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माँ ही गंगा...जात्रागान शैली का ये गीत नीरज की कलम से

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 770/2011/210 पू र्वी और पुर्वोत्तर भारत के लोक-धुनों और शैलियों पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'पुरवाई' की अन्तिम कड़ी में आप सभी का मैं सुजॉय चटर्जी, साथी सजीव सारथी के साथ फिर एक बार स्वागत करता हूँ। दोस्तों, सिनेमा के आने से पहले मनोरंजन का एक मुख्य ज़रिया हुआ करता था नाट्य, जो अलग अलग प्रांतों में अलग अलग रूप में पेश होता था। नाट्य, जिसे ड्रामा या थिएटर आदि भी कहते हैं, की परम्परा कई शताब्दियों से चली आ रही है इस देश में, और इसमें अभिनय, काव्य और साहित्य के साथ साथ संगीत भी एक अहम भूमिका निभाती आई है। प्राचीन भारत नें संस्कृत नाटकों का स्वर्ण-युग देखा। उसके बाद ड्रामा का निरंतर विकास होता गया। जिस तरह से अलग अलग भाषाओं का जन्म हुआ और हर भाषा का अपने पड़ोसी प्रदेश के भाषा के साथ समानताएँ होती हैं, ठीक उसी प्रकार अलग अलग ड्रामा और नाट्य शैलियाँ भी विकसित हुईं एक दूसरे से थोड़ी समानताएँ और थोड़ी विविधताएँ लिए हुए। पूर्वोत्तर के आसाम राज्य में “ओजापाली” का चलन हुआ, तो बंगाल में "जात्रा-पाला" का, पंजाब में "स्वांग" तो

श्याम रंग रंगा रे...येसुदास के पावन स्वरों से महका एक गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 769/2011/209 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! लघु शृंखला 'पुरवाई' की नवी कड़ी में आज हम लेकर आये हैं बंगाल के कीर्तन और श्यामा संगीत पर आधारित एक गीत। हर राज्य का अपना भक्ति-संगीत का स्वरूप होता है। जैसे कि असम के भक्ति-संगीत पर आधारित एक गीत इसी शृंखला में हमने सुनवाया था, वैसे ही बंगाल में भी कई तरह के भक्ति गीतों की लोकप्रियता है जिनमें कीर्तन शैली और श्यामा संगीत का काफ़ी नाम है। श्यामा संगीत की बात करें तो ये भक्ति रचनाएँ माँ काली को समर्पित रचनाएँ होती हैं ('श्यामा' शब्द काली माता के लिए प्रयोग होता है), और इन्हें शक्तिगीति भी कहते हैं। और क्योंकि बंगाल में माँ काली को लोग बहुत मानते हैं, इसलिए श्यामा-संगीत भी ख़ूब लोकप्रिय है। श्यामा संगीत इसलिए भी लोकप्रिय है क्योंकि इसमें माँ और उसके बच्चे के रिश्ते की बातें होती हैं। साधारण पूजा-पाठ के नियमों से परे होता है श्यामा संगीत। १२-वीं और १३-वीं शताब्दी में जब शक्तिवाद बंगाल में पनपने लगी, तब कई कवि और लेखक प्रेरीत हुए माँ काली पर गीत और कविताएँ लिखने के लिए। १५८९ में मुकुन्दरामा,

धितंग धितंग बोले, मन तेरे लिए डोले....सलिल दा की ताल पर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 768/2011/208 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में इन दिनो जारी लघु शृंखला 'पुरवाई' की आठवीं कड़ी में आप सभी का बहुत बहुत स्वागत है। आज हम आपके लिए लेकर आये हैं बंगाल की एक लोकगाथा, या रूपकथा (fairy-tale) भी कह सकते हैं। इस कहानी का शीर्षक है 'सात भाई चम्पा और एक बहन पारुल'। चम्पा और पारुल बंगाल में पाये जाने वाले पेड़ हैं। बहुत समय पहले सुन्दरपुर में एक राजा अपनी सात रानियों के साथ रहता था। वह राजा बहुत ही नेक और साहसी था और इमानदारी को हर चीज़ से उपर रखता था। इसलिए प्रजा भी उन्हें बहुत प्यार करती थी। पर उनके पहली छह रानियाँ बहुत ही स्वार्थी और क्रूर थीं और छोटी रानी से जलती थीं क्योंकि वह राजा की प्यारी थी। राजा के मन में बस एक दुख था कि उनका कोई सन्तान नहीं था। किसी भी रानी से उन्हें सन्तान प्राप्ति नहीं हुई। जैसे जैसे दिन गुज़रते गए, राजा एक सन्तान की आस में बेचैन होते गए। जब एक दिन उन्हें पता चला कि छोटी रानी गर्भवती है, तो उनकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा। राजा नें एक दिन छोटी रानी को सोने का एक घण्टा के साथ सोने की एक चेन बांध कर दिया और कहा कि जैसे ही

