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मारवा थाट के राग : SWARGOSHTHI – 219 : MARAVA THAAT

स्वरगोष्ठी – 219 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 6 : मारवा थाट संगीत रचनाएँ राग मारवा और सोहनी की ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की छठें अंक में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन दस थाट का प्रचलन पण्डित विष्णु नारायण भातखण्डे जी ने प्रारम्भ

२५ दिसम्बर - आज के कलाकार - नौशाद, अटल बिहारी बाजपेयी, नगमा - जन्मदिन मुबारक

२५ दिसम्बर जन्मदिन है तीन लोगों का. नौशाद साहब,पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी और हिन्दी तारिका नगमा का. अटल जी जितने अच्छे राजनीतिज्ञ हैं उतने ही बढ़िया कवि भी. उनकी कुछ कविताओं को जगजीत सिंह ने अपनी आवाज दी थी.

चाह बरबाद करेगी हमें मालूम न था....एक गीत जो वास्तव में बेहद करीब था सहगल के जीवन के भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 629/2010/329 फ़ि ल्म जगत के प्रथम सिंगिंग् सुपरस्टार कुंदन लाल सहगल को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'मधुकर श्याम हमारे चोर' की नौवीं कड़ी में आप सब का एक बार फिर बहुत बहुत स्वागत है। १९४२ में 'भक्त सूरदास' और १९४३ में 'तानसेन' में अभिनय व गायन करने के बाद १९४४ में सहगल साहब और रणजीत मूवीटोन के संगम से बनीं एक और लाजवाब म्युज़िकल फ़िल्म 'भँवरा'। लेकिन इस फ़िल्म को वो बुलंदी नहीं मिली जो 'भक्त सूरदास' और 'तानसेन' को मिली थी। आपको शायद याद होगा इस फ़िल्म का अमीरबाई के साथ उनका गाया गीत " क्या हमने बिगाड़ा है, क्यों हमको सताते हो " हमनें 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'गीत गड़बड़ी वाले' में सुनवाया था और बताया कि किस तरह से सहगल साहब नें इस गाने में गड़बड़ी की थी। ख़ैर, इसी साल १९४४ में सहगल साहब वापस कलकत्ता गये और उसी न्यु थिएटर्स के लिए एक फ़िल्म में अभिनय/गायन किया जिस न्यु थिएटर्स से वो शोहरत की बुलंदियों तक पहुँचे थे। यह फ़िल्म थी 'माइ सिस्टर'। पंडित भूषण के लिख

एक तुम हो एक मैं हूँ, और नदी का किनारा है....जब सुर्रैया ने याद किया अपने शुरूआती रेडियो के दिनों को

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 584/2010/284 ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार! 'तेरा ख़याल दिल से भुलाया ना जाएगा' लघु शृंखला की चौथी कड़ी में आज हम फिर एक बार सुरैया के बचपन के दिनों में चलना चाहेंगे, जब वो रेडियो से जुड़ी हुई थीं। दोस्तों, १९७१ में 'विशेष जयमाला' के अलावा भी १९७५ में सुरैया जी को विविध भारती के स्टुडिओज़ में आमंत्रित किया गया था एक इंटरव्यु के लिए। उसी इंटरव्यु से चुनकर एक अंश यहाँ हम पेश कर रहे हैं। सुरैया से बातचीत कर रहे हैं शमीम अब्बास। शमीम: सुरैया जी, आदाब! सुरैया: आदाब! शमीम: सुरैया जी, मुझे आप बता सकती हैं कि कितने दिनों के बाद विविध भारती के स्टुडियो में आप फिर आयी हैं? सुरैया: देखिए अब्बास साहब, मेरे ख़याल से, वैसे तो मैं सालों के बाद आयी हूँ, लेकिन आपको मैं एक बात बताऊँगी कि मैं पाँच की उम्र से रेडियो स्टेशन में आ गई थी और मेरे लिए यह कोई नयी जगह नहीं है। मैं कैसे आयी यह आपको ज़रूर बताऊँगी। संगीतकार मदन मोहन जी मेरे पड़ोसी हुआ करते थे, और वो बच्चों के कार्यक्रम में हमेशा हिस्सा लिया करते थे। तो वे मुझे खींचकर यहाँ ले आये। शमीम: विविध भारती त

तेरा ख्याल दिल से भुलाया न जायेगा....वाकई सुर्रैया को कभी भी भुला नहीं पायेगें हिंदी फिल्म संगीत के रसिक

