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"आज फिर जीने की तमन्ना है..." - क्यों शुरू-शुरू में पसन्द नहीं आया था देव आनन्द को यह गीत

एक गीत सौ कहानियाँ - 72   'आज फिर जीने की तमन्ना है...'     रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार। दोस्तों, हम रोज़ाना रेडियो पर, टीवी पर, कम्प्यूटर पर, और न जाने कहाँ-कहाँ, जाने कितने ही गीत सुनते हैं, और गुनगुनाते हैं। ये फ़िल्मी नग़में हमारे साथी हैं सुख-दुख के, त्योहारों के, शादी और अन्य अवसरों के, जो हमारे जीवन से कुछ ऐसे जुड़े हैं कि इनके बिना हमारी ज़िन्दगी बड़ी ही सूनी और बेरंग होती। पर ऐसे कितने गीत होंगे जिनके बनने की कहानियों से, उनसे जुड़े दिलचस्प क़िस्सों से आप अवगत होंगे? बहुत कम, है न? कुछ जाने-पहचाने, और कुछ कमसुने फ़िल्मी गीतों की रचना प्रक्रिया, उनसे जुड़ी दिलचस्प बातें, और कभी-कभी तो आश्चर्य में डाल देने वाले तथ्यों की जानकारियों को समेटता है 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' का यह स्तम्भ 'एक गीत सौ कहानियाँ'।  इसकी 72-वीं कड़ी में आज जानिए 1964 की फ़िल्म ’गाइड’ के गीत "आज फिर जीने की तमन्ना है..." के बारे में जिसे लता मंगेशकर न

तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी - 06 - जैकी श्रॉफ़

तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी - 06   जैकी श्रॉफ़  इस तरह जयकिशन काकुभाई श्रॉफ़ बन गए जैकी श्रॉफ़ ’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के सभी दोस्तों को सुजॉय चटर्जी का सप्रेम नमस्कार। दोस्तों, किसी ने सच ही कहा है कि यह ज़िन्दगी एक पहेली है जिसे समझ पाना नामुमकिन है। कब किसकी ज़िन्दगी में क्या घट जाए कोई नहीं कह सकता। लेकिन कभी-कभी कुछ लोगों के जीवन में ऐसी दुर्घटना घट जाती है या कोई ऐसी विपदा आन पड़ती है कि एक पल के लिए ऐसा लगता है कि जैसे सब कुछ ख़त्म हो गया। पर निरन्तर चलते रहना ही जीवन-धर्म का निचोड़ है। और जिसने इस बात को समझ लिया, उसी ने ज़िन्दगी का सही अर्थ समझा, और उसी के लिए ज़िन्दगी ख़ुद कहती है कि 'तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी'। इसी शीर्षक के अन्तर्गत इस नई श्रृंखला में हम ज़िक्र करेंगे उन फ़नकारों का जिन्होंने ज़िन्दगी के क्रूर प्रहारों को झेलते हुए जीवन में सफलता प्राप्त किये हैं, और हर किसी के लिए मिसाल बन गए हैं। आज का यह अंक केन्द्रित है फ़िल्म जगत के जाने माने अभिनेता जैकी श्रॉफ़ पर।    ज यकिशन काकुभाई श्रॉफ़ का जन्म मुंबई के तीन बत्ती इला

"क़िस्मत ने हमें रोने के लिए दुनिया में अकेला छोड़ दिया...", क्यों आँखें भर आईं सुरैया की इस गीत को फ़िल्माते हुए?

एक गीत सौ कहानियाँ - 43   ‘क़िस्मत ने हमें रोने के लिए दुनिया में अकेला छोड़ दिया... ’ 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार। दोस्तों, हम रोज़ाना रेडियो पर, टीवी पर, कम्प्यूटर पर, और न जाने कहाँ-कहाँ, जाने कितने ही गीत सुनते हैं, और गुनगुनाते हैं। ये फ़िल्मी नग़में हमारे साथी हैं सुख-दुख के, त्योहारों के, शादी और अन्य अवसरों के, जो हमारे जीवन से कुछ ऐसे जुड़े हैं कि इनके बिना हमारी ज़िन्दगी बड़ी ही सूनी और बेरंग होती। पर ऐसे कितने गीत होंगे जिनके बनने की कहानियों से, उनसे जुड़ी दिलचस्प क़िस्सों से आप अवगत होंगे? बहुत कम, है न? कुछ जाने-पहचाने, और कुछ कमसुने फ़िल्मी गीतों की रचना प्रक्रिया, उनसे जुड़ी दिलचस्प बातें, और कभी-कभी तो आश्चर्य में डाल देने वाले तथ्यों की जानकारियों को समेटता है 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' का यह स्तम्भ 'एक गीत सौ कहानियाँ'।  इसकी 43-वीं कड़ी में आज जानिये फ़िल्म 'मोतीमहल' के गीत "क़िस्मत ने हमें रोने के लिये दुनिया में अकेला छोड़ दिया" के बारे में।

