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सुर संगम में आज- सुर संगम की पचास अंकों की यात्रा

सुर संगम- 50 : यादें ‘सुर संगम’ के सभी पाठकों/श्रोताओं का इस स्वर्ण जयन्ती अंक में हार्दिक स्वागत है। दोस्तों, २ जनवरी २०११ को हमने शास्त्रीय और लोक संगीत से अनुराग रखने वाले रसिकों के लिए इस श्रृंखला का शुभारम्भ किया था। हमारे दल के सर्वाधिक कर्मठ साथी सुजोय चटर्जी ने इस स्तम्भ की नीव रखी थी। उद्देश्य था- शास्त्रीय और उपशास्त्रीय संगीत-प्रेमियों को एक ऐसा मंच देना जहाँ किसी कलासाधक अथवा किसी संगीत-विधा पर हम आपसे संवाद कायम कर सकें और आपसे विचारों का आदान-प्रदान कर सकें। आज के इस स्वर्ण जयन्ती अंक के माध्यम से हम पिछले एक वर्ष के अंकों का स्वतः मूल्यांकन करेंगे और आपकी सहभागिता का उल्लेख भी करेंगे।

सुर संगम में आज- संगीत के सौ रंग बिखेरती पण्डित रामनारायण की सारंगी

गज-तंत्र वाद्यों में वर्तमान भारतीय वाद्य सारंगी, सर्वाधिक प्राचीन है। शास्त्रीय मंचों पर प्रचलित सारंगी, विविध रूपों और विविध नामों से लोक संगीत से भी जुड़ी है। प्राचीन ग्रन्थों में यह उल्लेख मिलता है कि लंका के राजा रावण का यह सर्वप्रिय वाद्य था। ऐसी मान्यता है कि रावण ने ही इस वाद्य का आविष्कार किया था। इसी कारण इसका एक प्राचीन नाम ‘रावण हत्था’ का उल्लेख भी मिलता है। आज के अंक में हम सारंगी और इस वाद्य के अप्रतिम वादक पण्डित रामनारायण के व्यक्तित्व और कृतित्व पर चर्चा करेंगे।

स्वर-सम्राट उस्ताद अब्दुल करीम खाँ : जिनका कुत्ता भी सुरीला था

उस्ताद अब्दुल करीम खाँ सम्पूर्ण भारतीय संगीत का प्रतिनिधित्व करते थे। वे उत्तर और दक्षिण भारतीय संगीत के बीच एक सेतु थे। दक्षिण के कर्नाटक संगीत के कई रागों को उत्तर भारतीय संगीत में शामिल किया और सरगम के विशिष्ट अन्दाज को उत्तर भारत में प्रचलित किया। उनकी कल्पना विस्तृत और अनूठी थी, जिसके बल पर उन्होने भारतीय संगीत को एक नया आयाम और क्षितिज प्रदान किया।

बाँस की बाँसुरी और सुरों का रंग : पण्डित रघुनाथ सेठ के संग

आज बाँसुरी शास्त्रीय संगीत के मंच पर स्वतन्त्र वाद्य, संगति वाद्य, सुगम और लोक-संगीत का मधुर और लोकप्रिय वाद्य बन चुका है। सामान्य तौर पर देखने में बाँस की, खोखली, बेलनाकार आकृति होती है, किन्तु इस सुषिर वाद्य की वादन तकनीक सरल नहीं है। बाँसुरी का अस्तित्व महाभारतकाल से पूर्व कृष्ण से जुड़े प्रसंगों में उपलब्ध है। शास्त्रीय वाद्य के रूप में इसे उत्तर भारत के साथ दक्षिण भारत के संगीत में समान रूप से लोकप्रियता प्राप्त है। पण्डित रघुनाथ सेठ की छवि वर्तमान बाँसुरी वादकों में प्रयोगशील वादक के रूप में लोकप्रिय है। आज के अंक में हम पण्डित रघुनाथ सेठ की बाँसुरी पर चर्चा करेंगे।

