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सिमटी हुई ये घड़ियाँ फिर से न बिखर जाएँ - 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के महफ़िल की शमा बुझाने आया हूँ मैं, आपका दोस्त, सुजॉय चटर्जी

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के लिए जब मैं संगीतकार तुषार भाटिया का इंटरव्यू कर रहा था अनिल बिस्वास जी से संबंधित, तो तुषार जी नें मुझसे कहा कि उनके पास एक एल.पी है अनिल दा के गीतों का, जिसे अनिल दा नें उन्हें भेंट किया था, और जिसके कवर पर अनिल दा नें बांगला में उनके लिए कुछ लिखा था, पर वो उसे पढ़ नहीं पाये; तो क्या मैं उसमें उनकी कुछ मदद कर सकता हूँ? मैंने हाँ में जवाब दिया। उस एल.पी कवर पर लिखा हुआ था "तुषार के सस्नेह आशीर्बादाने अनिल दा" (तुषार को सनेह आशीर्वाद के साथ, अनिल दा)। इस अनुवाद को भेजते हुए मैंने तुषार जी को लिखा था "Wowwww, what a privilege you have given me Tushar ji to translate something Anil da has written for you!!! cant ask for more."


ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 74

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोताओं, सभी पाठकों और सभी चाहनेवालों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! दोस्तों, गुरूवार शाम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' स्तंभ का समापन हम कर चुके हैं, और आज घड़ी है 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' स्तंभ को समाप्त करने का। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का सुरीला सफ़र शुरु हुआ था २० फ़रवरी २००९ की शाम को और पहली कड़ी में हमने सुनवाया था फ़िल्म 'नीला आकाश' का गीत "आपको प्यार छुपाने की बुरी आदत है"। 'शनिवार विशेषांक' की पहली कड़ी प्रस्तुत हुई थी ३१ जुलाई २०१० की शाम जिसमें हमनें गुड्डो दादी के अनुरोध पर गायिका सुरिन्दर कौर पर विशेष प्रस्तुत किया था। तब से लेकर अब तक का समय कैसे बीत गया पता ही नहीं चला। ८२० नियमित अंकों और ७३ विशेषांकों से गुज़रते हुए 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का यह कारवाँ आज अपनी मंज़िल तक पहुँच चुका है। तो दोस्तों, आज क्या पेश करूँ? बहुत सोचने पर भी मैं यह तय नहीं कर पाया कि आज के इस विशेषांक के लिए क्या पेश किया जाए! इसलिए सोचा कि क्यों न पीछे छोड़ आए पड़ावों की तरफ़ ही एक बार फिर से मुड़ा जाए और कुछ मीठी यादों को फिर एक बार जिया जाये।

'शनिवार विशेषांक' के ज़रिए मुझे कई कलाकारों या फिर उनके परिवार जनों से बातचीत करने का सुनहरा मौका मिला। कलाकारों में संगीतकार तुषार भाटिया, गायक शब्बीर कुमारमिलन सिंह, गीतकार अमित खन्ना प्रमुख शामिल हैं तो पारुल घोष, अनिल बिस्वास, आशालता बिस्वास, पं. नरेन्द्र शर्मा, महेन्द्र कपूर, आनन्द बक्शी, शक़ील बदायूनी, खेमचन्द प्रकाश व बसन्त प्रकाश, भोला श्रेष्ठ प्रमुख जैसे गुज़रे ज़माने के कालजयी फ़नकारों के परिवार जनों के सम्पर्क में आने का भी मौका मुझे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के ज़रिए मिला। और इन सब से उपर, ट्विटर के ज़रिए लता मंगेशकर जी से सात सवाल भी मैंने पूछे थे जिनका उन्होंने जवाब दिया था। यह तो वाक़ई मुझे आज भी एक सपना जैसा लगता है। उषा मंगेशकर जी से भी थोड़ी बहुत बातचीत ट्विटर में हुई थी। आजकल ये दोनों बहनें ट्विटर पर बहुत ज़्यादा सक्रीय न होने की वजह से उनसे बातचीत नहीं हो सकी।

