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गम साथ रह गए, मेरा साथी बिछड़ गया- खां साहब का दर्द और महफ़िल-ए-ज़र्द

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१२ आ ज हम जिस हस्ती की बात करने जा रहे हैं,उन्हें गज़ल-गायकी के क्षेत्र में शहंशाह कहा जाता है, गज़ल-प्रेमियों ने उन्हें शहंशाह-ए-गज़ल की उपाधि दी है। यह तो सब को पता होगा कि ८० के दशक तक पाकिस्तान में गज़लों से लबरेज फिल्में बनती थीं। हरेक फिल्म में कम-से-कम ३-४ गज़लों को जरूर स्थान मिलता था। उस दौर में अदाकार भी कम थे तो फ़िल्मों में गाने वाले गुलूकार भी। इसलिए कुछ लोगों का यह मानना हो सकता है कि गज़लों में नयापन और वज़न की कमी रहती होगी। लेकिन जब आप उस दौर के गज़लों को सुनेंगे तो आपकी सारी शंकाएँ पल में छू हो जाएँगी। भले हीं कम फ़नकार थे लेकिन उन फ़नकारों की आवाज़ में जो जादू था, जो दम था, वो अब कम हीं सुनने को मिलता है। यूँ तो हमारी आज की ह्स्ती ने फ़िल्मों में बस १९५६ से लेकर १९८६ तक हीं गाया है, लेकिन उन गज़लों का आज भी कोई सानी नहीं है।उन गज़लों को न जाने कितनी हीं बार अलग-अलग एलबमों में "गोल्डन कलेक्शन" के नाम से रीलिज किया जा चुका है तो न जाने कितने हीं अन्य फ़नकारों ने उनपर अपना गला साफ़ किया है। इससे आप खुद हीं अंदाजा लगा सकते हैं कि वह हस्ती कितनी