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ई मेल के बहाने यादों के खजाने (२६)- प्रदीप चटर्जी नाम से कोई गीतकार नहीं -हरमंदिर सिंह 'हमराज़'

नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' में एक बार फिर आप सभी का हम स्वागत करते हैं। इस साप्ताहिक स्तंभ में हम साधारणतः 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने' पेश किया करते हैं। कई बार यादों के ख़ज़ानें तो नहीं शामिल हो पाते, लेकिन जो भी पेश होता है वो ईमेल के बहाने से ही होता है। हर बार की तरह इस बार भी हम आप सभी से गुज़ारिश करते हैं कि इस शीर्षक को सार्थक करने के लिए आप अपने जीवन से जुड़ी किसी यादगार घटना या संस्मरण हमारे साथ बांटिये जिसे हम इस मंच के माध्यम से पूरी दुनिया के साथ बांट सके। ईमेल भेजने के लिए हमारा आइ.डी है oig@hindyugm.com। दोस्तों, इसमें कोई शक़ नहीं कि इंटरनेट ने तथ्य तकनीकी और दूरसंचार के क्षेत्र में क्रांति ला दी है, और ऐसी क्रांति आई है, ऐसा बदलाव लाया है कि अब इंटरनेट के बिना सब काम काज जैसे ठप्प सा हो जाता है। लेकिन जिस तरह से हर अच्छे चीज़ के साथ कुछ बुरी चीज़ें भी समा जाती हैं, ऐसा ही कुछ इंटरनेट के साथ भी है। जी नहीं, हम अश्लील वेबसाइटों की बात नहीं कर रहे; हम तो बात कर रहे हैं ग़लत जानकारियों की जो इंटरनेट पर अपलोड होते रहते हैं। दरअसल बात यह है कि

मैं हूँ एक खलासी, मेरा नाम है भीमपलासी....अन्ना के इस गीत को सुनकर आपके चेहरे पर भी मुस्कान न आये तो कहियेगा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 570/2010/270 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की ५७०-वीं कड़ी के साथ हम हाज़िर हैं और जैसा कि इन दिनों आप सुन और पढ़ रहे हैं कि सी. रामचन्द्र के संगीत और गायकी से सजी लघु शृंखला 'कितना हसीं है मौसम' जारी है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर। आज हम आ गये हैं इस शृंखला के अंजाम पर। आज इसकी अंतिम कड़ी में आपको सुनवा रहे हैं चितलकर और साथियों का गाया एक और मशहूर गीत। सी. रामचन्द्र के संगीत के दो पहलु थे, एक जिसमें वो शास्त्रीय और लोक संगीत पर आधारित गानें बनाते थे, और दूसरी तरफ़ पाश्चात्य संगीत पर उनके बनाये हुए गानें भी गली गली गूंजा करते थे। इस शृंखला में भी हमने कोशिश की है इन दोनों पहलुओं के गानें पेश करें। आज की कड़ी में सुनिए उसी पाश्चात्य अंदाज़ में १९५० की फ़िल्म 'सरगम' से एक हास्य गीत "मैं हूँ एक खलासी, मेरा नाम है भीमपलासी"। एक गज़ब का रॊक-एन-रोल नंबर है जिससे आज ६० साल बाद भी उतनी ही ताज़गी आती है। माना जाता है कि किसी हिंदी फ़िल्म में रॊक-एन-रोल का प्रयोग होने वाला यह पहला गाना था। और वह भी उस समय जब रॊक-एन-रोल विदेश में भी उतना लोक

तुम मेरी जिंदगी में तूफ़ान बन कर आये.....कहीं लता जी का इशारा चितलकर पर तो नहीं था ?

