अमर शायर / गीतकार साहिर लुधायनवी की २८वीं बरसी आओ कि कोई ख़्वाब बुनें कल के वास्ते वरना ये रात आज के संगीन दौर की डस लेगी जान-ओ-दिल को कुछ ऐसे कि जान-ओ-दिल ता-उम्र फिर न कोई हसीं ख़्वाब बुन सकें ये ख़्वाब ही तो अपनी जवानी के पास थे ये ख़्वाब ही तो अपने अमल के असास थे ये ख़्वाब मर गये हैं तो बे-रंग है हयात यूँ है कि जैसे दस्त-ए-तह-ए-संग है हयात आओ कि कोई ख़्वाब बुनें कल के वास्ते साहिर ने जब लिखना शुरू किया तब इकबाल, जोश, फैज़, फ़िराक, वगैरह शायरों की तूती बोलती थी, पर उन्होंने अपना जो विशेष लहज़ा और रुख अपनाया, उससे न सिर्फ उन्होंने अपनी अलग जगह बना ली बल्कि वे भी शायरी की दुनिया पर छा गये। प्रेम के दुख-दर्द के अलावा समाज की विषमताओं के प्रति जो आक्रोश हमें उनकी शायरी में मिलता है, एक ऐसा शायर जो खरा बोलता है दो टूक पर ख्वाब देखने की भी हिम्मत रखता है. जो तल्खियों को सीने में समेटे हुए भी कहता है कि आओ कोई ख्वाब बुनें. साहिर के शब्दों में अगर कहें तो - दुनिया के तजुरबातो-हवादिस की शक्ल में जो कुछ मुझे दिया है, लौटा रहा हूँ मैं अब्दुलहयी ‘साहिर’ 1921 ई. में लुधियाना के एक जागीरदार घरान...