ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 158 "या द न जाये बीते दिनों की, जाके न आए जो दिन, दिल क्यों बुलाए उन्हे दिल क्यों बुलाए"। दोस्तों, फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर की यादें इतनी पुरअसर हैं, इतने सुरीले हैं, कि उन्हे भुला पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। भले ही वो दिन फिर वापस नहीं आ सकते, लेकिन ग्रामोफ़ोन रिकार्ड्स, कैसेट्स और सीडीज़ के माध्यम से उन सुरीले दिनों की यादों को क़ैद कर लिया गया है जो सदियों तक उन सुरीले ज़माने की और उस दौर से गुज़रे कलाकारों की सुर साधना से दुनिया की फिजाओं को महकाती रहेंगी। इन सुर साधकों में से एक नाम मोहम्मद रफ़ी साहब का है, जिनकी कल पुण्य तिथि थी। आज ही के दिन सन् १९८० में वो हम से बिछड़ गये थे। जब भी रफ़ी साहब के गाये गीतों की महफ़िल सजती है तो यह दिल ग़मगीन हो जाता है यह सोचकर कि उपरवाले ने इतनी जल्दी क्यों उन्हे हम से अलग कर दिया! अभी तो मानो बस महफ़िल शुरु ही हुई थी, ३० साल पूरे होने जा रहे हैं उनके गये हुए, पर दिल तो आज भी बस यही कहता है उन्ही के गाये 'साज़ और आवाज़' फ़िल्म के उस गीत के बोलों में ढलकर कि "दिल की महफ़िल सजी है चले आइए, आप...