महफ़िल-ए-ग़ज़ल #२४ आ ज की गज़ल को क्या कहूँ, कुछ ऐसी कहानी हीं इससे जुड़ी है कि अगर कुछ न भी हो तो बहुत कुछ कहा जा सकता है,फिर भी दिल है कि एक शब्द कहने या लिखने से पहले सौ बार सोचने की सलाह दे रहा है। यूँ तो मेरे पास लगभग २० गज़लें थीं,जिनमें से किसी पर भी मैं लिख सकता था,लेकिन न जाने क्यों फ़ेहरिश्त की आठवीं गज़ल मेरे मन को भा गई,बाकियों को सुना भी नहीं,इसके बोल पढे और इसे हीं सुनने लगा और यह देखिए कि लगातार तीन-चार दिनों से इसी गज़ल को सुनता आ रहा हूँ। इस गज़ल से जुड़ी जो कहानियाँ हैं, दिमाग उन्हें फ़ितूर साबित करने पर तुला है,लेकिन दिल है कि कभी-कभार उन कहानियों पर यकीं कर बैठता है। अब दिल तो दिल है, उसकी भी तो सुननी होगी। इसलिए सोचता हूँ कि एक बार सही से बैठूँ और दिल-दिमाग के बीच समझौता करा दूँ। इसमें आप मेरा साथ देंगे ना? तो पहले उन कहानियों का हीं ज़िक्र करता हूँ, फिर निर्णय करेंगे कि इनमें कितनी सच्चाई है। इस गज़ल के शायर के बारे में यह कहा जाता है कि यह गज़ल उनकी अंतिम गज़ल थी, मतलब कि इसे लिखने के बाद वो कुछ भी न लिख पाएँ और कुछ दिनों या महीनों के बाद सुपूर्द-ए-खाक़ हो गए। इस...