मुझे अपने ज़ब्त पे नाज़ था.. इक़बाल अज़ीम के बोल और नय्यारा नूर की आवाज़.. फिर क्यूँकर रंज कि बुरा हुआ
महफ़िल-ए-ग़ज़ल #६९ इं सानी मन प्रशंसा का भूखा होता है। भले हीं उसे लाख ओहदे हासिल हो जाएँ, करोड़ों का खजाना हाथ लग जाए, फिर भी सुकून तब तक हासिल नहीं होता, जब तक कोई अपना उसके काम, उसकी नियत को सराह न दे। ऐसा हीं कुछ आज हमारे साथ हो रहा है। जहाँ तक आप सबको मालूम है कि आज महफ़िल-ए-गज़ल की ६९वीं कड़ी है और यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते हमने दस महिने का सफ़र तय कर लिया है.. इस दौरान बहुत सारे मित्रों ने टिप्पणियों के माध्यम से हमारी हौसला-आफ़ज़ाई की और यही एकमात्र कारण था जिसकी बदौलत हमलोग निरंतर बिना रूके आगे बढते रहे.. फिर भी दिल में यह तमन्ना तो जरूर थी कि कोई सामने से आकर यह कहे कि वाह! क्या कमाल की महफ़िल सजाते हैं आप.. गज़लों को सुनकर और बातों को गुनकर दिल बाग-बाग हो जाता है। यही एक कमी खलती आ रही थी जो दो दिन पहले पूरी हो गई। दिल्ली के प्रगति मैदान नें चल रहे वार्षिक विश्व पुस्तक मेला में लगे "हिन्द-युग्म" के स्टाल पर जब आवाज़ का कार्यक्रम रखा गया तो देश भर से आवाज़ के सहयोगी और प्रशंसक जमा हुए और उस दौरान कई सारे लोगों ने हमसे महफ़िल-ए-गज़ल की बातें कीं और आवाज़ के इस प्रयास क