ऐसी बात नहीं है कि 'ओल्ड इज़ गोल्ड' से पहले मैंने कभी किसी कलाकार से बातचीत नहीं कर रखी थी। सालों पहले, शायद मेरे इंजिनीयरिंग्‍ के दिनों की बात होगी, उस समय दूरदर्शन पर शनिवार सुबह एक लाइव फ़ोन-इन प्रोग्राम आता था 'हैलो डी.डी' जिसमें किसी सेलिब्रिटी को बुलाया जाता था और दर्शक फ़ोन के माध्यम से सीधे उनके अपना सवाल पूछ सकते थे। मैं वह प्रोग्राम देखता तो था, पर कभी फ़ोन करने की कोशिश नहीं की। लेकिन एक दिन जब देखा कि महमान बन कर आए हैं गीतकार गुल्शन बावरा, तो यकायक फ़ोन हाथ में उठा लिया। ख़ुशक़िस्मती मेरी कि फ़ोन लग भी गया और बावरा जी से दो सवाल भी पूछे। पहला सवाल था कि 'आपने सबसे ज़्यादा काम किस संगीतकार के साथ किया है' और दूसरा सवाल कि 'आपके मनपसन्द गायक गायिका कौन हैं'। उनका जवाब था आर. डी. बर्मन, मुकेश और लता मंगेशकर। यह मेरी शुरुआत थी।

कुछ वर्ष पहले मैंने इन्टरनेट पर 'विविध भारती लिस्नर्स क्लब' नाम से एक ग्रूप शुरु किया था जिसमें विविध भारती के तमाम कार्यक्रमों के लेख और साक्षात्कार को ट्रान्स्क्राइब करके पोस्ट किया करता था। ऐसे ट्रान्स्क्रिप्टों की संख्या ९५० पार कर चुकी थी। ऐसा ही एक ट्रान्स्क्रिप्ट था 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम का जिसमें पार्श्वगायिका शारदा से लम्बी बातचीत थी। कुल ७ अंकों के इस शृंखला के ट्रान्स्क्रिप्ट को जब मैंने उस ग्रूप में पोस्ट किया, तो कुछ ही दिनों के अन्दर मुझे एक ईमेल मिला उस ट्रान्स्क्रिप्ट के लिए "धन्यवाद" का। आपको पता है वह ईमेल किनका था? वह ईमेल था स्वयं शारदा जी का। मेरी ख़ुशी का ठिकाना न रहा। मैं डरता था कि कहीं इस कार्य की वजह से विविध भारती के कार्यक्रमों के कॉपीराइट का उल्लंघन न हो रहा हो! लेकिन यह डर भी समाप्त हो गया जब विविध भारती के वरिष्ठतम उद्‍घोषक श्री कमल शर्मा नें 'SMS के बहाने VBS के तराने' कार्यक्रम में मेरा नाम शामिल करते हुए मेरी तारीफ़ की इन्टरनेट पर इस कार्य के लिए।

विविध भारती पर ही मेरा नाम एक बार और आया था जब विविध भारती के जन्मदिन समारोह पर आयोजित विशेष कार्यक्रम के लिए मैंने एक ईमेल भेजा था। उस कार्यक्रम में गायक कुमार सानू और अलका याज्ञ्निक आने वाले थे और श्रोताओं से ईमेल के ज़रिए सवाल भेजने को कहा गया था। तो मैंने भी अपना सवाल भेज दिया, जिसे शामिल भी कर लिया गया था। उन दिनों मेरे दिमाग़ में फ़िल्म-संगीत से संबंधित एक मासिक पत्रिका प्रकाशन का भूत सवार हो रखा था, इसलिए मैंने सानू दा और अलका जी के लिए यह सवाल भेजा कि अगर फ़िल्म-संगीत पर कोई करशियल मैगज़ीन शुरु की जाये तो क्या उनके हिसाब से यह कामयाब हो सकती है? सवाल कुछ अलग हट के होने की वजह से दोनों को पसन्द आया, पर दोनों से दो अलग अलग जवाब मिले। जहाँ सानू दा को आइडिया बहुत अच्छा व आकर्षक लगा, वहीं दूसरी ओर अलका जी नें कहा कि यह अगर ८० के दशक तक की भी बात होती तो शायद चल जाती, पर आजे के दौर में फ़िल्म-संगीत की हालत ऐसी नहीं है कि इसके लिए कोई अलग मैगज़ीन निकाली जाए, पर हाँ, संगीत पर मैगज़ीन ज़रूर निकाली जा सकती है। अलका जी से यह सुनने के बाद मेरे सर से वह भूत उतर गया।