क़दम के निशां बनाते चले...सचिन दा के सुरों में देव आनंद

यह सच है कि कई अन्य संगीतकारों नें भी देव आनन्द के साथ काम किया जैसे कि शंकर जयकिशन, सलिल चौधरी, मदन मोहन, कल्याणजी-आनन्दजी,राहुल देव बर्मन, बप्पी लाहिड़ी और राजेश रोशन, लेकिन सचिन दा के साथ जिन जिन फ़िल्मों में उन्होंने काम किया, उनके गीत कुछ अलग ही बने। आज न बर्मन दादा हमारे बीच हैं और अब देव साहब भी बहुत दूर निकल गए, पर इन दोनों नें साथ-साथ जो क़दमों के निशां छोड़ गए हैं, वो आनेवाली तमाम पीढ़ियों के लिए किसी पाठशाला से कम नहीं।

जाएँ तो जाएँ कहाँ....तलत की आवाज़ में उठे दर्द के साथी बने साहिर और बर्मन दा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 245 १९५४ की फ़िल्म 'आर पार' की कहानी टैक्सी ड्राइवर कालू (देव आनंद) की थी। फ़िल्म में दो नायिकाएँ हैं, जिनमें से एक के पिता अंडरवर्ल्ड से जुड़ा हुआ है और वो चाहता है कि कालू भी उसके साथ मिल जाए ताकि वो जल्दी अमीर बन जाए। कालू भी ख़ुद अपने पैरों पर खड़ा होना चाहता है, लेकिन सही रास्तों पर चलकर या ग़लत राह पकड़कर? यही थी 'आर पार' की मूल कहनी। गुरु दत्त साहब ने अपनी प्रतिभा से इस साधारण कहानी को एक असाधारण फ़िल्म में परिवर्तित कर चारों ओर धूम मचा दी। और इसी कामयाबी से प्रेरित होकर आनंद भाइयों ने इसी साल १९५४ में अपने 'नवकेतन' के बैनर तले इसी भाव को आगे बढ़ाते हुए एक और फ़िल्म के निर्माण का निश्चय किया। और इस बार फ़िल्म का शीर्षक भी रखा गया 'टैक्सी ड्राइवर'। चेतन आनंद ने फ़िल्म का निर्देशन किया, विजय आनंद ने कहानी लिखी, और देव साहब नज़र आए टैक्सी ड्राइवर मंगल के किरदार में। नायिका बनीं कल्पना कार्तिक। गीतकार साहिर लुधियानवी और संगीतकार सचिन देव बर्मन की जोड़ी ने एक बार फिर से अपना जादू दिखाया और इस फ़िल्म के लिए बने कुछ यादगार सदाबह

एक हजारों में मेरी बहना है...रक्षा बंधन पर शायद हर भाई यही कहता होगा...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 162 "क भी भ‍इया ये बहना न पास होगी, कहीं परदेस बैठी उदास होगी, मिलने की आस होगी, जाने कौन बिछड़ जाये कब भाई बहना, राखी बंधवा ले मेरे वीर"। रक्षाबंधन के पवित्र पर्व के उपलक्ष्य पर हिंद युग्म की तरफ़ से हम आप सभी को दे रहे हैं हार्दिक शुभकामनायें। भाई बहन के पवित्र रिश्ते की डोर को और ज़्यादा मज़बूत करता है यह त्यौहार। राखी उस धागे का नाम है जिस धागे में बसा हुआ है भाई बहन का अटूट स्नेह, भाई का अपनी बहन को हर विपदा से बचाने का प्रण, और बहन का भाई के लिए मंगलकामना। इस त्यौहार को हमारे फ़िल्मकारों ने भी ख़ूब उतारा है सेल्युलायड के परदे पर। गानें भी एक से बढ़कर एक बनें हैं इस पर्व पर। क्योंकि इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर चल रहा है किशोर कुमार के गीतों से सजी लघु शृंखला 'दस रूप ज़िंदगी के और एक आवाज़', जिसके तहत हम जीवन के अलग अलग पहलुओं को किशोर दा की आवाज़ के ज़रिये महसूस कर रहे हैं, तो आज महसूस कीजिए भाई बहन के नाज़ुक-ओ-तरीन रिश्ते को किशोर दा के एक बहुत ही मशहूर गीत के माध्यम से। यह एक ऐसा सदाबहार गीत है भाई बहन के रिश्ते पर, जिस पर वक्त