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 567/2010/267 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में आप सभी का एक बार फिर बहुत बहुत स्वागत है। सी. रामचन्द्र के स्वरबद्ध और गाये गीतों की शृंखला 'कितना हसीं है मौसम' इन दिनों आप सुन और पढ़ रहे हैं। कल हमने आपसे वादा किया था कि आज की कड़ी में हम आपको सी. रामचन्द्र और लता मंगेशकर के बीच के अनबन के बारे में बताएँगे। दोस्तों, राजु भारतन लिखित लता जी की जीवनी को पढ़ने पर पता चला कि इस किताब के लिखने के दौरान भारतन साहब सी. रामचन्द्र से मिले थे और सी. रामचन्द्र ने कहा था, "she wanted to marry me, but i was already married.... all i wanted was some fun, but that was not to be.." इसी किताब में "ऐ मेरे वतन के लोगों" के किस्से के बारे में भी लिखा गया है कि शुरु शुरु में यह एक डुएट गीत के रूप में लिखा गया था जिसे लता और आशा, दोनों को मिलकर गाना था। लेकिन जिस दिन मंगेशकर बहनों को दिल्ली जाना था उस फ़ंक्शन के लिए, आशा जी ने सी. रामचन्द्र को फ़ोन कर यह कह दिया कि दीदी अकेली जा रही हैं और वो इससे ज़्यादा और कुछ नहीं कहना चाहतीं। इसी गीत को प्रस्तुत करते हुए द

ऐ आँख अब ना रोना, रोना तो उम्रभर है...कितना दर्दीला है ये युगल गीत लता चितलकर का गाया

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 565/2010/265 सी . रामचन्द्र के स्वरबद्ध किए और उन्हीं के गाये हुए गीतों से सजी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'कितना हसीं है मौसम' की पाँचवीं कड़ी में आप सभी का स्वागत है। दोस्तों, अब तक इस शृंखला में हमने चितलकर की आवाज़ में दो एकल गीत सुनें और बाक़ी के दो गीत उन्होंने लता जी के साथ गाया था। आइए आज एक बार फिर एक मशहूर लता-चितलकर डुएट सुना जाये। यह गीत है १९४९ की फ़िल्म 'सिपहिया' का, जिसके बोल हैं "ऐ आँख अब ना रोना, रोना तो उम्रभर है, पी जाएँ आँसूओं को, बस वो जिगर जिगर है"। गीतकार हैं राम चतुरवेदी। आइए आज अपको एक फ़ेहरिस्त दी जाये लता-चितलकर डुएट्स की। अलबेला (१९५१) - भोली सूरत दिल के खोटे, महफ़िल में मेरी कौन ये दीवाना आया, मेरे दिल की घड़ी करे टिक टिक टिक, शाम ढले खिड़की तले, शोला जो भड़के दिल मेरा धड़के। आज़ाद (१८५४) - कितना हसीं है मौसम। बारिश (१९५७) - कहते हैं प्यार किस को पंछी, फिर वही चाँद वही हम वही तन्हाई। भेदी बंगला (१९४९) - आँसू ना बहाना कांटों भरी राह से। हंगामा (१९५२) - झूम झूम झूम राही प्यार की दुनिया, उल्फ़त की ज़

मेरे पिया गए रंगून, किया है वहां से टेलीफून...मोबाइल क्रांति के इस युग से काफी पीछे चलते हैं इस गीत के जरिये

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 312/2010/12 'स्व रांजली' की दूसरी कड़ी में आप सभी का स्वागत है। दोस्तों, 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला में इन दिनों हम याद कर रहे हैं फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के उन कलाकारों को जिनका इस जनवरी के महीने में जन्मदिन या स्मृति दिवस होता है। गत ५ जनवरी को संगीतकार सी. रामचन्द्र जी की पुण्यतिथि थी। आज हमारी 'स्वरांजली' उन्ही के नाम! जैसा कि हमने पहली भी कई बार उल्लेख किया है कि सी. रामचन्द्र उन पाँच संगीतकारों में शुमार पाते हैं जिन्हे फ़िल्म संगीत के क्रांतिकारी संगीतकार होने का दर्जा दिया गया है। ४० के दशक में जब फ़िल्म संगीत मुख्यता शास्त्रीय संगीत, लोक संगीत और सुगम संगीत पर ही आधारित हुआ करती थी, ऐसे में सी. रामचन्द्र जी ने पाश्चात्य संगीत को कुछ इस क़दर हिंदी फ़िल्मी गीतों में इस्तेमाल किया कि वह एक ट्रेंडसेटर बन कर रह गया। यह ज़रूर है कि इससे पहले भी पाश्चात्य साज़ों का इस्तेमाल होता आया है, लेकिन गीतों को पूरा का पूरा एक वेस्टर्ण लुक सी. रामचन्द्र जी ने ही पहली बार दिया था। और देखिए, जहाँ एक तरफ़ उनके "शोला जो भड़के", &

