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यूँ न रह-रहकर हमें तरसाईये.....एक फ़नकार जो चला गया हमें तरसाकर

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #३३ यूँ तो हमने पिछली दफ़ा फ़रमाईश की गज़लों का सिलसिला शुरू कर दिया था.. लेकिन न जाने क्यों आज मन हुआ कि कम से कम एक दिन के लिए हीं अपने पुराने ढर्रे पर वापस आ जाया जाए। अहा..... हम अपने वादे से मुकर नहीं रहे, आने वाली ७ कड़ियों में हमें फ़रमाईश की ५ गज़लों/नज़्मों को हीं सुनाना है, इसलिए आगे भी दो बार हम अपने संग्रह से चुनी हुई २ गज़लों/नज़्मों का आनंद ले सकते हैं। तो चलिए आज की गज़ल की ओर बढते हैं। आज की गज़ल "यूँ न रह-रहकर हमें तरसाईये" को लिखा है "सागर निज़ामी" ने और संगीत से सँवारा है चालीस के दशक के मशहूर संगीतकार "पंडित अमरनाथ" ने। जानकारी के लिए बता दूँ कि "पंडित अमरनाथ" जानी-मानी संगीतकार जोड़ी "हुस्नलाल-भगतराम" के बड़े भाई थे। रही बात "सागर निज़ामी" की तो अंतर्जाल पर उनकी लिखी चार हीं गज़लें मौजूद हैं- "यूँ न रह-रहकर", "हैरत से तक रहा", "हादसे क्या-क्या तुम्हारी बेरूखी से हो गए" और "काफ़िर गेशु वालों की रात बसर यूँ होती है"। संगीतकार और शायर के बाद जिसका नाम हमा