तू कहाँ ये बता इस नशीली रात में....देव साहब ने पुकारा अपने प्यार को और रफी साहब ने स्वर दिए

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 159 'द स चेहरे एक आवाज़ - मोहम्मद रफ़ी' की नौवीं कड़ी में आप सभी का स्वागत है। यूं तो अभिनेता देव आनंद के लिए ज़्यादातर गानें किशोर कुमार ने गाये हैं, लेकिन समय समय पर कुछ संगीतकारों ने ऐसे गीत बनाये हैं जिनके साथ केवल रफ़ी साहब ही उचित न्याय कर सकते थे। इस तरह से देव आनंद साहब पर भी कुछ ऐसे बेहतरीन गानें फ़िल्माये गये हैं जिनमें आवाज़ रफ़ी साहब की है। अगर संगीतकारों की बात करें तो सचिन देव बर्मन एक ऐसे संगीतकार थे जिन्होने देव साहब के लिए रफ़ी साहब की आवाज़ का बहुत ही सफल इस्तेमाल किया। फ़िल्म 'गैम्बलर' के ज़्यादातर गानें किशोर दा के होते हुए भी बर्मन दादा ने एक ऐसा गीत बनाया जो उन्होने रफ़ी साहब से गवाया। याद है न आप को वह गीत? जी हाँ, "मेरा मन तेरा प्यासा"। अजी साहब, प्यासे तो हम हैं रफ़ी साहब के गीतों के, जिन्हे सुनते हुए वक्त कैसे निकल जाता है पता ही नहीं चलता और ना ही उनके गीतों को सुनने की प्यास कभी कम होती है। ख़ैर, देव आनंद पर फ़िल्माये, सचिन देव बर्मन की धुनों पर रफ़ी साहब के गीतों की बात करें तो जो मशहूर फ़िल्में हमारे जेहन

गैरों के शे'रों को ओ सुनने वाले हो इस तरफ भी करम...दर्द में डूबी किशोर की सदा..

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 90 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' की ९०-वीं कड़ी में हम आप सभी का इस्तकबाल करते हैं। कल इस स्तंभ के अंतर्गत आपने सुना था कवि नीरज की रचना 'नयी उमर की नयी फ़सल' फ़िल्म से। नीरज जैसे अनूठे गीतकार का लिखा केवल एक गीत सुनकर यक़ीनन दिल नहीं भरता, इसीलिए हमने यह तय किया कि एक के बाद एक दो गानें आपको नीरजजी के लिखे हुए सुनवाया जाए। अत: आज भी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में गूँजनेवाली है नीरज की एक फ़िल्मी रचना। जैसा कि कल हमने आपको बताया था कि नीरज ने सबसे ज़्यादा फ़िल्मी गीत संगीतकार सचिन देव बर्मन के लिए लिखे हैं। तो आज क्यों ना बर्मन दादा के लिए उनका लिखा गीत आपको सुनवाया जाए! १९७१ में आयी थी फ़िल्म 'गैम्बलर' 'अमरजीत प्रोडक्शन्स' के बैनर तले। देव आनंद और ज़हीदा अभिनीत इस फ़िल्म के गाने बहुत बहुत चले और आज भी चल रहे हैं। ख़ास कर लता-किशोर का गाया "चूड़ी नहीं ये मेरा दिल है" गीत को चूड़ियों पर बने तमाम गीतों में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय माना जाता है। लेकिन आज हम इस गीत को यहाँ नहीं बजा रहे हैं बल्कि इसी फ़िल्म का एक ग़मज़दा नगमा लेकर आये हैं

