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गीत अतीत 06 || हर गीत की एक कहानी होती है || हौले हौले || साहिल सुल्तानपुरी

Geet Ateet 06 Har Geet Kii Ek Kahaani Hoti Hai... Haule Haule  Sahil Sultanpuri - Lyricist हरिहरन के स्वरबद्ध किये और साहिल सुल्तानपुरी के लिखे इस गैर फ़िल्मी गीत को गाया है साधना जेजुरिकर ने, जिसका नाम है "हौले हौले", आईये आज सुनें इस गीत के गीतकार साहिल सुल्तानपुरी की जुबानी, इस नए गीत के बनने की कहानी, प्ले पर क्लिक करें और सुनें.... डाउनलोड कर के सुनें  यहाँ  से.... सुनिए इन गीतों की कहानियां भी - ओ रे रंगरेज़ा (जॉली एल एल बी) मैनरलैस मजनूं (रंनिंग शादी डॉट कॉम) रंग (अरविन्द तिवारी, गैर फ़िल्मी सिंगल) हमसफ़र (बदरी की दुल्हनिया) सनशाईन (गैर फ़िल्मी सिंगल)

‘मैं तो कब से तेरी शरण में हूँ...’ : राग अहीर भैरव में भक्तिरस

    स्वरगोष्ठी – 141 में आज रागों में भक्तिरस – 9 पण्डित भीमसेन जोशी के स्वर में सन्त नामदेव का पद ‘ रेडियो प्लेबैक इण्डिया ’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘ स्वरगोष्ठी ’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘ रागों में भक्तिरस ’ की नौवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र , एक बार पुनः आप सब संगीतानुरागियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम आप के लिए भारतीय संगीत के कुछ भक्तिरस प्रधान राग और उनमें निबद्ध रचनाएँ प्रस्तुत कर रहे हैं। साथ ही उस राग पर आधारित फिल्म संगीत के उदाहरण भी आपको सुनवा रहे हैं। श्रृंखला की आज की कड़ी में हम आपसे प्रातःकालीन राग अहीर भैरव की चर्चा करेंगे। आपके समक्ष इस राग के भक्तिरस-पक्ष को स्पष्ट करने के लिए हम दो भक्तिरस से अभिप्रेरित रचनाएँ प्रस्तुत करेंगे। पहले आप सुनेंगे राग अहीर भैरव के स्वरों में पिरोया सन्त नामदेव का एक भक्तिपद , भारतरत्न पण्डित भीमसेन जोशी के स्वरों में। इसके उपरान्त हम प्रस्तुत करेंगे , 1982 में प्रदर्शित फिल्म ‘ राम नगरी ’ का समर्पण भाव से परिपूर्ण एक भक्तिगीत।   पं. भीमसेन जोशी  इ स श्रृंखला

फ़िल्म-संगीत की शुरुआत - आलम-आरा से

भारतीय सिनेमा के सौ साल – 38 कारवाँ सिने-संगीत का आज ‘आलम-आरा’ के प्रदर्शन के पूरे हुए 82 वर्ष भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष में ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ द्वारा आयोजित विशेष अनुष्ठान- ‘कारवाँ सिने-संगीत का’ में आप सभी सिनेमा-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत है। आज माह का दूसरा गुरुवार है और माह के दूसरे और चौथे गुरुवार को हम ‘कारवाँ सिने-संगीत का’ स्तम्भ के अन्तर्गत ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के संचालक मण्डल के सदस्य सुजॉय चटर्जी की प्रकाशित पुस्तक ‘कारवाँ सिने-संगीत का’ से किसी रोचक प्रसंग का उल्लेख करते हैं। आज के अंक में हम भारतीय फिल्म जगत की बहुचर्चित फिल्म ‘आलम-आरा’ की चर्चा की जा रही है। यह भारत की पहली सवाक फिल्म थी।  जै सा कि सर्वविदित है पहली भारतीय बोलती फ़िल्म ‘आलम-आरा’ के 14 मार्च, 1931 के दिन बम्बई में प्रदर्शित होने के साथ ही फ़िल्म-संगीत का युग भी शुरु हो गया था। इम्पीरियल फ़िल्म कंपनी के बैनर तले अरदशेर ईरानी और अब्दुल अली यूसुफ़ भाई ने मिलकर इस फ़िल्म का निर्माण किया था। इम्पीरियल मूवीटोन कृत आ ल म – आ रा सम्पूर्ण