‘झगड़े नउवा मूँडन की बेरिया...’ समाज के हर वर्ग का सम्मान है, संस्कार गीतों में

आज की कड़ी में बालक के मुंडन संस्कार पर ही हम केन्द्रित रहेंगे। पिछले दो अंकों में हमने जातकर्म अर्थात जन्म संस्कार तक की चर्चा की थी। जन्म और मुंडन के बीच नामकरण, निष्क्रमण और अन्नप्राशन संस्कार होते हैं। इन तीनों संस्कारों के अवसर पर क्रमशः शिशु को एक नया नाम देने, पहली बार शिशु को घर के बाहर ले जाने और छः मास का हो जाने पर शिशु को ठोस आहार देने के प्रसंग उत्सव के रूप में मनाए जाते हैं। मुंडन संस्कार अत्यन्त हर्षपूर्ण वातावरण में मनाया जाता है। बालक के तीन या पाँच वर्ष की आयु में उसके गर्भ के बालों का मुंडन कर दिया जाता है। इससे पूर्व बालक के बालों को काटना निषेध होता है। इस अवसर को चूड़ाकर्म संस्कार भी कहा जाता है।

‘ए हो जन्मी है बिटिया हमार...’ कन्या-जन्म पर पारम्परिक सोहर का अभाव है

सुर संगम- 46 – संस्कार गीतों में अन्तरंग पारिवारिक सम्बन्धों की सोंधी सुगन्ध संस्कार गीतों की नयी श्रृंखला - दूसरा भाग ‘सुर संगम’ के एक नये अंक में, मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब लोक-संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। पिछले अंक से हमने संस्कार गीतों की श्रृंखला आरम्भ की है। प्राचीन भारतीय परम्परा के अनुसार सम्पूर्ण मानव जीवन को १६ संस्कारों में बाँटा गया है। इन विशेष अवसरों पर विशेष लोक-धुनों में गीतों को गाने की परम्परा है। हमने पिछले अंक में जातकर्म संस्कार, अर्थात पुत्र-जन्म के मांगलिक अवसर पर गाये जाने ‘सोहर’ गीतों की चर्चा की थी। आज के अंक में हम उसी चर्चा को आगे बढ़ाते हैं। लोकगीतों में छन्द से अधिक भाव और रस का महत्त्व होता है। प्रत्येक अवसरों के लिए प्रकृतिक रूप से उपजी धुने शताब्दियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रहीं हैं। लोक-गीतकार इन धुनों में अपने बोली के शब्दों को समायोजित करके गाने लगता है। इन गीतों में सामाजिक और पारिवारिक सम्बन्धों की बात होती है, इसी प्रकार सोहर गीतों में सास-बहू, ननद-भाभी और देवर-भाभी के नोक-झोक के रोचक प्रसंग होते हैं। उल्लास और संवेदनशीलता का भाव

‘सिया रानी के जाये दुई ललनवा, विपिन कुटिया में...’ सोहर से होता है नवागन्तुक का स्वागत