साजन की हो गयी गोरी...सुन्दर बाउल संगीत पर आधारित देवदास की अमर गाथा से ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 767/2011/207 'पु रवाई' शृंखला में इन दिनों आप आनन्द ले रहे हैं पूर्वी और उत्तरपूर्वी भारत के लोक संगीत पर आधारित हिन्दी फ़िल्मी गीतों का अपने दोस्त सुजॉय चटर्जी और साथी सजीव सारथी के साथ। आज हम जिस लोक-शैली की चर्चा करने जा रहे हैं उसे बंगाल में बाउल के नाम से जाना जाता है। बाउल एक धार्मिक गोष्ठी भी है और संगीत की एक शैली भी। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि बाउल में वैष्णव हिन्दू भी आते हैं और सूफ़ी मुसलमान भी। इस तरह से यह साम्प्रदायिक सदभाव का भी प्रतीक है। हालाँकि बाउल बंगाल की जनसंख्य का एक बहुत छोटा सा अंश है, पर बंगाल की संस्कृति में बाउल का महत्वपूर्ण योगदान है। सन् २००५ में बाउल शैली को UNESCO के 'Masterpieces of the Oral and Intangible Heritage of Humanity' की फ़ेहरिस्त में शामिल किया गया है। बाउल की शुरुआत कहाँ से और कब से हुई इसका सटीक पता नहीं चल पाया है, पर 'बाउल' शब्द बंगाली साहित्य में १५-वीं शताब्दी से ही पाया जाता है। बाउल संगीत एक प्रकार का लोक गीत है जिसमें हिन्दू भक्ति धारा और सूफ़ी संगीत, दोनों का प्रभाव है। बाउल गीतों में

सुन री पवन, पवन पुरवैया.. भटयाली संगीत की लहरों में बहाते बर्मन दा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 766/2011/206 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों का इस नए सप्ताह में हार्दिक स्वागत है। इन दिनों जारी है लघु शृंखला 'पुरवाई' जिसके अन्तर्गत आप आनन्द ले रहे हैं पूर्व और पुर्वोत्तर भारत के लोक और पारम्परिक धुनों पर आधारित हिन्दी फ़िल्मी रचनाओं की। आज हम आपको लिए चलते हैं पूर्वी बंगाल, यानि कि वो जगह जिसका ज़्यादातर अंश आज बंगलादेश में पड़ता है। आपको बता दें कि पूर्वी बंगाल और पश्चिम बंगाल की संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान और गीत-संगीत में बहुत अन्तर है। असम और त्रिपुरा में भी पूर्वी बंगालियों का एक बड़ा समूह वास करता है। आज के इस कड़ी में हम पूर्वी बंगाल के बहुत प्रचलित लोक-गीत शैली पर आधारित गीत सुनवाने जा रहे हैं जिसे भटियाली लोक-गीत कहा जाता है। भटियाली मांझी गीत है जिसे नाविक भाटे के बहाव में गाते हैं। जी हाँ, ज्वार-भाटा वाला भाटा। क्योंकि भाटे में चप्पु चलाने की ज़रूरत नहीं पड़ती, इसलिए मांझी लोग गुनगुनाने लग पड़ते हैं। और इस "भाटा-संगीत" को ही भटियाली कहते हैं। मूलत: इस शैली का जन्म मीमेनसिंह ज़िले में हुआ था जहाँ मांझी ब्र

संग मेरे निकले थे साजन....आज लीजिए नेपाली लोक धुन से प्रेरित ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 765/2011/205 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में पूर्वी और उत्तर-पूर्वी भारत के लोक धुनों पर आधारित हिन्दी फ़िल्मी रचनाओं की चल रही शृंखला 'पुरवाई' में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। असम, सिक्किम और उत्तर बंगाल में एक बड़ा समुदाय नेपालियों का भी है। मूलत: नेपाल से ताल्लुख़ रखने वाले ये लोग बहुत समय पहले इन अंचलों में आ बसे थे और अब ये भारत के ही नागरिक हैं और भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग भी। नेपाली लोक-गीत इतने मधुर होते हैं कि तनाव भरी ज़िन्दगी जी रहे लोग अगर इन्हें सुनें तो जैसे मन-मस्तिष्क ताज़गी से भर जाता है। पहाड़ों की मन्द-मन्द शीतल बयार जैसे इन गीतों के साथ-साथ चलने लग जाती है। जितने भी भारत के पहाड़ी अंचल हैं, उनमें जो लोक-संगीत की परम्परा है, उनमें नेपाली लोक-संगीत एक बेहद महत्वपूर्ण स्थान रखती है। और शायद इसी वजह से हमारी हिन्दी फ़िल्मों में भी कई बार नेपाली लोक धुनों का गीतों में इस्तमाल किया गया है। सलिल चौधरी एक ऐसे संगीतकार हुए जिन्होंने असम और पहाड़ी संगीत का ख़ूब इस्तमाल किया जिनमें नेपाली लोक धुनें भी शामिल थीं। इसका सबसे महत्वपूर्ण उ

