महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१११ सू फ़ियों का कलाम गाते-गाते आबिदा परवीन खुद सूफ़ी हो गईं। इनकी आवाज़ अब इबादत की आवाज़ लगती है। मौला को पुकारती हैं तो लगता है कि हाँ इनकी आवाज़ ज़रूर उस तक पहुँचती होगी। वो सुनता होगा.. सिदक़ सदाक़त की आवाज़। माला कहे है काठ की तू क्यों फेरे मोहे, मन का मणका फेर दे, तुरत मिला दूँ तोहे। आबिदा कबीर की मार्फ़त पुकारती हैं उसे, हम आबिदा की मार्फ़त उसे बुला लेते हैं। मन लागो यार फ़क़ीरी में... एक तो करैला उस पर से नीम चढा... इसी तर्ज़ पर अगर कहा जाए "एक तो शहद ऊपर से गुड़ चढा" तो यह विशेषण, यह मुहावरा आज के गीत पर सटीक बैठेगा। सच कहूँ तो सटीक नहीं बैठेगा बल्कि थोड़ा पीछे रह जाएगा, क्योंकि यहाँ गुड़ चढे शहद के ऊपर शक्कर के कुछ टुकड़े भी हैं। कबीर की साखियाँ अपने आप में हीं इस दुनिया से दूर किसी और शय्यारे से आई हुई सी लगती है, फिर अगर उन साखियों पर आबिदा की आवाज़ के गहने चढ जाएँ तो हर साखी में कही गई दुनिया को सही से समझने और सही से समझकर जीने का सीख देने वाली बातों का असर कई गुणा बढ जाएगा। वही हुआ है यहाँ... लेकिन यह जादू यही तक नहीं थमा। इससे पहले की आबिदा अप...