सुर संगम- 44 – संस्कार गीतों में अन्तरंग पारिवारिक सम्बन्धों की सोंधी सुगन्ध संस्कार गीतों की नयी श्रृंखला - पहला भाग ‘सुर संगम’ स्तम्भ के एक नये अंक के साथ मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः उपस्थित हूँ। पिछले अंकों में आपने शास्त्रीय गायन और वादन की प्रस्तुतियों का रसास्वादन किया था, आज बारी है, लोक संगीत की। आज के अंक से हम आरम्भ कर रहे हैं, लोकगीतों के अन्तर्गत आने वाले संस्कार गीतों का सिलसिला। किसी देश के लोकगीत उस देश के जनमानस के हृदय की अभिव्यक्ति होते हैं। वे उनकी हार्दिक भावनाओं के सच्चे प्रतीक हैं। प्रकृतिक परिवेश में रहने वाला मानव अपने आसपास के वातावरण और संवेदनाओं से जुड़ता है तो नैसर्गिक रूप से उनकी अभिव्यक्ति के लिए एकमात्र साधन है, लोकगीत अथवा ग्राम्यगीत। भारतीय उपमहाद्वीप के निवासियों का जीवन आदिकाल से ही संगीतमय रहा है। वैदिक ऋचाओं को भी तीन स्वरों में गान की प्राचीन परम्परा चली आ रही है। भारतीय परम्परा के अनुसार प्रचलित लोकगीतों को हम चार वर्गों में बाँटते हैं। प्रत्येक उत्सव, पर्व और त्योहारों पर गाये जाने वाले गीतों को हम ‘मंगल गीत’ की श्रेणी में, तथा घरेलू और कृषि

सुर संगम में आज - एन. राजम् के वायलिन-तंत्र बजते नहीं, गाते हैं...

सुर संगम- 43 – संगीत विदुषी डॉ. एन. राजम् की संगीत-साधना सुर संगम के इस सुरीले सफर में, मैं कृष्णमोहन मिश्र, आज एक बेहद सुरीले गज-तंत्र वाद्य वायलिन और इस वाद्य की स्वर-साधिका डॉ. एन. राजम् के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आपसे चर्चा करने जा रहा हूँ। डॉ. राजम् वायलिन जैसे पाश्चात्य वाद्य पर उत्तर भारतीय संगीत पद्यति को गायकी अंग में वादन करने वाली प्रथम महिला स्वर-साधिका हैं। उनकी वायलिन पर अब तक जो कुछ भी बजाया गया है, उसका प्रारम्भ स्वयं उन्हीं से हुआ है। गायकी अंग में वायलिन-वादन उनकी विशेषता भी है और उनका अविष्कार भी। डॉ. राजम् के पिता नारायण अय्यर कर्नाटक संगीत पद्यति के सुप्रसिद्ध वायलिन वादक और गुरु थे। वायलिन की प्रारम्भिक शिक्षा उन्हें अपने पिता से ही प्राप्त हुई। बाद में सुविख्यात संगीतज्ञ पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर से उन्हें उत्तर भारतीय संगीत पद्यति में शिक्षा मिली। इस प्रकार शीघ्र ही उन्हें संगीत की दोनों पद्यतियों में कुशलता प्राप्त हुई। पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर अपने प्रदर्शन-कार्यक्रमों में एन. राजम् को वायलिन संगति के लिए बैठाया करते थे। संगति के दौरान उनका यही प्रयास होता था कि उनक

मौसिकी अर्श के आफताब : उस्ताद फ़ैयाज़ खाँ

सुर संगम- 42 – उन्हे मैसूर दरबार से “आफताब-ए-मौसिकी” (संगीत के सूर्य) की उपाधि से नवाजा गया भारतीय संगीत के प्रचलित घरानों में जब भी आगरा घराने की चर्चा होगी तत्काल एक नाम जो हमारे सामने आता है, वह है- आफताब-ए-मौसिकी उस्ताद फ़ैयाज़ खाँ। ‘सुर संगम’ के आज के अंक में हम इन्हीं महान गायक कलासाधक को श्रद्धा-सुमन अर्पित करेंगे। पिछली शताब्दी के पूर्वार्द्ध के जिन संगीतज्ञों की गणना हम शिखर-पुरुष के रूप में करते हैं उस्ताद फ़ैयाज़ खान उन्ही में से एक थे। ध्रुवपद-धमार, खयाल-तराना, ठुमरी-दादरा, सभी शैलियों की गायकी पर उन्हें कुशलता प्राप्त थी। प्रकृति ने उन्हें घन, मन्द्र और गम्भीर कण्ठ का उपहार तो दिया ही था, उनके शहद से मधुर स्वर श्रोताओं पर रस-वर्षा कर देते थे। फ़ैयाज़ खाँ का जन्म ‘आगरा रँगीले घराना’ के नाम से विख्यात ध्रुवपद गायकों के परिवार में हुआ था। दुर्भाग्य से फ़ैयाज़ खाँ के जन्म से लगभग तीन मास पूर्व ही उनके पिता सफदर हुसैन खाँ का इन्तकाल हो गया। जन्म से ही पितृ-विहीन बालक को उनके नाना ग़ुलाम अब्बास खाँ ने अपना दत्तक पुत्र बनाया और पालन-पोषण के साथ-साथ संगीत-शिक्षा की व्यवस्था भी की।