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के लिए जब मैं संगीतकार तुषार भाटिया का इंटरव्यू कर रहा था अनिल बिस्वास जी से संबंधित, तो तुषार जी नें मुझसे कहा कि उनके पास एक एल.पी है अनिल दा के गीतों का, जिसे अनिल दा नें उन्हें भेंट किया था, और जिसके कवर पर अनिल दा नें बांगला में उनके लिए कुछ लिखा था, पर वो उसे पढ़ नहीं पाये; तो क्या मैं उसमें उनकी कुछ मदद कर सकता हूँ? मैंने हाँ में जवाब दिया। उस एल.पी कवर पर लिखा हुआ था "तुषार के सस्नेह आशीर्बादाने अनिल दा" (तुषार को सनेह आशीर्वाद के साथ, अनिल दा)। इस अनुवाद को भेजते हुए मैंने तुषार जी को लिखा था "Wowwww, what a privilege you have given me Tushar ji to translate something Anil da has written for you!!! cant ask for more." इसके जवाब में तुषार नें मुझे लिखा था - "THANKS SUJOY , YOU HAVE MADE MY DAY! MISSING DADA MORE THAN EVER BEFORE!" तुषार जी के साथ उस इन्टरव्यू को करते हुए एक बहुत ही अच्छा अनुभव हुआ था। वैसे ही आनन्द बक्शी साहब के बेटे राकेश बक्शी का इन्टरव्यू और अभिनेत्री आशालता व अनिल बिस्वास की पुत्री शिखा वोहरा जी का इन्टरव्यू भी मुझे विशेष प्रिय है।

तो दोस्तों, ये कुछ बातें थीं जो अब तक आपसे शेयर करना रह गया था। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' की अन्तिम कड़ी के बहाने ये सब बातें मैं आपसे शेयर करते हुए मुझे बहुत ही अच्छा लगा। और क्या कहूँ, 'ओल्ड इज़ गोल्ड' से इतना ज़्यादा लगाव हो गया था कि इस स्तंभ को समाप्त करते हुए दुख ज़रूर हो रहा है। सिमटी हुई ये घड़ियाँ फिर से न बिखर जायें, इसलिए अगले सप्ताह से मैं सप्ताह में कम से कम दो बार आपसे मिलूंगा - सोमवार के दिन 'सिने-पहेली' में, और बुधवार के दिन 'एक गीत सौ कहानियाँ' में। आज बस इतना ही, चलते चलते आपको 'चम्बल की कसम' फ़िल्म का एक गीत सुनवाता चलता हूँ जो मुझे बेहद बेहद पसन्द है। लता-रफ़ी की युगल स्वरों में ख़य्याम साहब की तर्ज़ पर यह गीत है "सिमटी हुई ये घड़ियाँ फिर से न बिखर जायें"। शायर हैं साहिर लुधियानवी। सुनिए इस ख़ूबसूरत ग़ज़ल को और मुझे इजाज़त दीजिए, आपकी और मेरी फिर मुलाक़ात होगी सोमवार सुबह ९:३० बजे 'सिने-पहेली' में, आप सभी को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ, नमस्कार!

गीत - सिमटी हुई ये घड़ियाँ फिर से न बिखर जायें (चम्बल की कसम)

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