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"कई सदियों से, कई जनमों से...", केवल 24 घण्टे के अन्दर लिख, स्वरबद्ध और रेकॉर्ड होकर पहुँचा था सेट पर यह गीत

एक गीत सौ कहानियाँ - 80   ' कई सदियों से, कई जनमों से... '   रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार। दोस्तों, हम रोज़ाना रेडियो पर, टीवी पर, कम्प्यूटर पर, और न जाने कहाँ-कहाँ, जाने कितने ही गीत सुनते हैं, और गुनगुनाते हैं। ये फ़िल्मी नग़में हमारे साथी हैं सुख-दुख के, त्योहारों के, शादी और अन्य अवसरों के, जो हमारे जीवन से कुछ ऐसे जुड़े हैं कि इनके बिना हमारी ज़िन्दगी बड़ी ही सूनी और बेरंग होती। पर ऐसे कितने गीत होंगे जिनके बनने की कहानियों से, उनसे जुड़े दिलचस्प क़िस्सों से आप अवगत होंगे? बहुत कम, है न? कुछ जाने-पहचाने, और कुछ कमसुने फ़िल्मी गीतों की रचना प्रक्रिया, उनसे जुड़ी दिलचस्प बातें, और कभी-कभी तो आश्चर्य में डाल देने वाले तथ्यों की जानकारियों को समेटता है 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' का यह स्तम्भ 'एक गीत सौ कहानियाँ'। इसकी 80-वीं कड़ी में आज जानिए 1972 की फ़िल्म ’मिलाप’ के मशहूर गीत "कई सदियों से कई जनमों से..." के बारे में जिस

"रस्म-ए-उल्फ़त" के बाद और कोई गाना मत बजाना

एक गीत सौ कहानियाँ - 33   ‘ रस्म-ए-उल्फ़त को निभायें तो निभायें कैसे. ..’ 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! दोस्तों, हम रोज़ाना रेडियो पर, टीवी पर, कप्यूटर पर, और न जाने कहाँ-कहाँ, जाने कितने ही गीत सुनते हैं, और गुनगुनाते हैं। ये फ़िल्मी नग़में हमारे साथी हैं सुख-दुख के, त्योहारों के, शादी और अन्य अवसरों के, जो हमारी ज़िन्दगियों से कुछ ऐसे जुड़े हैं कि इनके बिना हमारी ज़िन्दगी बड़ी ही सूनी और बेरंग होती। पर ऐसे कितने गीत होंगे जिनके बनने की कहानियों से, उनसे जुड़ी दिलचस्प क़िस्सों से आप अवगत होंगे? बहुत कम, है न? कुछ जाने-पहचाने, और कुछ कमसुने फ़िल्मी गीतों की रचना प्रक्रिया, उनसे जुड़ी दिलचस्प बातें, और कभी-कभी तो आश्चर्य में डाल देने वाले तथ्यों की जानकारियों को समेटता है 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' का यह साप्ताहिक स्तंभ 'एक गीत सौ कहानियाँ'। इसकी 33वीं कड़ी में आज जानिये फ़िल्म 'दिल की राहें' की दिल को छू लेने वाली ग़ज़ल "रस्म-ए-उल्फ़त को निभायें तो निभायें कैसे..." के बारे में. &

मैं तो हर मोड पे तुझको दूंगा सदा....दिलों के बीच उभरी नफरत की दीवारों को मिटाने की गुहार