नज़रे करम फरमाओ...जगजीत सिंह के बेमिसाल मगर कमचर्चित शास्त्रीय गायन की एक झलक

सुर संगम- 41 – गायक जगजीत सिंह की संगीत-साधना को नमन ‘ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी गीत-संगीत प्रेमियों का, मैं कृष्णमोहन मिश्र आज ‘सुर संगम’ के नए अंक में स्वागत करता हूँ। पिछले दिनों १० अक्तूबर को विख्यात गीत, ग़ज़ल, भजन और लोक संगीत के गायक और साधक जगजीत सिंह के मखमली स्वर मौन हो गए। सुगम संगीत के इन सभी क्षेत्रों में जगजीत सिंह न केवल भारतीय उपमहाद्वीप में बल्कि पूरे विश्व में लोकप्रिय थे। ‘सुर संगम’ के आज के अंक में हम भारतीय संगीत में उनके प्रयोगधर्मी कार्यों पर चर्चा करेंगे। जगजीत सिंह का जन्म ८ फरवरी, १९४१ को राजस्थान के गंगानगर में हुआ था। पिता सरदार अमर सिंह धमानी सरकारी कर्मचारी थे। जगजीत सिंह का परिवार मूलतः पंजाब के रोपड़ ज़िले के दल्ला गाँव का रहने वाला है। उनकी प्रारम्म्भिक शिक्षा गंगानगर के खालसा स्कूल में हुई और बाद में माध्यमिक शिक्षा के लिए जालन्धर आ गए। डी.ए.वी. कॉलेज से स्नातक की और इसके बाद कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय से इतिहास में स्नातकोत्तर की शिक्षा प्राप्त की। जगजीत सिंह को बचपन मे अपने पिता से संगीत विरासत में मिला था। गंगानगर मे ही पण्डित छगनलाल शर्मा से दो साल

‘जिनके दुश्मन सुख मा सोवें उनके जीवन को धिक्कार...’ वीर रस की लोक-काव्य-धारा : आल्हा

सुर संगम- 40 – आल्हा-ऊदल चरित्रों की ऐतिहासिकता ( पहला भाग ) सुर संगम’ के गत सप्ताह के अंक में हमने बुन्देलखण्ड की वीर-भूमि में उपजी और और समूचे उत्तर भारत में लोकप्रिय लोक-गायन शैली ‘आल्हा’ पर चर्चा आरम्भ की थी। आज के अंक में हम इस लोकगाथा के दो वीर चरित्रों- आल्हा और ऊदल की ऐतिहासिकता पर चर्चा करेंगे। बारहवीं शताब्दी में उपजी लोक संगीत की यह विधा अनेक शताब्दियों तक श्रुति परम्परा के रूप जीवित रही। परिमाल राजा के भाट जगनिक ने इस लोकगाथा को गाया और संरक्षित किया। आल्हा और ऊदल की ऐतिहासिकता के विषय में पिछले दिनों हमने बुन्देलखण्ड की लोक-कलाओं और लोक-साहित्य के शोधकर्त्ता, उरई निवासी श्री अयोध्याप्रसाद गुप्त ‘कुमुद’ से चर्चा की थी। बारहवीं शताब्दी के इतिहास में आल्हा और ऊदल का उल्लेख उस रूप में नहीं मिलता, जिस रूप में ‘आल्ह खण्ड’ में किया गया है, इस प्रश्न पर श्री कुमुद का कहना है कि इतिहास केवल राजाओं को महत्त्व देता है, सामान्य सैनिकों को नहीं,चाहे वे कितने भी वीर क्यों न हों। गायक जगनिक ने पहली बार सेना के सामान्य सरदारों और सैनिकों को अपनी गाथा में शामिल कर उनका यशोगान किया। उसने