चल री सजनी अब क्या सोचें...सुनकर मुकेश के इस गीत कौन न रो पड़े...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 61 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' की ६१-वीं कड़ी में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। हिंदी फ़िल्मों में विदाई गीतों की बात करें तो सब से पहले "बाबुल की दुआयें लेती जा" ज़्यादातर लोगों को याद आती है। लेकिन इस विषय पर कुछ और भी बहुत ही ख़ूबसूरत गीत बने हैं और ऐसा ही एक विदाई गीत आज हम चुन कर ले आये हैं। मुकेश की आवाज़ में यह है फ़िल्म 'बम्बई का बाबू' का गाना "चल री सजनी अब क्या सोचे, कजरा ना बह जाये रोते रोते"। मेरे ख़याल से यह गाना फ़िल्म संगीत का पहला लोकप्रिय विदाई गीत होना चाहिए। 'बम्बई का बाबू' १९६० की फ़िल्म थी। इससे पहले ५० के दशक में कुछ चर्चित विदाई गीत आये तो थे ज़रूर, जैसे कि १९५० में फ़िल्म 'बाबुल' में शमशाद बेग़म ने एक विदाई गीत गाया था "छोड़ बाबुल का घर मोहे पी के नगर आज जाना पड़ा", १९५४ में फ़िल्म 'सुबह का तारा' में लता ने गाया था "चली बाँके दुल्हन उनसे लागी लगन मोरा माइके में जी घबरावत है", और १९५७ में मशहूर फ़िल्म 'मदर इंडिया' में शमशाद बेग़म ने एक बार फिर गाया "पी के घ

देखो, वे आर डी बर्मन के पिताजी जा रहे हैं...

सचिन देव बर्मन साहब की ३३ वीं पुण्यतिथि पर दिलीप कवठेकर का विशेष आलेख - सचिन देव बर्मन एक ऐसा नाम है, जो हम जैसे सुरमई संगीत के दीवानों के दिल में अंदर तक जा बसा है. मेरा दावा है कि अगर आप और हम से यह पूछा जाये कि आप को सचिन दा के संगीतबद्ध किये गये गानों में किस मूड़ के, या किस Genre के गीत सबसे ज़्यादा पसंद है, तो आप कहेंगे, कि ऐसी को विधा नही होगी, या ऐसी कोई सिने संगीत की जगह नही होगी जिस में सचिन दा के मेलोड़ी भरे गाने नहीं हों. आप उनकी किसी भी धुन को लें. शास्त्रीय, लोक गीत, पाश्चात्य संगीत की चाशनी में डूबे हुए गाने. ठहरी हुई या तेज़ चलन की बंदिशें. संवेदनशील मन में कुदेरे गये दर्द भरे नग्में, या हास्य की टाईमिंग लिये संवाद करते हुए हल्के फ़ुल्के फ़ुलझडी़यांनुमा गीत. जहां उनके समकालीन गुणी संगीतकारों नें अपने अपने धुनों की एक पहचान बना ली थी, सचिन दा हमेशा हर धुन में कोई ना कोई नवीनता देने के लिये पूरी मेहनत करते थे. इसीलिये, उनके बारे में सही ही कहा है, देव आनंद नें (जिन्होने अपने लगभग हर फ़िल्म में - बाज़ी से प्रेम पुजारी तक सचिन दा का ही संगीत लिया था)- He was One of the Most Cultu

एवरग्रीन चिरकुमार व्यक्तित्व - देव आनंद

आवाज़ के स्थायी स्तंभकार दिलीप कवठेकर लाये हैं देव आनंद के गीतों से सजा एक गुलदस्ता, साथ में है एक गीत उनकी अपनी आवाज़ में भी, आनंद लीजिये - देव आनंद के बारे में मशहूर है कि उन्होने अपने अधिकतर गानों के लिए रफी और किशोर कुमार की आवाज़ उधार ली थी, और कभी कभी मन्ना दा (सांझ ढले),हेमंत कुमार (ये रात ये चांदनी फ़िर कहां,याद किया दिल नें, ना तुम हमॆ जानों)और तलत महमूद(जाये तो जाये कहां) की आवाज़ भी इस्तेमाल की थी. मगर मुकेश के बारे में जहां तक मेरी जानकारी है, सिर्फ़ कुछ ही गीतों तक ही सीमित है. आज जो गीत में ले कर आया हूँ वह अधिक मकबूल नही है, मगर अनोखा और दुर्लभ ज़रूर है. अनोखे गीत वे होते हैं, जिनमें कोई ख़ास नयी बात है.जैसे, यह गीत देव और मुकेश का दुर्लभ गीत है,जिसमें लता ने भी अपनी कोमल मधुर आवाज़ का जादू बिखेरा है.. सुन कर लुत्फ़ उठायें. ये दुनिया है.. (फ़िल्म शायर - १९४९ में लता के साथ एक दोगाना) इस गीत के विडियो में देखें उन दिनों के देव की छवि - देव आनंद के बारे में एक बात बता दूं, कि इस हर दिल अज़ीज़ कलाकार को चाकलेट हीरो के रूप में मान्यता मिली और उन दिनों में मशहूर हुए तीन सुपरस