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 582/2010/282 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार! आज ३१ जनवरी है। आज के ही दिन सन् २००४ में गायिका-अभिनेत्री सुरैया इस दुनिया-ए-फ़ानी को हमेशा के लिए छोड़ कर चली गईं थीं। सुरैया ने गीत गाना ६० के दशक में ही छोड़ दिया था, लेकिन उनकी आवाज़ में कुछ ऐसी बात है कि आज इतने दशकों बाद भी उनके गाये गीतों को हमने अपने कलेजे से लगा रखा है। 'आवाज़' परिवार की तरफ़ से सुरैया जी को हम श्रद्धांजली अर्पित करते हैं और उन्हीं पर केन्द्रित लघु शृंखला 'तेरा ख़याल दिल से भुलाया ना जाएगा' को आगे बढ़ाते हैं। सच ही तो कहा है इस गीत के गीतकार शक़ील बदायूनी ने कि "तेरा ख़याल दिल से भुलाया ना जाएगा, उल्फ़त की ज़िंदगी को मिटाया ना जाएगा"। सुरैया की सुंदरता, अभिनय और गायन, इन तीनों आयामों में ही सुरैया अपने दौर में सब से उपर रहीं। और क्यों ना हो जब उनका नाम ही "सुर" से शुरु होता है! युं तो हर फ़िल्म कलाकार के अपने प्रशंसक होते हैं, 'फ़ैन फ़ॊलोविंग्' होती है, पर अगर कलाकार में रूप के साथ-साथ स्वर का भी संगम हो, बड़ी-बड़ी नशीली आँखों के साथ-

पंछी जा पीछे रहा बचपन मेरा....एक कोशिश ओल्ड इस गोल्ड की अमर गायिका सुर्रैया की यादों को ताज़ा करने की

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 581/2010/281 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार! आज ३० जनवरी, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी का शहीदी दिवस है। आज के इस दिन का हम शहीदी दिवस के रूप में पालन करते हैं। 'आवाज़' परिवार की तरफ़ से हम श्रद्धांजली अर्पित करते हैं इस मातृभूमि पर अपने प्राण न्योचावर करने वाले हर जाँबाज़ वीर को। आज से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर न केवल एक नई सप्ताह का आग़ाज़ हो रहा है, बल्कि आज से एक नई लघु शृंखला भी शुरु हो रही है। हिंदी फ़िल्मों के पहले और दूसरे दौर में गायक-अभिनेताओं का रिवाज़ हुआ करता था। बहुत से ऐसे सिंगिंग स्टार्स हुए हैं जो न केवल अपने अभिनय से बल्कि अपने गायन से भी पूरी दुनिया पर छा गये। ऐसी ही एक गायिका-अभिनेत्री जिन्होंने जनसाधारण के दिलों पर राज किया, अपने सौंदर्य और सुरीली आवाज़ से लोगों के मनमोर को मतवाला बनाया, जिनके नैनों ने लोगों के छोटे छोटे जिया को चोरी किया, और जिनके गाये गीतों को सुनकर लोगों ने भी स्वीकारा कि उनकी गायकी में एक उम्र तक असर होनेवाली बात है। जी हाँ, हम उसी गायिका अभिनेत्री की बात कर रहे हैं जो ३१ जनवरी २००४ को हम

इन्साफ का मंदिर है ये भगवान का घर है.....विश्वास से टूटे हुओं को नयी आस देता ये भजन

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 538/2010/238 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में इन दिनों जारी है लघु शृंखला 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ'। इसके दूसरे खण्ड में इस हफ़्ते आप पढ़ रहे हैं सुप्रसिद्ध फ़िल्मकार महबूब ख़ान के फ़िल्मी सफ़र के बारे में, और साथ ही साथ सुन रहे हैं उनकी फ़िल्मों के कुछ सदाबहार गानें और उनसे जुड़ी कुछ बातें। आइए आज उनकी फ़िल्मी यात्रा की कहानी को आगे बढ़ाते हैं ४० के दशक से। द्वितीय विश्वयुद्ध से उत्पन्न अस्थिरता के लिए सागर मूवीटोन को भी कुर्बान होना पड़ा। कंपनी बिक गई और नई कंपनी 'नैशनल स्टुडिओज़' की स्थापना हुई। 'सागर' की अंतिम फ़िल्म थी १९४० की 'अलिबाबा' जिसका निर्देशन महबूब ख़ान ने ही किया था। नैशनल स्टुडिओज़ बनने के बाद महबूब साहब इस कंपनी से जुड़ गये और इस बैनर पे उनके निर्देशन में तीन महत्वपूर्ण फ़िल्में आईं - 'औरत' (१९४०), 'बहन' (१९४१) और 'रोटी' (१९४२)। 'सागर' और 'नैशनल स्टुडिओज़' के जितनी भी फ़िल्मों की अब तक हमने चर्चा की, उन सभी में संगीत अनिल बिस्वास के थे। अनिल दा महबूब साहब के अच्छे दोस्त भी थे