‘जा दिन जनम लियो आल्हा ने, धरती धँसी अढ़ाई हाथ.....’ बुन्देलखण्ड की लोकप्रिय लोक-गायकी शैली

सुर संगम- 39 – वीर रस का संचार करती लोक-काव्य की अजस्र धारा- आल्हा पर एक चर्चा शास्त्रीय तथा लोक संगीत के साप्ताहिक स्तम्भ ‘सुर संगम’ के आज एक नए अंक में, मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। आज हम उत्तर भारत में प्रचलित लोक गीत-संगीत की एक ऐसी विधा पर आपसे चर्चा करेंगे, जो श्रोताओं में वीर रस का संचार करने में सक्षम है। लोक संगीत की यह शैली ‘आल्हा’ के नाम से लोकप्रिय है। आल्हा, वीरगाथा काल के महाकवि जगनिक द्वारा प्रणीत और परमाल रासो पर आधारित बुन्देली और अवधी का एक महत्त्वपूर्ण छन्दबद्ध काव्य है। इस काव्य का प्रणयन लगभग सन १२५० में माना जाता है। इसमें महोबा के वीर आल्हा और ऊदल के वीरता की गाथा होती है। यह उत्तर प्रदेश के अवध और मध्य प्रदेश के बुन्देलखण्ड की सर्वाधिक लोकप्रिय वीर-गाथा है। पावस ऋतु के अन्तिम चरण से लेकर पूरे शरद ऋतु तक समूहिक रूप से अथवा व्यक्तिगत स्तर पर इन दोनों प्रदेशों में आल्हा-गायन होता है। आल्हा के अनेक संस्करण उपलब्ध हैं, जिनमें कहीं ५२ तो कहीं ५६ लड़ाइयाँ वर्णित हैं। इस लोकमहाकाव्य की गायकी की अनेक पद्धतियाँ प्रचलित हैं। जगनिक क

सुर संगम में आज - सरोद के पर्याय हैं- उस्ताद अमजद अली खाँ

सुर संगम- 38 – उस्ताद अमजद अली खान साहब को जन्मदिवस (9 अक्तूबर) की हार्दिक शुभकामनाएँ आज ‘सुर संगम’ के इस नये अंक में, आप सब संगीत-रसिकों का, कृष्णमोहन मिश्र की ओर से हार्दिक स्वागत है। आज देश के जाने-माने संगीतज्ञ और सरोद-वादक उस्ताद अमजद अली खाँ का जन्मदिन है। इस अवसर पर हम 'सुर-संगम' परिवार और देश-विदेश के करोड़ों संगीत-प्रेमियों की ओर से उस्ताद का हार्दिक अभिनन्दन करते हैं। वर्तमान में उस्ताद अमजद अली खाँ सरोद-वादकों में शिखर पर हैं और ‘सरोद-सम्राट’ की उपाधि से विभूषित हैं। ९ अक्तूबर, १९४५ को ग्वालियर में संगीत के सेनिया बंगश घराने की छठी पीढ़ी में जन्म लेने वाले अमजद अली खाँ को संगीत विरासत में प्राप्त हुआ था। इनके पिता उस्ताद हाफ़िज़ अली खाँ ग्वालियर राज-दरबार में प्रतिष्ठित संगीतज्ञ थे। इस घराने के संगीतज्ञों ने ही ईरान के लोकवाद्य ‘रबाब’ को भारतीय संगीत के अनुकूल परिवर्द्धित कर ‘सरोद’ नामकरण किया। अमजद अली अपने पिता हाफ़िज़ अली के सबसे छोटे पुत्र हैं। उस्ताद हाफ़िज़ अली खाँ ने परिवार के सबसे छोटे और सर्वप्रिय सन्तान को बहुत छोटी उम्र में ही संगीत-शिक्षा देना आरम्भ कर दि

