स्वरगोष्ठी – ९६ में आज
लौकिक और आध्यात्मिक भाव का बोध कराती ठुमरी
‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय...’
लौकिक और आध्यात्मिक भाव का बोध कराती ठुमरी
‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय...’

अवध
के नवाब वाजिद अली शाह संगीत-नृत्य-प्रेमी और कला-संरक्षक के रूप में
विख्यात थे। नवाब १८४७ से १८५६ तक अवध के शासक रहे। उनके शासनकाल में ही
ठुमरी एक शैली के रूप में विकसित हुई थी। उन्हीं के प्रयासों से कथक नृत्य
को एक अलग आयाम मिला और ठुमरी, कथक नृत्य का अभिन्न अंग बनी। नवाब ने
'कैसर' उपनाम से अनेक गद्य और पद्य की रचनाएँ भी की थी। इसके अलावा ‘अख्तर'
उपनाम से दादरा, ख़याल, ग़ज़ल और ठुमरियों की भी रचना की थी। राग खमाज का
सादरा –‘सुध बिसर गई आज अपने गुनन की...’ तथा राग बहार का ख़याल –‘फूलवाले कन्त मैका बसन्त...’
उनकी बहुचर्चित रचनाएँ हैं। उनका राग खमाज का सादरा संगीतकार एस.एन.
त्रिपाठी ने राग हेमन्त में परिवर्तित कर फिल्म ‘संगीत सम्राट तानसेन’
में
प्रयोग किया था। ७ फरवरी, १८५६ को अंग्रेजों ने जब उन्हें सत्ता से बेदखल
किया और बंगाल के मटियाबुर्ज नामक स्थान पर नज़रबन्द कर दिया तब उनका दर्द
ठुमरी भैरवी –‘बाबुल मोरा नैहर छुटो जाए...’ में अभिव्यक्त हुआ।
नवाब वाजिद अली शाह की यह ठुमरी इतनी लोकप्रिय हुई कि तत्कालीन और परवर्ती
शायद ही कोई शास्त्रीय या उपशास्त्रीय गायक हो जिसने इस ठुमरी को न गाया
हो। १९३६ के लखनऊ संगीत सम्मलेन में जब उस्ताद फैयाज़ खाँ ने इस ठुमरी को
गाया तो श्रोताओं की आँखों से आँसू निकल पड़े थे। इसी ठुमरी को पण्डित
भीमसेन जोशी ने अनूठे अन्दाज़ में गाया, तो विदुषी गिरिजा देवी ने बोल-बनाव
से इस ठुमरी का आध्यात्मिक पक्ष उभारा है। फिल्मों में भी इस ठुमरी के कई
संस्करण उपलब्ध हैं। १९३८ में बनी फिल्म 'स्ट्रीट सिंगर' में कुन्दनलाल
सहगल के स्वरों में यह ठुमरी भैरवी सर्वाधिक लोकप्रिय हुई। आज सबसे हम
प्रस्तुत कर रहे है, पण्डित भीमसेन जोशी के स्वरों में यह ठुमरी।

ठुमरी भैरवी : ‘बाबुल मोरा नैहर छुटो जाए...’ : पण्डित भीमसेन जोशी

ठुमरी भैरवी : ‘बाबुल मोरा नैहर छुटो जाए...’ : विदुषी गिरिजा देवी
फिल्म
‘स्ट्रीट सिंगर’ में सहगल द्वारा प्रस्तुत इस ठुमरी को जहाँ अपार
लोकप्रियता मिली, वहीं उन्होने इस गीत में दो बड़ी ग़लतियाँ भी की है। इस
बारे में उदयपुर के ‘राजस्थान साहित्य अकादमी’ की पत्रिका
‘मधुमती’ में श्री कलानाथ शास्त्री का एक लेख प्रकाशित हुआ था, जिसके कुछ अंश हम यहाँ अपने साथी शरद तैलंग के सौजन्य से प्रस्तुत कर रहे
हैं।
“बहुधा कुछ उक्तियाँ, फिकरे या उदाहरण लोककण्ठ में
इस प्रकार समा जाते हैं कि कभी-कभी तो उनका आगा-पीछा ही समझ में नहीं आता,
कभी यह ध्यान में नहीं आता कि वह उदाहरण ही गलत है, कभी उसके अर्थ का अनर्थ
होता रहता है और पीढी-दर-पीढी हम उस भ्रान्ति को ढोते रहते हैं जो लोककण्ठ
में आ बसी है। ‘देहरी भई बिदेस...’ भी ऐसा ही उदाहरण है जो कभी था नहीं,
किन्तु सुप्रसिद्ध गायक कुन्दनलाल सहगल द्वारा गायी गई कालजयी ठुमरी में
भ्रमवश इस प्रकार गा दिये जाने के कारण ऐसा फैला कि इसे गलत बतलाने वाला
पागल समझे जाने के खतरे से शायद ही बच पाये।
पुरानी पीढी
के वयोवृद्ध गायकों को तो शायद मालूम ही होगा कि वाजिद अली शाह की
सुप्रसिद्ध शरीर और आत्मा के प्रतीकों को लेकर लिखी रूपकात्मक ठुमरी ‘बाबुल
मोरा नैहर छूटो जाय...’ सदियों से प्रचलित है जिसके बोल लोककण्ठ में समा
गये हैं– ‘चार कहार मिलि डोलिया उठावै मोरा अपना पराया छूटो जाय...’ आदि।
उसमें यह भी रूपकात्मक उक्ति है– ‘देहरी तो परबत भई, अँगना भयो बिदेस, लै
बाबुल घर आपनो मैं चली पिया के देस...’। जैसे पर्वत उलाँघना दूभर हो जाता
है वैसे ही विदेश में ब्याही बेटी से फिर देहरी नहीं उलाँघी जाएगी, बाबुल
का आँगन बिदेस बन जाएगा। यही सही भी है, बिदेस होना आँगन के साथ ही फबता
है, देहरी के साथ नहीं, वह तो उलाँघी जाती है, परबत उलाँघा नहीं जा सकता,
अतः उसकी उपमा देहरी को दी गई। हुआ यह कि गायक शिरोमणि कुन्दनलाल सहगल किसी
कारणवश बिना स्क्रिप्ट के अपनी धुन में इसे यूँ गा गये ‘अँगना तो पर्वत
भया देहरी भई बिदेस...’ और उनकी गायी यह ठुमरी कालजयी हो गई। सब उसे ही
उद्धृत करेंगे।
बेचारे वाजिद अली शाह को कल्पना भी नहीं हो सकती थी कि
बीसवीं सदी में उसकी उक्ति का पाठान्तर ऐसा चल पड़ेगा कि उसे ही मूल समझ
लिया जाएगा। सहगल साहब तो ‘चार कहार मिल मोरी डोलिया सजावैं...’ भी गा गये
जबकि कहार डोली उठाने के लिए लगाये जाते हैं, सजाती तो सखियाँ हैं। हो गया
होगा यह संयोगवश ही अन्यथा हम तो कालजयी गायक सहगल के
परम- प्रशंसक हैं।”

