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लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में.. मादर-ए-वतन से दूर होने के ज़फ़र के दर्द को हबीब की आवाज़ ने कुछ यूँ उभारा

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०१ पू रे एक महीने की छुट्टी के बाद मैं वापस आ गया हूँ महफ़िल-ए-ग़ज़ल की अगली कड़ी लेकर। यह छुट्टी वैसे तो एक हफ़्ते की हीं होनी थी, लेकिन कुछ ज्यादा हीं लंबी खींच गई। दर-असल मेरे साथ वही हुआ जो इन महाशय के साथ हुआ था जिन्होंने "कल करे सो आज कर" का नवीनीकरण किया है कुछ इस तरह से: आज करे सो कल कर, कल करे सो परसो, इतनी जल्दी क्या है भाई, जीना है अभी बरसों। तो आप समझ गए ना? हर बुधवार को मैं यही सोचता था कि भाई पूरे सौ अंकों के बाद जाकर मुझे आराम करने का यह मौका नसीब हुआ है, तो इसे ज़ाया क्यों गंवाया जाए, चलो आज भी महफ़िल से नदारद हो लेता हूँ। यही सोचते-सोचते ४ हफ़्ते निकल गए। फिर जब इस बार बुधवार नजदीक आया तो विश्राम करने के विचार के साथ-साथ अपराध-बोध भी अपना सर उठाने लगा। अपराधबोध का मंतव्य था कि भाई तुमने तो सभी पाठकों से यह वादा किया था कि एक हफ़्ते में वापस आ जाओगे, फिर ये वादाखिलाफ़ी क्यों? अपराधबोध कम होता, अगर मेरे सामने सुजॉय जी का उदाहरण न होता। एक मैं हूँ जो सप्ताह में एक आलेख लिखता हूँ और अभी तक उन आलेखों की संख्या १०० तक हीं पहुँची है और एक ये हुज़ूर

जिसे अंधी गंदी खाईयों से लाए हम बचा के, उस आजादी को हरगिज़ न मिटने देंगें- ये प्रण लिया वी डी, बिस्वजीत और सुभोजीत ने

Season 3 of new Music, Song # 16 ६३ वर्ष बीत चुके हैं हमें आजाद हुए. मगर अब समय है सचमुच की आजादी का. तन मन और सोच की आजादी का. अभी बहुत से काम बाकी है, क्योंकि जंग अभी भी जारी है. आतंकवाद, नक्सलवाद, भ्रष्टाचार, जाने कितने अन्दुरुनी दुश्मन हैं जो हमारे इस देश की जड़ों को अंदर से खोखला कर रहे हैं. आज समय आ गया है कि हम स्मरण करें उन देशभक्तों की कुर्बानियों का जिनके बदौलत आज हम खुली हवा में सांस ले पा रहे हैं. आज समय है एक बार फिर उस सोयी हुई देशभक्ति को जगाने का जिसके अभाव में हम ईमानदारी, इंसानियत और इन्साफ के कायदों को भूल ही चुके हैं. आज समय है उस राष्ट्रप्रेम में सरोबोर हो जाने का जो त्याग और कुर्बानी मांगती है, जो एक होकर चलने की रवानी मांगती है. कुछ यही सोच यही विचार हम पिरो कर लाये हैं अपने इस नए स्वतंत्रता दिवस विशेष गीत में, जिसे लिखा है विश्व दीपक तन्हा ने, सुरों से सजाया है सुभोजित ने और गाया है बिस्वजीत ने. जी हाँ इस तिकड़ी का कमाल आप बहुत से पिछले गीतों में भी सुन ही चुके है, जाहिर है इस गीत में भी इन तीनों ने जम कर मेहनत की है. तो आईये सुनते है आज का ये ताज़ा अपलोड और इस

कैसे छुपाऊँ राज़-ए-ग़म...आज की महफ़िल में पेश हैं "मौलाना" के लफ़्ज़ और दर्द-ए-"अज़ीज़"

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #३५ पि छली महफ़िल में किए गए एक वादे के कारण शरद जी की पसंद की तीसरी गज़ल लेकर हम हाज़िर न हो सके। आपको याद होगा कि पिछली महफ़िल में हमने दिशा जी की पसंद की गज़लों का ज़िक्र किया था और कहा था कि अगली गज़ल दिशा जी की फ़ेहरिश्त से चुनी हुई होगी। लेकिन शायद समय का यह तकाज़ा न था और कुछ मजबूरियों के कारण हम उन गज़लों/नज़्मों का इंतजाम न कर सके। अब चूँकि हम वादाखिलाफ़ी कर नहीं सकते थे, इसलिए अंततोगत्वा हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि क्यों न आज अपने संग्रहालय में मौजूद एक गज़ल हीं आप सबके सामने पेश कर दी जाए। हमें पूरा यकीन है कि अगली महफ़िल में हम दिशा जी को निराश नहीं करेंगे। और वैसे भी हमारी आज़ की गज़ल सुनकर उनकी नाराज़गी पल में छू हो जाएगी, इसका हमें पूरा विश्वास है। तो चलिए हम रूख करते हैं आज़ की गज़ल की ओर जिसे मेहदी हसन साहब की आवाज़ में हम सबने न जाने कितनी बार सुना है लेकिन आज़ हम जिन फ़नकार की आवाज़ में इसे आप सबके सामने पेश करने जा रहे हैं, उनकी बात हीं कुछ अलग है। आप सबने इनकी मखमली आवाज़ जिसमें दर्द का कुछ ज्यादा हीं पुट है, को फिल्म डैडी के "आईना मुझसे मेरी पह