सुर संगम में आज - इसराज की मोहक ध्वनि और पण्डित श्रीकुमार मिश्र

सुर संगम- 37 – सितार और सारंगी, दोनों के गुण हैं इन वाद्यों में (दूसरा भाग) पढ़ें पहला भाग रा ग-रस-रंग की सुरीली महफिल ‘सुर संगम’ के एक और नये अंक में कृष्णमोहन मिश्र की ओर से आपका हार्दिक स्वागत है। गत सप्ताह हमने एक ऐसे लुप्तप्राय तंत्रवाद्य 'मयूरी वीणा' पर चर्चा आरम्भ की थी, जिसका चलन लगभग एक शताब्दी पूर्व समाप्त हो चुका था, किन्तु भारतीय संगीत के क्षेत्र में समय-समय पर ऐसे भी संगीतकार हुए हैं, जिन्होने लुप्तप्राय वाद्यों और संगीत-शैलियों का पुनरोद्धार किया है। जाने-माने इसराज-वादक पण्डित श्रीकुमार मिश्र एक ऐसे ही कलासाधक हैं, जिन्होने विभिन्न संगीत-ग्रन्थों का अध्ययन कर लगभग लुप्त हो चुके तंत्रवाद्य 'मयूरी वीणा' का नव-निर्माण किया। पिछले अंक में हमने पंजाब में इस वाद्य के विकास पर आपसे चर्चा की थी। आज के अंक में हम बंगाल में वाद्य के विकास की पंडित श्रीकुमार मिश्र द्वारा दी गई जानकारी आपसे बाँटेंगे। बंगाल के विष्णुपुर घराने के रामकेशव भट्टाचार्य सुप्रसिद्ध ताऊस अर्थात मयूरी वीणा वादक थे। उन्होने भी इस वाद्य को संक्षिप्त रूप देने के लिए इसकी कुण्डी से मोर की आकृति

मयूरी वीणा के उद्धारक और वादक पण्डित श्रीकुमार मिश्र

सुर संगम- 36 – दो तंत्रवाद्यों का समागम है, मयूरी वीणा, दिलरुबा अथवा इसराज में (पहला भाग) सु र संगम के एक नये अंक में आप सब संगीतनुरागियों का, मैं कृष्णमोहन मिश्र हार्दिक स्वागत करता हूँ। आज के अंक में हम आपसे एक ऐसे पारम्परिक तंत्रवाद्य पर चर्चा करेंगे, जिसमें दो वाद्यों के गुण उपस्थित होते हैं। वैदिक काल से ही तंत्रवाद्य के अनेक प्रकार प्रचलन में रहे हैं। प्राचीन काल में गज (Bow) से बजने वाले तंत्रवाद्यों में ‘पिनाकी वीणा’, ‘निःशंक वीणा’, ‘रावणहस्त वीणा’ आदि प्रमुख रूप से प्रचलित थे। आधुनिक समय में इन्हीं वाद्यों का विकसित और परिमार्जित रूप ‘सारंगी’ और ‘वायलिन’ सर्वाधिक लोकप्रिय है। तंत्रवाद्य का एक दूसरा प्रकार है, जिसे गज (Bow) के बजाय तारों पर आघात (Stroke) कर स्वरों की उत्पत्ति की जाती है। प्राचीन काल में इस श्रेणी में ‘रुद्र वीणा’, ‘सरस्वती वीणा’, ‘शततंत्री वीणा’ आदि प्रचलित थे, तो आधुनिक काल में ‘सितार’, ‘सरोद’, ‘संतूर’ आदि आज लोकप्रिय हैं। इन दोनों प्रकार के प्राचीन वाद्यों की अपनी अलग-अलग विशेषताएँ हैं। प्राचीन गजवाद्यों में नाद पक्ष का गाम्भीर्य उपस्थित रहता है, जबकि आघात स

