्द’ कहलाते रहे, मगर 100 रू० माहवारी से ज़्यादा का आबो-दाना कभी नहीं पा सके। ख़ुदा-ए-सुख़न ‘मीर’ ‘अमर-शाइर’ ‘गा़लिब’ और ‘आतिश’-जैसे आग्नेय शाइरों को अर्थ-चिन्ता जीवनभर घुनके कीड़े की तरह खाती रही। हकीम ‘मोमिन शैख़’ ‘नासिख़’ अलबत्ता अर्थाभाव से किसी क़द्र निश्चन्त रहे, मगर ‘दाग़’ जैसी फ़राग़त उन्हें भी कहाँ नसीब हुई यूँ अपने ज़माने में एक-से-एक बढ़कर उस्ताद एवं ख्याति-प्राप्त शाइर हुए, मगर जो ख्याति और शुहरत अपनी ज़िन्दगीमें ‘दाग़’ को मिली, वह औरों को मयस्सर नहीं हुई। भले ही आज उनकी शाइरी का ज़माना लद गया है और मीर, दर्द, आतिश, ग़लिब, मोमिन...

सुनिए इब्राहीम ज़ौक का कलाम और शिशिर पारखी की आवाज़

एहतराम - अज़ीम शायरों को सलाम ( अंक - ०२ ) आवाज़ मशहूर ग़ज़ल गायक शिशिर पारखी के साथ मिल कर संगीतमय स्मरण कर रहा है उस्ताद शायरों का, जिन्होंने ग़ज़ल लेखन को बुलंदियां से नवाजा. हम थे ग़ज़ल के सुनहरे दौर में जहाँ एक शाहंशाह जो ख़ुद भी शायर था और जिसके दरबार में हर शाम ग़ज़लों की महफिलें आबाद होती थी. मोमिन खान मोमिन के बाद आईये ज़िक्र करें इब्राहीम ज़ौक का. पहले सुन लेते हैं इस दरबारी शायर का ये कलाम, शिशिर परखी की मखमली आवाज़ में - मोहम्मद इब्राहीम ज़ौक - एक परिचय ‘ज़ौक़’ 1204 हि. तदनुसार 1789 ई. में दिल्ली के एक ग़रीब सिपाही शेख़ मुहम्मद रमज़ान के घर पैदा हुए थे। शेख़ रमज़ान नवाब लुत्फअली खां के नौकर थे और काबुली दरवाज़े के पास रहते थे। शैख़ इब्राहीम इनके इकलौते बेटे थे। बचपन में मुहल्ले के एक अध्यापक हाफ़िज़ गुलाम रसूल के पास पढ़ने के लिए जाते। हाफ़िज़ जी शायर भी थे और मदरसे में भी ‘शे’रो-शायरी का चर्चा होता रहता था, इसी से मियां इब्राहीम की तबीयत भी इधर झुकी। इनके एक सहपाठी मीर काज़िम हुसैन ‘बेक़रार’ भी शायरी करते थे और हाफ़िज जी से इस्लाह लेते थे। मियां इब्राहीम की उनसे दोस्ती थी। एक रोज़ उन्...