ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 214 "मु झसे चलता है सर-ए-बज़्म सुखन का जादू, चांद ज़ुल्फ़ों के निकलते हैं मेरे सीने से, मैं दिखाता हूँ ख़यालात के चेहरे सब को, सूरतें आती हैं बाहर मेरे आइने से। हाँ मगर आज मेरे तर्ज़-ए-बयाँ का ये हाल, अजनबी कोई किसी बज़्म-ए-सुखन में जैसे, वो ख़यालों के सनम और वो अलफ़ाज़ के चांद, बेवतन हो गए अपने ही वतन में जैसे। फिर भी क्या कम है, जहाँ रंग ना ख़ुशबू है कोई, तेरे होंठों से महक जाते हैं अफ़कार मेरे, मेरे लफ़ज़ों को जो छू लेती है आवाज़ तेरी, सरहदें तोड़ के उड़ जाते हैं अशार मेरे। तुझको मालूम नहीं या तुझे मालूम भी हो, वो सिया बख़्त जिन्हे ग़म ने सताया बरसों, एक लम्हे को जो सुन लेते हैं तेरा नग़मा, फिर उन्हें रहती है जीने की तमन्ना बरसों। जिस घड़ी डूब के आहंग में तू गाती है, आयतें पढ़ती है साज़ों की सदा तेरे लिए, दम ब दम ख़ैर मनाते हैं तेरी चंग़-ओ-रबाब, सीने नए से निकलती है दुआ तेरे लिए। नग़मा-ओ-साज़ के ज़ेवर से रहे तेरा सिंगार, हो तेरी माँग में तेरी ही सुरों की अफ़शाँ, तेरी तानों से तेरी आँख में रहे काजल की लक़ीर, हाथ में तेरे ही गीतों की हिना हो रखशाँ।" ...