हम तो जानी प्यार करेगा, नहीं डरेगा....चितलकर और आशा ने जमाया जम कर रंग

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 199 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में जारी है '१० गायक और एक आपकी आशा'। आशा भोंसले की आवाज़ वो सुरीली आवाज़ है, जानी पहचानी सी, कुछ नई कुछ पुरानी सी, कभी कोमल कभी बुलंद सी। आवाज़ वही पर अंदाज़ हमेशा नया। आशा जी की आवाज़ और अंदाज़ सिर्फ़ हिंदुस्तान में ही नहीं, विदेशों में भी ख़ूब लोकप्रिय हुआ। हाल में उन्होने कई विदेशी बैंड्स से साथ मिल कर 'पॊप ऐल्बम्स' में गाने गाए हैं, जो दुनिया भर में ख़ूब सुने गए। आशा जी की आवाज़ को पाने के लिए संगीतकार और फ़िल्मकार आज भी आमादा रहते हैं जैसा कि गुज़रे ज़माने के संगीतकार और फ़िल्मकार रहते थे। फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों की बात करें तो जिन गीतों के लिए आशा जी को सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायिका का यह पुरस्कार मिला था, उनकी सूची इस प्रकार है - १९६७ - ग़रीबों की सुनो वो तुम्हारी सुनेगा (दस लाख) १९६८ - परदे में रहने दो (शिकारी) १९७१ - पिया तू अब तो आजा (कारवाँ) १९७२ - दम मारो दम (हरे रामा हरे कृष्णा) १९७३ - होने लगी है रात (नैना) १९७४ - चैन से हमको कभी आप ने जीने ना दिया (प्राण जाए पर वचन न जाए) १९७८ - ये मेरा दिल यार का दीवाना

सन्डे के सन्डे....एक सदाबहार मस्ती से भरा गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 59 फ़ि ल्म संगीत के जानकारों को पता होगा कि ऐसे ५ संगीतकार हैं जिन्हें फ़िल्म संगीत के क्रांतिकारी संगीतकार का ख़िताब दिया गया है। ये ५ संगीतकार हैं मास्टर ग़ुलाम हैदर, सी. रामचन्द्र, ओ. पी. नय्यर, आर. डी. बर्मन, और ए. आर. रहमान। इन्हें क्रांतिकारी संगीतकार इसलिए कहा गया है क्यूँकि इन्होंने अपने नये अंदाज़ से फ़िल्म संगीत की धारा को नई दिशा दी है। यानी कि इन्होंने फ़िल्म संगीत के चल रहे प्रवाह को ही मोड़ कर रख दिया था और अपने नये 'स्टाइल' को स्वीकारने पर दुनिया को मजबूर कर दिया। इनमें से जिस क्रांतिकारी की बात आज हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में कर रहे हैं वो हैं सी. रामचन्द्र। सी. रामचन्द्र ने फ़िल्म संगीत में पाश्चात्य संगीत की धारा को इस तरह से ले आए कि उसने फ़िल्मी गीतों के रूप रंग को एक निखार दी, और लोकप्रियता के माप-दंड पर भी खरी उतरी। और यह सिलसिला शुरू हुआ था सन १९४७ की फ़िल्म 'शहनाई' से। इस फ़िल्म में "आना मेरी जान मेरी जान सन्डे के सन्डे" एक 'ट्रेन्ड-सेटर' गीत साबीत हुआ। और यही मशहूर गीत आज आप सुन रहे हैं 'ओल्ड इज़