अमर गीतकार और कवि शैलेन्द्र की ४२वीं पुण्यतिथि पर विशेष "अपने बारे में लिखना कोई सरल काम नही होता. किंतु कोई आदमी फंस जाए तो ! तो लिखना आवश्यक हो जाता है. मैं भी लिखने बैठा हूँ. बाहर बूंदा-बांदी हो रही है. मौसम बड़ा सुहाना है. कभी कभी तेज़ हवा के झोंखों से परदे फड़फड़ा उठते हैं. जैसे उड़ान भरने की कोशिश कर रहें हो ! मेरी कल्पना में अतीत के धुंधले चित्र स्पष्ट होने लगते हैं. पुरानी स्मृतियाँ उममें ऐसा रंग, जो तन मन मिट जाने पर भी ना मिटे...." (कवि और गीतकार शैलेन्द्र की आत्मकथा से) और आज से ४२ साले पहले, स्मृतियों के आकाश में विचरता वो जन साधारण के मन की बात कहने वाला कवि शरीर रूपी पिंजरा छोड़ हमेशा के लिए कहीं विलुप्त हो गया पर दे गया कुछ ऐसे गीत जो सदियों-सदियों गुनगुनाये जायेंगें, कुछ ऐसे नग्में जो हर आमो-ख़ास के दिल के जज़्बात को जुबाँ देते रहेंगे बरसों बरस. वो जिसने लिखा "दुनिया न भाये मुझे अब तो बुला ले" (बसंत बहार), उसी ने लिखा "पहले मुर्गी हुई कि अंडा" (करोड़पति), वो जिसने लिखा "डस गया पापी बिछुआ" उसी ने लिखा "क्या से क्या हो गया बेवफा ...