'गीतांजलि' ने मानव मन में एक स्निग्ध, स्नेहिल स्पर्श दिया - माधवी बंद्योपाध्याय

सुर संगम - 35 -रवीन्द्रनाथ ठाकुर की सार्द्धशती वर्ष-२०११ पर श्रद्धांजलि (तीसरा भाग) बांग्ला और हिन्दी साहित्य की विदुषी श्रीमती माधवी बंद्योपाध्याय से कृष्णमोहन मिश्र की रवीन्द्र साहित्य और उसके हिन्दी अनुवाद विषयक चर्चा पहले पढ़ें पहला भाग दूसरा भाग स भी संगीत-प्रेमियों का ‘सुर संगम’ के आज के अंक में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। आपको स्मरण ही है कि इन दिनों हम कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर के १५०वें जयन्ती वर्ष में रवीन्द्र-साहित्य की विदुषी माधवी बंद्योपाध्याय से बातचीत कर रहे हैं। माधवी जी ने रवीद्रनाथ के अनेक गद्य और पद्य साहित्य का हिन्दी अनुवाद किया है। यह सभी अनुवाद सदा साहित्य जगत में चर्चित रहे। इस वर्ष रवीन्द्रनाथ ठाकुर के सार्द्धशती वर्ष में माधवी जी द्वारा अनूदित रवीन्द्रनाथ ठाकुर की लोकप्रिय कहानियों के संग्रह का प्रकाशन उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा किया गया है। गद्य साहित्य से अधिक महत्त्वपूर्ण है रवीन्द्रनाथ के गीतों का हिन्दी अनुवाद। माधवी जी द्वारा किये गीतों का अनुवाद केवल शाब्दिक ही नहीं है बल्कि स्वरलिपि के अनुकूल भी है। इस श्रृंखला

उपन्यास में वास्तविक जीवन की प्रतिष्ठा हुई रविन्द्र युग में - माधवी बंधोपाध्याय

सुर संगम - 34 -रवीन्द्रनाथ ठाकुर की सार्द्धशती वर्ष-२०११ पर श्रद्धांजलि (दूसरा भाग) बांग्ला और हिन्दी साहित्य की विदुषी श्रीमती माधवी बंद्योपाध्याय से कृष्णमोहन मिश्र की रवीन्द्र साहित्य और उसके हिन्दी अनुवाद विषयक चर्चा पहला भाग पढ़ें ‘सु र संगम’ के आज के अंक में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। दोस्तों, गत सप्ताह के अंक में हमने आपको बांग्ला और हिन्दी साहित्य की विदुषी श्रीमती माधवी बंद्योपाध्याय से रवीन्द्र-साहित्य पर बातचीत की शुरुआत की थी। पिछले अंक में माधवी जी ने रवीन्द्र-साहित्य के विराट स्वरूप का परिचय देते हुए रवीन्द्र-संगीत की विविधता के बारे में चर्चा की थी। आज हम उससे आगे बातचीत का सिलसिला आरम्भ करते हैं। कृष्णमोहन- माधवी दीदी, नमस्कार और एक बार फिर स्वागत है,"सुर संगम" के मंच पर। पिछले अंक में आपने रवीन्द्र संगीत पर चर्चा आरम्भ की थी और प्रकृतिपरक गीतों की विशेषताओं के बारे में हमें बताया। आज हम आपसे रवीन्द्र संगीत की अन्य विशेषताओं के बारे में जानना चाहते हैं। माधवी दीदी- सभी पाठकों को नमस्कार करती हुई आज मैं विश्वकवि रवीन