गुरूदेव की "नौका डूबी" को "कशमकश" में तब्दील करके लाए हैं संजॉय-राजा..शब्दों का साथ दिया है गुलज़ार ने

Taaza Sur Taal (TST) - 15/2011 - KASHMAKASH (NAUKA DOOBI) कभी-कभार कुछ ऐसी फिल्में बन जाती हैं, कुछ ऐसे गीत तैयार हो जाते हैं, जिनके बारे में आप लिखना तो बहुत चाहते हैं, लेकिन अपने आप को इस लायक नहीं समझते कि थोड़ा भी विश्लेषण कर सकें। आपके मन में हमेशा यह डर समाया रहता है कि अपनी नासमझी की वज़ह से कहीं आप उन्हें कमतर न आंक जाएँ। फिर आप उन फिल्मों या गीतों पर शोध शुरू करते हैं और कोशिश करते हैं कि जितनी ज्यादा जानकारी जमा हो सके इकट्ठा कर लें, ताकि आपके पास कही गई बातों का समर्थन करने के लिए कुछ तो हो। इन मौकों पर अमूमन ऐसा भी होता है कि आपकी पसंद अगर सही मुकाम पर पहुँच न पा रही हो तो भी आप पसंद को एक जोड़ का धक्का देते हैं और नकारात्मक सोच-विचार को बाहर का रास्ता दिखा देते हैं। अंतत: या तो आप संतुष्ट होकर लौटते हैं या फिर एक खलिश-सी दिल में रह जाती है कि इस चीज़ को सही से समझ नहीं पाया। आज की फिल्म भी कुछ वैसी है.. गुरूदेव रवींद्रनाथ टैगोर की लिखी कहानी "नौका डूबी" पर उसी नाम से बनाई गई बांग्ला फिल्म का हिंदी रूपांतरण है "कशमकश"। इस फिल्म के सभी गाने रवींद्र-संगीत

किलिमांजारो में बूम बूम रोबो डा.. रोबोट की हरकतों के साथ हाज़िर है रहमान, शंकर और रजनीकांत की तिकड़ी

ताज़ा सुर ताल ३३/२०१० सुजॊय - आज है ३१ अगस्त! यानी कि आज 'ताज़ा सुर ताल' इस साल का दो तिहाई सफ़र पूरा कर रहा है। पीछे मुड़ कर देखें तो इस साल बहुत ही कम फ़िल्में ऐसी हैं जिन्होंने बॊक्स ऒफ़िस पर कामयाबी के झंडे गाड़े हैं। विश्व दीपक - हाँ, लेकिन फ़िल्म संगीत की बात करें तो इन फ़िल्मों के अलावा भी कई फ़िल्मों का संगीत सुरीला रहा है। 'वीर', 'इश्क़िया', 'कार्तिक कॊलिंग‍ कार्तिक', 'आइ हेट लव स्टोरीज़', 'मिस्टर सिंह ऐण्ड मिसेस मेहता', 'वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई' जैसे फ़िल्मों के गानें काफ़ी अच्छे हैं। अब देखते हैं कि २०१० का बेस्ट क्या अभी आना बाक़ी है! सुजॊय - अच्छा विश्व दीपक जी, क्या आप ने कोई ऐसा कम्प्युटर देखा है जिसका स्पीड १ टेरा हर्ट्ज़ हो, और मेमरी १ ज़ीटा बाइट, जिसका प्रोसेसर पेण्टियम अल्ट्रा कोर मिलेनिया वी-२, और एफ़. एच. पी-४५० मोटर हिराटा, जापान का लगा हो? विश्व दीपक - अरे अरे ये सब क्या पूछे जा रहे हैं आप? यह 'टी. एस. टी' है भई! सुजॊय - तभी तो! आज हम जिस फ़िल्म के गानें सुनने जा रहे हैं यह उसी से ताल्लुख़ रखत

