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फिर मिलेंगे यार दसविदानिया.... मगर दोस्तों याद रहे कभी अलविदा न कहना

इस दुनिया का एक बहुत बड़ा सत्य यह है कि जो शुरु होता है, वह एक न एक दिन ख़त्म भी होता है। यह दुनिया भी शायद कभी ख़त्म हो जाए, क्या पता! अंग्रेज़ी में एक कहावत भी है कि "the only thing that is constant is change" (बदलाव ही एकमात्र ऐसी चीज़ है जो स्थायी है)। कैसा घोर विरोधाभास है इस कहावत में ध्यान दीजिए ज़रा। तो दोस्तों, 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का सफ़र भी अब ख़्तम हुआ चाहता है। जी हाँ, पिछले करीब तीन सालों से लगातार, बिना किसी रुकावट के चलने के बाद हम यह सुरीला कारवाँ अपनी मंज़िल पर आ पहुँचा है।

खुशियाँ ही खुशियाँ हो....जीवन में आपके यही दुआ है ओल्ड इस गोल्ड टीम की

प्रेम किशन और श्यामली की आवाज़ बन कर येसुदास और बनश्री गीत का अधिकांश हिस्सा गाते हैं जबकि हेमलता रामेश्वरी की आवाज़ बन कर अन्तिम अन्तरा गाती हैं, वह भी थोड़े उदास या डीसेन्ट अन्दाज़ में। आइए आज गायिका बनश्री सेनगुप्ता की थोड़ी बातें की जाए। आज के इस गीत के अलावा उन्होंने किसी हिन्दी फ़िल्म में गाया है या नहीं, इस बात की तो मैं पुष्टि नहीं कर पाया, पर बंगला संगीत जगत में उनका काफ़ी नाम है और बहुत से सुन्दर गीत उन्होंने गाए हैं।

प्यार ज़िन्दगी है....आईये आज की शाम समर्पित करें अपने अपने प्यार के नाम

फ़िल्म के प्रस्तुत गीत की बात करें तो यह गीत सिर्फ़ इस वजह से ही ख़ास बन जाता है कि इसमें लता और आशा, दोनों की आवाज़ें मौजूद हैं, और दोनों की अदायगी का कॉन्ट्रस्ट भी बड़ा ख़ूबसूरत लगता है। एक तरफ़ आशा किसी क्लब डान्सर का प्लेबैक कर रही है और पाश्चात्य शैली में "लाहल्ला लाहल्ला हो या अल्लाह" गाती हैं, जबकि लता की आवाज़ सज रही है राखी पर जो एक अच्छे घर की सीधी-सादी, साड़ी पहनने वाली भारतीय नारी का रूप है। कोई ऐसी लड़की अगर इस गीत में अपनी आवाज़ मिलाएगी तो जिस तरह का अंदाज़ होगा, बिल्कुल वैसा ही लता जी नें गाया है।

जीना क्या अजी प्यार बिना ....जीवन में नहीं कुछ भी इसके सिवा दोस्तों

आशा भोसले, किशोर कुमार और साथियों की आवाज़ों में राहुल देव बर्मन की यह कम्पोज़िशन बनी थी मजरूह सुलतानपुरी के बोलों पर। १९८० की इस फ़िल्म में ऋषी कपूर और नीतू सिंह की हिट जोड़ी नज़र आई थी। वैसे यह फ़िल्म 'खेल खेल में', 'दूसरा आदमी', 'रफ़ू चक्कर' जैसी फ़िल्मों की तरह सुपरहिट तो नहीं थी और न ही फ़िल्म के अन्य गीतों नें लोगों के दिलों में कुछ ख़ास जगह बनाई, पर फ़िल्म का यह शीर्षक गीत ख़ूब चला था।

उठे सबके कदम....चूमने जीवन की छोटी छोटी खुशियों को

इस गीत का फ़िल्मांकन देखने के बाद सही में यह सवाल मन में उभरता है कि क्या ज़िंदगी में ख़ुश रहने के लिए बहुत बड़ी-बड़ी महंगी-महंगी चीज़ों का होना ज़रूरी है? अगर हम इन "बड़ी" ख़ुशियों को तलाशने लग जायेंगे तो शायद ख़ुशियाँ ही हमसे दूर होती चली जायें।

जीने के बहाने लाखों हैं, जीना तुझको आया ही नहीं....कभी सोचिये इस तरह भी

'ख़ून भरी माँग' १९८८ की राकेश रोशन की ब्लॉकबस्टर फ़िल्म थी जो एक ऑस्ट्रेलियन मिनि सीरीज़ 'रिटर्ण टू ईडन' (१९८३) से प्रेरीत थी। यह कहानी है एक विधवा की जिसकी हत्या उसी का प्रेमी करना चाहता था, पर वो मौत के मुंह से निकल आती है और अपने प्रेमी से बदला लेती है।

आओ झूमें गायें, मिलके धूम मचायें....क्योंकि दोस्तों जश्न है ये ज़िदगी

किसी स्कूली छात्र को अगर "गाँव" शीर्षक पर निबन्ध लिखने को कहा जाये तो वह जिन जिन बातों का ज़िक्र करेगा, जिस तरह से गाँव का चित्रण करेगा, वो सब कुछ इस गीत में दिखाई देता है, और जैसे एक आदर्श गाँव का चित्र उभरकर हमारे सामने आता है। फ़िल्म 'पराया धन' शुरु होती है इसी गीत से और गीत में ही फ़िल्म की नामावली को शामिल किया गया है।

सुन सुन जीने वाले जीना है तो....झूमें हंसें सुनकर ऐसे मस्त गीत

यह गीत अपने आप में विविधता लिए हुए है। लता-किशोर की आवाज़ों के साथ साथ ऐनेटे की कन्ट्रास्ट भरी आवाज़ गीत को दूसरे गीतों से अलग करती है। विदेशी उच्चारण में शुद्ध हिन्दी के शब्दों को सुनना भी बड़ा मज़ेदार लगता है। ऐनेटे पिण्टो की आवाज़ सिडक्टिव आवाज़ है और शायद इसी वजह से जब भी संगीतकारों नें उनकी आवाज़ का इस्तेमाल अपने गीतों में किया, अधिकतर गानें वैसे ही किसी सिचुएशन के लिए बने होते थे।

सुनो ज़िंदगी गाती है...जाने कितने रंगों में डूबकर

इस भाव पर कई गीत बने हैं समय समय पर, कुछ के नाम गिनाते हैं - "ज़िन्दगी प्यार का गीत है, जिसे हर दिल को गाना पड़ेगा", "एक प्यार का नग़मा है, मौजों की रवानी है", "गीत है यह ज़िन्दगी, गुनगुनाते और गाते चले चलो", "ज़िन्दगी गीत है, अपने होठों पे इसको सजा लो", "ज़िन्दगी एक गीत है इसे होठों पे सजा ले", "जीवन को संगीत बना लो, एक जोगी का मीत बना लो", और भी न जाने कितने ऐसे गीत होंगे।

इस दुनिया में जीना हो तो...क्या करें सुने इस गीत में

फ़िल्म की कहानी कुछ इस तरह की थी कि एक नाइट क्लब में साथ-साथ नृत्य कर सात युवाओं की एक टीम (जिसमे पाँच पुरुष और दो महिलाएँ थीं) नें उस डान्स कम्पीटिशन को जीता, और इनाम के रूप में उन्हें एक प्राइवेट विमान से 'प्राइज़ हॉलिडे' में भेजे जाने का ऐलान हुआ। लेकिन नियति को कुछ और ही मंज़ूर था।।