आज मेरे मन में सखी बांसुरी बजाये कोई....एक ख़ुशमिज़ाज नग्मा लता की आवाज़ में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 537/2010/237 म हबूब ख़ान का फ़िल्मी सफ़रनामा लेकर हमने कल से शुरु की है लघु शृंखला 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ' का दूसरा खण्ड। ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और बहुत बहुत स्वागत है इस सुरीली महफ़िल में। महबूब साहब की फ़िल्मी यात्रा में कल हम आ पहुँचे थे उनकी पहली निर्देशित फ़िल्म 'दि जजमेण्ट ऒफ़ अल्लाह' तक। अभिनय और निर्देशक बनने के साथ साथ उन्होंने लेखन कार्य में भी हाथ डाला था। 'दि जजमेण्ट ऒफ़ अल्लाह' की कहानी और स्क्रीनप्ले तथा १९३८ की फ़िल्म 'वतन' की कहानी उन्होंने ही लिखी थी। लेकिन महबूब साहब जाने गये एक उत्कृष्ट फ़िल्म निर्देशक के रूप में। तो आइए उनके निर्देशन करीयर को थोड़ा विस्तार से जानने की हम कोशिश करें। ३० के दशक के उस दौर में कुंदन लाल सहगल की वजह से कलकत्ते का न्यु थिएटर्स फ़िल्म जगत पर राज कर रही था। ऐसे में सागर मूवीटोन के महबूब ख़ान ने सुरेन्द्रनाथ को लौंच कर न्यु थिएटर्स के सामने प्रतियोगिता की भावना रख दी। १९३६ में सागर मूवीटोन के बैनर तले महबूब साहब ने दो फ़िल्में निर्देशित कीं - 'डेक्कन क्वीन'

उठाये जा उनके सितम और जीये जा.....जब लता को परखा निर्देशक महबूब खान ने

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 536/2010/236 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का इस स्तंभ में। पिछले हफ़्ते से हमने शुरु की है लघु शृंखला 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ', जिसके अंतर्गत हम कुल चार महान फ़िल्मकारों के फ़िल्मी सफ़र की चर्चा कर रहे हैं और साथ ही साथ उनकी फ़िल्मों से चुन कर पाँच पाँच मशहूर गीत सुनवा रहे हैं। इस लघु शृंखला के पहले खण्ड में पिछले हफ़्ते आप वी. शांताराम के बारे में जाना और उनकी फ़िल्मों के गीत सुनें। आज आज से शुरु करते हैं खण्ड-२, और इस खण्ड में चर्चा एक ऐसे फ़िल्मकार की जिन्होंने भी हिंदी सिनेमा को कुछ ऐसी फ़िल्में दी हैं कि जो सिने-इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज हो चुकी हैं। आप हैं महबूब ख़ान। एक बेहद ग़रीब आर्थिक पार्श्व और कम से कम शिक्षा से शुरु कर महबूब ख़ान इस देश के महानतम फ़िल्मकारों में से एक बन गये, उनके जीवन से आज भी हमें सबक लेना चाहिए कि जहाँ चाह है वहाँ राह है। महबूब ख़ान का जन्म १९०७ में हुआ था गुजरात के बिलिमोरिया जगह में। उनका असली नाम था रमज़ान ख़ान। वो अपने घर से भाग कर बम्बई चले आये थे और फ़िल्म स्टुडियोज़ म

ई मेल के बहाने यादों के खजाने (१८).....जब अश्विनी कुमार रॉय ने याद किया नौशाद साहब को