और अब हम यही ठुमरी प्रस्तुत कर रहे
सुविख्यात युगल गायक बन्धु पण्डित राजन और साजन मिश्र के स्वरों में। मिश्र
बन्धुओं ने इस ठुमरी के आध्यात्मिक पक्ष को बड़े ही प्रभावी ढंग से
अभिव्यक्त किया है।
ठुमरी भैरवी : ‘बाबुल मोरा नैहर छुटो जाए...’ : पण्डित राजन और साजन मिश्र

ठुमरी भैरवी : ‘बाबुल मोरा नैहर छुटो जाए...’ : फिल्म – स्ट्रीट सिंगर : कुन्दनलाल सहगल
आज की पहेली
आज की संगीत पहेली में हम आपको एक पूरब अंग की सुविख्यात गायिका के स्वर
में एक पारम्परिक ठुमरी का अंश सुनवा रहे हैं। इसे सुन कर आपको दो प्रश्नों
के उत्तर देने हैं। पहेली के सौवें अंक तक जिस प्रतिभागी के सर्वाधिक अंक
होंगे, उन्हें इस श्रृंखला का विजेता घोषित किया जाएगा।
१- यह ठुमरी किस राग में निबद्ध है?
२- इस ठुमरी का प्रयोग सातवें दशक की एक फिल्म में किया गया था। क्या आप उस फिल्म का नाम हमें बता सकते हैं?
१- यह ठुमरी किस राग में निबद्ध है?
२- इस ठुमरी का प्रयोग सातवें दशक की एक फिल्म में किया गया था। क्या आप उस फिल्म का नाम हमें बता सकते हैं?
आप अपने उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com पर ही शनिवार मध्यरात्रि तक भेजें। comments
में दिये गए उत्तर मान्य नहीं होंगे। विजेता का नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के
९८वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रस्तुत गीत-संगीत, राग अथवा
कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच
बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ
के नीचे दिये गए comments के माध्यम से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं। हमसे सीधे सम्पर्क के लिए swargoshthi@gmail.com अथवा radioplaybackindia@live.com पर अपना सन्देश भेज सकते हैं।
पिछली पहेली के विजेता
‘स्वरगोष्ठी’
के ९४वें अंक की पहेली में हमने आपको विदुषी गिरिजा देवी के स्वरों में
भैरवी की पारम्परिक ठुमरी ‘बाजूबन्द खुल खुल जाए...’ का एक अंश सुनवा कर
आपसे दो प्रश्न पूछे थे। पहले प्रश्न का सही उत्तर है- राग ‘भैरवी’ और
दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है- गायिका गिरिजा देवी। दोनों प्रश्नों के सही
उत्तर जबलपुर से क्षिति तिवारी और जौनपुर, उत्तर प्रदेश से डॉ. पी.के.
त्रिपाठी ने दिया है। लखनऊ से प्रकाश गोविन्द ने दूसरे प्रश्न के उत्तर में
गायिक को सही नहीं पहचाना, उन्हें इस बार एक अंक से ही सन्तोष करना होगा।
तीनों प्रतिभागियों को रेडियो प्लेबैक इण्डिया की ओर से हार्दिक बधाई।
झरोखा अगले अंक का
मित्रों, ‘स्वरगोष्ठी’ के अगले अंक में हम आपको एक और पारम्परिक ठुमरी और
उसके फिल्मी गीत के रूप में प्रयोग की चर्चा करेंगे। आपकी स्मृतियों में
यदि किसी मूर्धन्य कलासाधक की ऐसी कोई पारम्परिक ठुमरी या दादरा रचना हो
जिसे किसी भारतीय फिल्म में भी शामिल किया गया हो तो हमें अवश्य लिखें।
आपके सुझाव और सहयोग से इस स्तम्भ को अधिक सुरुचिपूर्ण रूप दे सकते हैं।
अगले रविवार को प्रातः ९:३० बजे हम और आप इसी मंच पर पुनः मिलंगे। आप
अवश्य पधारिएगा।
कृष्णमोहन मिश्र