कोई ना रोको दिल की उड़ान को...

लता संगीत उत्सव की नई प्रस्तुति प्रस्तावना: लता दीदी को जन्मदिन की ढेर सारी शुभकामनाएँ। लता दीदी की प्रसंशा में बहुत कुछ कहा गया है। फिर भी तारीफें अधूरी लगती हैं। मैंने दीदी के लिए सही शब्द ढूँढ़ने की कोशिश की तो शब्दकोष भी सोच में पड़ गया। कहते है, "लोग तमाम ऊँचाइयों तक पहुँचे हैं...पर जिस मुकाम तक लताजी पहुँची हैं...वहाँ तक कोई नहीं पहुँच सकता..." दीदी से रु-ब-रु होने का सौभाग्य तो अब तक प्राप्त नहीं हुआ, पर दीदी के गीत हमेशा साथ रहते है। लता दीदी वो कल्पवृक्ष हैं जो रंग-बिरंगी मीठे मधुर मनमोहक गीत-रूपी फूल बिखीरती रहती है. दीदी के देशभक्ति गीत सुनकर हौसले बुलंद होते हैं, अमर गाथा सुनकर आखों में पानी भर आता है, लोरी सुन कर ममता का एहसास होता है, खुशी के गीत सुनकर दिल को सुकून मिलता है, दर्द-भरे नगमे दिल की गहराई को छू जाते हैं, भजन सुनकर भक्ति भावना अपने शिखर तक पहुँचती है, और प्रेम गीत सुनकर लगता है जैसे प्रेमिका गा रही हो. जब भी लताजी के गीत सुनता हूँ तो मेरा दिल तो कहने लगता है ... "आज फिर जीने की तम्मना है, आज फिर मरने का इरादा है..." "कोई ना रोको द

वो खंडवा का शरारती छोरा

किशोर कुमार का नाम आते ही जेहन में जाने कितनी तस्वीरें, जाने कितनी सदायें उभर कर आ जाती है. किशोर दा यानी एक हरफनमौला कलाकार, एक सम्पूर्ण गायक, एक लाजवाब शक्सियत. युग्म के वाहक और किशोर दा के जबरदस्त मुरीद, अवनीश तिवारी से हमने गुजारिश की कि वो किशोर दा पर, "आवाज़" के लिए एक श्रृंखला करें. आज हम सब के प्यारे किशोर दा का जन्मदिन है, तो हमने सोचा क्यों न आज से ही इस श्रृंखला का शुभारम्भ किया जाए. पेश है अवनीश तिवारी की इस श्रृंखला का पहला अंक, इसमें उन्होंने किशोर दा के फिल्मी सफर के शुरूवाती दस सालों पर फोकस किया है, साथ में है कुछ दुर्लभ तस्वीरें भी. किशोर कुमार ( कालावधी १९४७ - १९६० )- वो खंडवा का शरारती छोरा यह एक कठिन प्रश्न है कि किशोर कुमार जैसे हरफनमौला व्यक्तित्व के विषय में जिक्र करते समय कहाँ से शुरुवात करें आइये सीधे बढ़ते है उनके पेशेवर जीवन ( प्रोफेसनल करिअर ) के साथ , जो उनकी पहचान है बात करते है उनके शुरू के दशक की, याने १९४७ - १९६० तक की बड़े भाई अशोक कुमार के फिल्मों में पैर जमाने के बाद छोटे भाई आभास यानी हमारे चहेते किशोर और मझले भाई अनूप बम्बई ( मुम्बई )