जाने क्या है जी डरता है...असम के चाय के बागानों से आती एक हौन्टिंग पुकार

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 764/2011/204 अ सम के लोक-संगीत की बात चल रही हो और चाय बागानों के संगीत की चर्चा न हो, यह सम्भव नहीं। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और स्वागत है शृंखला 'पुरवाई' में जिसमें इन दिनों आप पूर्व और उत्तर-पूर्व भारत के लोक धुनों पर आधारित हिन्दी फ़िल्मी गीत सुन रहे हैं। चाय बागानों की अपनी अलग संस्कृति होती है, अपना अलग रहन-सहन, गीत-संगीत होता है। दरअसल इन चाय बागानों में काम करने वाले मज़दूर असम, बंगाल, बिहार और नेपाल के रहने वाले हैं और इन सब की भाषाओं के मिश्रण से एक नई भाषा का विकास हुआ जिसे चाय बागान की भाषा कहा जाता है। यह न तो असमीया है, न ही बंगला, न नेपाली है और न ही हिन्दी। इन चारों भाषाओं की खिचड़ी लगती है सुनने में, पर इसका स्वाद जो है वह खिचड़ी जैसा ही स्वादिष्ट है। यहाँ का संगीत भी बेहद मधुर और कर्णप्रिय होता है। असम के चाय बागानों में झुमुर नृत्य का चलन है। यह नृत्य लड़कों और लड़कियों द्वारा एक साथ किया जाता है, और कभी-कभी केवल लड़कियाँ करती हैं झुमुर नृत्य। इस नृत्य में पाँव के स्टेप्स का बहुत महत्व होता है, एक क़दम ग़लत पड़ा और नृत्य बिग

जब से तूने बंसी बजाई रे....भूपेन हजारिका का स्वरबद्ध एक मधुर गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 763/2011/203 पू र्वी और पुर्वोत्तर राज्यों के लोक धुनों पर आधारित हिन्दी फ़िल्मी गीतों की लघु शृंखला 'पुरवाई' की तीसरी कड़ी में आप सभी का स्वागत है। जैसा कि पहली कड़ी में हमने कहा था कि हमारे देश के हर राज्य के अन्दर भी कई अलग अलग प्रकार के लोक गीत पाये जाते हैं; इसमे असम राज्य कोई व्यतिक्रम नहीं है। कल की कड़ी में हमने बिहु का आनद लिया था, आज प्रस्तुत है असम की भक्ति गीतों की शैली में कम्पोज़ किया एक गीत। असम के नामघरों में जिस तरह का धार्मिक संगीत गाया जाता है, यह गीत उसी शैली का है। संगीतकार भूपेन हज़ारिका नें पहली बार इसका प्रयोग अपनी असमीया फ़िल्म 'मणिराम दीवान' के "हे माई जोख़ुआ" गीत में किया था, बाद में ७० के दशक में जब उन्हे हिन्दी फ़िल्म 'आरोप' में संगीत देने का सुयोग मिला, और एक भक्ति रचना उन्हें फ़िल्म के लिए कम्पोज़ करना था, तो इसी धुन का उन्होंने दुबारा इस्तमाल किया और गायिका लक्ष्मी शंकर से यह गीत गवाया जिसके बोल थे "जब से तूने बंसी बजाई रे, बैरन निन्दिया चुराई, मेरे ओ कन्हाई, नटखट कान्हा ओ हरजाई रे काहे पकड़ी

फूले बन बगिया, खिली कली कली....बिहु रंग रंगा ये सुरीला गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 762/2011/202 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और बहुत बहुत स्वागत है आप सभी का इस सुरीली महफ़िल में। कल से हमने शुरु की है पूर्वी और पुर्वोत्तर भारत के लोक गीतों पर आधारित हिन्दी फ़िल्मी गीतों से सजी लघु शृंखला 'पुरवाई'। कल पहली कड़ी में आपनें सुनी अनिल बिस्वास के संगीत में मेघालय के खासी जनजाति के एक लोक धुन पर आधारित मीना कपूर की गाई फ़िल्म 'राही' की एक लोरी। आज जो गीत हम लेकर आये हैं उसके संगीतकार भी अनिल बिस्वास ही हैं और गायिका भी मीना कपूर ही हैं। पर साथ में मन्ना डे की आवाज़ भी शामिल है। पर यह गीत किसी खासी लोक धुन पर नहीं बल्कि असम की सबसे ज़्यादा लोकप्रिय लोक-गीत 'बिहु' पर आधारित है। बिहु में गीत, संगीत और नृत्य, तीनों की समान रूप से प्रधानता होती है। इनमें से कोई भी एक अगर कमज़ोर पड़ जाए, तो बात नहीं बनती। बिहु असम का सबसे महत्वपूर्ण त्योहार भी है और बिहु गीत व बिहु नृत्य इस त्योहार का प्रतीक स्वरूप है। 'बिहु' शब्द 'दिमसा कछारी' जनजाति के भाषा से आया है। ये लोग मुख्यत: कृषि प्रधान होते हैं और ये ब्र