नमस्कार! 'ओल इज़ गोल्ड' के सभी दोस्तों, सभी चाहनेवालों का हम फिर एक बार इस साप्ताहिक विशेषांक में हार्दिक स्वागत करते हैं। हफ़्ते दर हफ़्ते हम इस साप्ताहिक स्तंभ में आपके ईमेलों को शामिल करते चले आ रहे हैं। और हम आप सभी का तहे दिल से शुक्रिया अदा करते हैं कि आपने हमारे इस नए प्रयास को हाथों हाथ ग्रहण किया और अपने प्यार से नवाज़ा, और इसे सफल बनाया। हमारे वो साथी जो अब तक इस साप्ताहिक स्तम्भ से थोड़े दूर दूर ही रहे हैं, उनसे भी हमारी ग़ुज़ारिश है कि कम से कम एक ईमेल तो हमें करें अपनी यादें हमारे साथ बांटें। और कुछ ना सही तो किसी गीत की ही फ़रमाइश हमें लिख भेजें बस इतना लिखते हुए कि यह गीत आपको क्यों इतना पसंद है। oig@hindyugm.com के पते पर हम आपके ईमेलों का इंतज़ार किया करते हैं। और आइए अब पढ़ें कि आज किन्होंने हमें ईमेल किया है.... ********************************************** महोदय, नमस्कार! वास्तव में पहले से ही मालूम था कि हमारी सभ्यता और संस्कृति सब से महान थी और आज भी है, आने वाले समय में भी इसकी बराबरी शायद ही कोई कर पाए। जो संगीत मैंने बचपन में सुना था वह आज इंटरनेट के म

नौशाद - शकील की जोड़ी ने हिंदी फिल्म संगीत को जन जन का संगीत बनाया उसका सरलीकरण करके

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # २७ 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल' में आज प्रस्तुत है शक़ील - नौशाद की एक रचना जिसे फ़िल्म के लिए मोहम्मद रफ़ी ने गाया था। फ़िल्म 'दुलारी' का यह गीत है "सुहानी रात ढल चुकी, ना जाने तुम कब आओगे"। १९४९ का साल शक़ील-नौशाद के लिए एक सुखद साल रहा। महबूब ख़ान की फ़िल्म 'अंदाज़', ताजमहल पिक्चर्स की फ़िल्म 'चांदनी रात', तथा ए. आर. कारदार साहब की दो फ़िल्में 'दिल्लगी' और 'दुलारी' इसी साल प्रदर्शित हुई थी और ये सभी फ़िल्मों का गीत संगीत बेहद लोकप्रिय सिद्ध हुआ था। आज ज़िक्र 'दुलारी' का। इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे सुरेश, मधुबाला और गीता बाली। फ़िल्म का निर्देशन कारदार साहब ने ख़ुद ही किया था। आज के प्रस्तुत गीत पर हम अभी आते हैं, लेकिन उससे पहले आपको यह बताना चाहेंगे कि इसी फ़िल्म में लता जी और रफ़ी साहब ने अपना पहला डुएट गीत गाया था, यानी कि इसी फ़िल्म ने हमें दिया पहला 'लता-रफ़ी डुएट' और वह गीत था "मिल मिल के गाएँगे दो दिल यहाँ, एक तेरा एक मेरा"। एक और ऐसा युगल गीत था "रात रंगीली मस्त

४०० एपिसोडों के लंबे सफर में ओल्ड इस गोल्ड ने याद किये कुछ ऐसे फनकारों को भी जिन्हें समय ने भुला ही दिया था

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # २३ ४० के दशक की एक प्रमुख गायिका रहीं हैं ज़ोहराबाई अंबालेवाली। भले ही फ़िल्म संगीत का सुनेहरा दौर ५० के दशक से माना जाता है, लेकिन सुनहरे गीतों का यह सिलसिला ४० के दशक के मध्य भाग से ही शुरु हो चुका था, और इसी दौरान ज़ोहराबाई के गाए एक से एक हिट गीत आ रहे थे। नौशाद साहब के संगीत में ज़ोहराबाई ने फ़िल्म 'रतन' में एक गीत गाया था " अखियाँ मिलाके जिया भरमके चले नहीं जाना ", जो शायद ज़ोहराबाई का सब से लोकप्रिय गीत साबित हुआ। आज इसी गीत का रिवाइव्ड वर्ज़न प्रस्तुत है। इस फ़िल्म के संगीत से जुड़ी कुछ बड़ी ही दिलचस्प और मज़ेदार बातें नौशाद साहब ने विविध भारती के 'नौशादनामा' शृंखला में कहे थे सन् २००० में, आइए आज उन्ही पर एक नज़र दौड़ाएँ। नौशाद साहब से बातचीत कर रहे हैं कमल शर्मा। प्र: अच्छा वह क़िस्सा कि जब आप की शादी में बैण्ड वाले आप के ही गानें की धुन बजा रहे थे, उसके बारे में कुछ बताइए। उ: १९४४ में 'रतन' के गानें बहुत हिट हो गए थे। उससे पहले मैं घर छोड़ कर बम्बई आया था। एक दिन मेरे वालिद ने मुझसे कहा था कि 'तुमने मेरा कहना क

