कब से हूँ क्या बताऊँ जहां-ए-ख़राब में.. चचा ग़ालिब की हालत बयां कर रहे हैं मेहदी हसन और तरन्नुम नाज़
महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७५ यू सुफ़ मिर्जा, मेरा हाल सिवाय मेरे ख़ुदा और ख़ुदाबंद के कोई नहीं जानता। आदमी कसरत-ए-ग़म से सौदाई हो जाते हैं, अक़्ल जाती रहती है। अगर इस हजूम-ए-ग़म में मेरी कुव्वत मुतफ़क्रा में फ़र्क आ गया हो तो क्या अजब है? बल्कि इसका बावर न करना ग़ज़ब है। पूछो कि ग़म क्या है? ग़म-ए-मर्ग, ग़म-ए-फ़िराक़, ग़म-ए-रिज़्क, ग़म-ए-इज्ज़त? ग़म-ए-मर्ग में क़िलआ़ नामुबारक से क़ताअ़ नज़र करके, अहल-ए-शहर को गिनता हूँ। ख़ुदा ग़म-ए-फ़िराक को जीता रखे। काश, यह होता कि जहाँ होते, वहाँ खुश होते। घर उनके बेचिराग़, वह खुद आवारा। कहने को हर कोई ऐसा कह सकता है़, मगर मैं अ़ली को गवाह करके कहता हूँ कि उन अमावत के ग़म में और ज़ंदों के फ़िराक़ में आ़लम मेरी नज़र में तीर-ओ-तार है। हक़ीक़ी मेरा एक भाई दीवाना मर गया। उसकी बेटी, उसके चार बच्चे, उनकी माँ, यानी मेरी भावज जयपुर में पड़े हुए हैं। इन तीन बरस में एक रुपया उनको नहीं भेजा। भतीजी क्या कहती होगी कि मेरा भी कोई चच्चा है। यहाँ अग़निया और उमरा के अज़दवाज व औलाद भीख माँगते फिरें और मैं देखूँ। इस मुसीबत की ताब लाने को जिगर चाहिए। अब ख़ास दुख रोता हूँ। एक