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इसी को प्यार कहते हैं.. प्यार की परिभाषा जानने के लिए चलिए हम शरण लेते हैं हसरत जयपुरी और हुसैन बंधुओं की

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०८ ग़ ज़लों की दुनिया में ग़ालिब का सानी कौन होगा! कोई नहीं! है ना? फिर आप उसे क्या कहेंगे जिसके एक शेर पर ग़ालिब ने अपना सारा का सारा दीवान लुटाने की बात कह दी थी.. "तुम मेरे पास होते हो गोया, जब कोई दूसरा नहीं होता।" इस शेर की कीमत आँकी नहीं जा सकती, क्योंकि इसे खरीदने वाला खुद बिकने को तैयार था। आपको पता न हो तो बता दूँ कि यह शेर उस्ताद मोमिन खाँ ’मोमिन’ का है। अब बात करते हैं उस शायर की, जिसने इस शेर पर अपना रंग डालकर एक रोमांटिक गाने में तब्दील कर दिया। न सिर्फ़ इसे तब्दील किया, बल्कि इस गाने में ऐसे शब्द डाले, जो उससे पहले उर्दू की किसी भी ग़ज़ल या नज़्म में नज़र नहीं आए थे - "शाह-ए-खुबां" (इस शब्द-युग्म का प्रयोग मैंने भी अपने एक गाने " हुस्न-ए-इलाही " में कर लिया है) एवं "जान-ए-जानाना"। दर-असल ये शायर ऐसे प्रयोगों के लिए "विख्यात"/"कुख्यात" थे। इनके गानों में ऐसे शब्द अमूमन हीं दिख जाते थे, जो या तो इनके हीं गढे होते थे या फिर न के बराबर प्रचलित। फिर भी इनके गानों की प्रसिद्धि कुछ कम न थी। इन्हें यूँ ह

तुझे भूलने की दुआ करूँ तो दुआ में मेरी असर न हो.. बशीर और हुसैन बंधुओं ने माँगी बड़ी हीं अनोखी दुआ

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९१ "ज गजीत सिंह ने आठ गज़लें गाईं और उनसे एक लाख रुपए मिले, अपने जमाने में गालिब ने कभी एक लाख रुपए देखे भी नहीं होंगे।" - शाइरी की बदलती दुनिया पर बशीर बद्र साहब कुछ इस तरह अपने विचार व्यक्त करते हैं। वे खुद का मुकाबला ग़ालिब से नहीं करते, लेकिन हाँ इतना तो ज़रूर कहते हैं कि उनकी शायरी भी खासी मक़बूल है। तभी तो उनसे पूछे बिना उनकी शायरी प्रकाशित भी की जा रही है और गाई भी जा रही है। बशीर साहब कहते हैं- "पाकिस्तान में मेरी शाइरी ऊर्दू में छपी है, खूब बिक रही है, वह भी मुझे रायल्टी दिए बिना। वहां किसी प्रकाशक ने कुलयार बशीर बद्र किताब छापी है। जिसे हिंदी में तीन अलग अलग पुस्तक "फूलों की छतरीयां", "सात जमीनें एक सितारा" और "मोहब्बत खुशबू हैं" नाम से प्रकाशित किया जा रहा है। अभी हरिहरन ने तीस हजार रुपए भेजे हैं, मेरी दो गजलें गाईं हैं। मुझसे पूछे बगैर पहले गा लिया और फिर मेरे हिस्से के पैसे भेज दिए। मेरे साथ तो सभी अच्छे हैं। अल्लामा इकबाल, फैज अहमद फैज, सरदार जाफरी, कैफी आजमी, साहिर लुधियानवी ये सब इंकलाबी शायरी करते थे, लेकिन म

आप आएँगे करार आ जाएगा.. .. महफ़िल-ए-चैन और "हुसैन"

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१९ ऐ से कितने सारे गज़ल गायक होंगे जो यह दावा कर सकते हों कि उन्होंने भारत के राष्ट्रपति के सामने अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया है। अगर इतना भी हो तो बहुत है, लेकिन अगर मैं यह पूछूँ कि किनका यह सौभाग्य रहा है कि उनके संगीत एलबम का विमोचन खुद भारत के प्रधानमंत्री ने किया हो , तो मुझे नहीं लगता कि आज के फ़नकार को छोड़कर और कोई होगा। यह समय और किस्मत का एक खेल हीं कहिए को जिनको खुदा ने धन नहीं दिया, उन्हें ऐसा बाकपन परोसा है कि सारी दुनिया बस इसी एक "तमगे" के लिए उनसे रश्क करती है, आखिर करे भी क्यों न, इस तमगे, इस सम्मान के सामने बाकियों की क्या बिसात! यह सन् ७६ की बात है, जब हमारे इन फ़नकार ने तत्कालीन राष्ट्रपति "श्री फखरूद्दीन अली अहमद" के सामने अपनी गज़ल की तान छेड़ी थी। इस मुबारक घटना के छह साल बाद यानी कि १९८२ में इनके "रिकार्ड" को श्रीमती इंदिरा गाँधी ने अपने कर-कमलों से विमोचित किया था। सरकारी महकमों तक में अपनी छाप छोड़ने वाले इन फ़नकारों( दर-असल आज हम जिनकी बात कर रहे हैं, वे महज एक फ़नकार नही, बल्कि दो हैं, जी हाँ हम गायक-बंधुओं की