तस्वीर-ए-मोहब्बत थी जिसमें...ओल्ड इस गोल्ड में आज पेश है मंदार नारायण की पसंद

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 405/2010/105 ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में हम हमारी पसंद के गीतों को तो सुनवाते ही रहते हैं। इन दिनों हम ख़ास आपकी पसंदीदा गीतों को समेट कर प्रस्तुत कर रहे हैं लघु शृंखला 'पसंद अपनी अपनी'। आज इस महफ़िल को सजाने के लिए हम लेकर आए हैं एक मुजरा गीत। युं तो बहुत सारी गायिकाओं ने मुजरे गाए गाए हैं, और अक्सर ऐसा हुआ है कि क्योंकि फ़िल्म में मुजरा हीरोइन पर नहीं बल्कि किसी चरित्र अभिनेत्री पर फ़िल्माया जाता रहा है, इसलिए कई बार फ़िल्म की मुख्य गायिका (जो ज़्यादातर लता जी हुआ करती थीं) से ये मुजरे नहीं गवाए जाते थे बल्कि आशा जी या उषा जी या फिर कोई और कमचर्चित गायिका की आवाज़ में ये मुजरे होते थे। वैसे लता जी ने भी बहुत से मुजरे गाए हैं, लेकिन मेरे हिसाब से मुजरों में जान डालने में आशा जी का कोई सानी नहीं है। ५० के दशक से लेकर ८० के दशक तक आशा जी ने बेहिसाब मुजरे गाये हैं। किसी मुजरे की खासियत होती है कि उसमें नुकीली आवाज़ के साथ साथ थोड़ी सी शोख़ी, थोड़ी सी शरारत, थोड़ी सी बेवफ़ाई, थोड़ा सा दर्द, और अपनी तरफ़ आकृष्ट करने की क्षमता होनी चाहिए। और ये सब गुण आशा जी की

बेताब है दिल दर्द-ए-मोहब्बत के असर से...सुरैया और उमा देवी के युगल स्वरों में ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 392/2010/92 'स खी सहेली' की दूसरी कड़ी में आप सभी का एक बार फिर स्वागत है। महिला युगल गीतों की इस शृंखला में कल आप ने ज़ोहराबाई अम्बालेवाली और शमशाद बेग़म का गाया एक बच्चों वाला गाना सुना था। आज हमने जिन दो गायिकाओं को चुना है वे हैं सुरैय्या और उमा देवी। बहुत ही दुर्लभ जोड़ी है, और इस जोड़ी की याद आते ही हमें झट से याद आती है १९४७ की फ़िल्म 'दर्द' का वही सुरीला गीत, याद है ना "बेताब है दिल दर्द-ए-मोहब्बत के असर से, जिस दिन से मेरा चांद छुपा मेरी नज़र से"। बहुत दिनों से आपने यह गीत नहीं सुना होगा, है ना? तो चलिए आज उन पुरानी यादों को एक बार फिर से ताज़ा कीजिए शक़ील बदायूनी के लिखे इस गीत से जिसकी तर्ज़ बनाई थी नौशाद अली ने। फ़िल्म 'दर्द' का निर्माण व निर्देशन किया था अब्दुल रशीद कारदार ने, जिन्हे हम ए. आर. कारदार के नाम से बेहतर जानते हैं। श्याम, नुसरत, मुअव्वर सुल्ताना, सुरैय्या, बद्री प्रसाद, हुस्न बानो, प्रतिमा देवी प्रमुख अभिनीत इस फ़िल्म से ही शक़ील और नौशाद की जोड़ी शुरु हुई थी। इस फ़िल्म के कुछ गीत उमा देवी ने गाए, कुछ स