जाने न जाने गुल हीं न जाने, बाग तो सारा जाने है.. "मीर" के एकतरफ़ा प्यार की कसक औ’ हरिहरण की आवाज़

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९६ प ढ़ते फिरेंगे गलियों में इन रेख़्तों को लोग, मुद्दत रहेंगी याद ये बातें हमारियां। जाने का नहीं शोर सुख़न का मिरे हरगिज़, ता-हश्र जहाँ में मिरा दीवान रहेगा। ये दो शेर मिर्ज़ा ग़ालिब के गुरू (ग़ालिब ने इनसे ग़ज़लों की शिक्षा नहीं ली, बल्कि इन्हें अपने मन से गुरू माना) मीर के हैं। मीर के बारे में हर दौर में हर शायर ने कुछ न कुछ कहा है और अपने शेर के मार्फ़त यह ज़रूर दर्शा दिया है कि चाहे कितना भी लिख लो, लेकिन मीर जैसा अंदाज़ हासिल नहीं हो सकता। ग़ालिब और नासिख के शेर तो हमने पहले हीं आपको पढा दिए थे (ग़ालिब को समर्पित महफ़िलों में), आज चलिए ग़ालिब के समकालीन इब्राहिम ज़ौक़ का यह शेर आपको सुनवाते हैं, जो उन्होंने मीर को नज़र करके लिखा था: न हुआ पर न हुआ ‘मीर’ का अंदाज़ नसीब। ‘जौक़’ यारों ने बहुत ज़ोर ग़ज़ल में मारा।। हसरत मोहानी साहब कहाँ पीछे रहने वाले थे। उन्होंने भी वही दुहराया जो पहले मीर ने कहा और बाद में बाकी शायरों ने: शेर मेरे भी हैं पुर-दर्द वलेकिन ‘हसरत’। ‘मीर’ का शैवाए-गुफ़्तार कहां से लाऊं।। ग़ज़ल कहने की जो बुनियादी जरूरत है, वह है "हर तरह की भावनाओं

आईना हमें देख के हैरान सा क्यूँ है...."सुरेश" की आवाज़ में पूछ रहे हैं "शहरयार"

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #५४ आ की महफ़िल में हम हाज़िर हैं सीमा जी की पसंद की दूसरी गज़ल लेकर। आज की गज़ल जिस फ़िल्म से(हाँ, यह फ़िल्मी-गज़ल है) ली गई है, उस फ़िल्म की चर्चा महफ़िल-ए-गज़ल में न जाने कितनी बार हो चुकी है। चाहे छाया गांगुली की "आपकी याद आती रही रात भर" हो, हरिहरण का "अजीब सानेहा मुझपे गुजर गया" हो या फिर आज की ही गज़ल हो, हर बार किसी न किसी बहाने से यह फ़िल्म महफ़िल-ए-गज़ल का हिस्सा बनती आई है। १९७९ में "मुज़फ़्फ़र अली" साहब ने इस चलचित्र का निर्माण करके न सिर्फ़ हमें नए-नए फ़नकार (गायक और गायिका) दिये, बल्कि "नाना पाटेकर" जैसे संजीदा अभिनेता को भी दर्शकों के सामने पेश किया। यह फ़िल्म व्यावसायिक तौर पर कितनी सफ़ल हुई या फिर कितनी असफ़ल इसकी जानकारी हमें नहीं है, लेकिन इस फ़िल्म ने लोगों के दिलों में अपना स्थान ज़रूर पक्का कर लिया। तो चलिए हम बढते हैं आज की गज़ल की ओर। आज की गज़ल को संगीत से सजाया है "जयदेव" साहब ने जिनके बारे में ओल्ड इज़ गोल्ड और महफ़िल-ए-गज़ल में बहुत सारी बातें हो चुकी हैं। यही बात इस गज़ल के गायक यानि की सुरेश