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 712/2011/152 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में कल से हमने शुरु की है सजीव सारथी की लिखी कविताओं की किताब ' एक पल की उम्र लेकर ' से १० चुने हुए कविताओं और उनसे सम्बंधित फ़िल्मी गीतों पर आधारित यह लघु शृंखला। आज इसकी दूसरी कड़ी में प्रस्तुत है कविता 'दीवारें'। मैं छूना चाहता हूँ तुम्हें महसूस करना चाहता हूँ तुम्हारा दिल पर देखना तो दूर मैं सुन भी नहीं पाता हूँ तुम्हें तुम कहीं दूर बैठे हो सरहदों के पार हो जैसे कुछ कहते तो हो ज़रूर पर आवाज़ों को निगल जाती हैं दीवारें जो रोज़ एक नए नाम की खड़ी कर देते हैं 'वो' दरमियाँ हमारे तुम्हारे घर की खिड़की से आसमाँ अब भी वैसा ही दिखता होगा ना तुम्हारी रसोई से उठती उस महक को पहचानती है मेरी भूख अब भी, तुम्हारी छत पर बैठ कर वो चाँदनी भर-भर पीना प्यालों में याद होगी तुम्हें भी मेरे घर की वो बैठक जहाँ भूल जाते थे तुम कलम अपनी तुम्हारे गले से लग कर रोना चाहता हूँ फिर मैं और देखना चाहता हूँ फिर तुम्हें चहकता हुआ अपनी ख़ुशियों में तरस गया हूँ सुनने को तुम्हारे बच्चों की किलकारियाँ जाने कितनी सदियाँ से पर सोचता हूँ

बदरा छाए रे, कारे कारे अरे मितवा...कभी कभी खराब फिल्मांकन अच्छे खासे गीत को ले डूबते हैं

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 515/2010/215 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! इन दिनों जारी है लघु शृंखला 'गीत गड़बड़ी वाले', और इसमें अब तक हमने आपको चार गानें सुनवा चुके हैं जिनमें कोई ना कोई भूल हुई थी, और उस भूल को नज़रंदाज़ कर गाने में रख लिया गया था। दोस्तों, अभी दो दिन पहले ही हमने 'बाप रे बाप' फ़िल्म का गीत सुनवाते वक़्त इस बात का ज़िक्र किया था कि किस तरह से फ़िल्मांकन के ज़रिए आशा जी की ग़लती को गीत का हिस्सा बना दिया था किशोर कुमार ने। लेकिन दोस्तों, अगर फ़िल्मांकन से इस ग़लती को सम्भाल लिया गया है, तो कई बार ऐसे भी हादसे हुए हैं कि फ़िल्मांकन की व्यर्थता की वजह से अच्छे गानें गड्ढे में चले गए। अब आप ही बताइए कि अगर गीत में बात हो रही है काले काले बादलों की, बादलों के गरजने की, पिया मिलन के आस की, लेकिन गाना फ़िल्माया गया हो कड़कते धूप में, वीरान पथरीली पहाड़ियों में, तो इसको आप क्या कहेंगे? जी हाँ, कई गानें ऐसे हुए हैं, जो कम बजट की फ़िल्मों के हैं। क्या होता है कि ऐसे निर्माताओं के पास धन की कमी रहती है, जिसकी वजह से उन्हें विपरीत हालातों में भी शूटिं

अहले दिल यूँ भी निभा लेते हैं....नक्श साहब का कलाम और लता की पुरकशिश आवाज़

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 453/2010/153 ख़ य्याम साहब एक ऐसे संगीतकार रहे जिन्होने ना केवल अपने संगीत के साथ कभी कोई समझौता नहीं किया, बल्कि उन्होनें कभी सस्ते बोल वाले गीतों को स्वरबद्ध करना भी नहीं स्वीकारा। नतीजा यह कि ख़य्याम साहब का हर एक गीत उत्कृष्ट है, क्लासिक है। ख़्य्याम साहब ८० के दशक के उन गिने चुने संगीतकारों में से हैं जिन्होने फ़िल्म संगीत के बदलते तेवर के बावजूद अपने स्तर को बनाए रखते हुए एक से एक नायाब गानें हमें दिए। इसलिए आश्चर्य की बात बिलकुल नहीं है कि हमारी इस शृंखला में कुल १० ग़ज़लों में से ४ ग़ज़लें ख़य्याम साहब की कॊम्पोज़ की हुई हैं। इन चार ग़ज़लों में से एक ग़ज़ल फ़िल्म 'उमरावजान' से कल आपने सुनी, आज दूसरी ग़ज़ल की बारी। और इस बार आवाज़ आशा जी की बड़ी बहन लता जी की। नक्श ल्यालपुरी साहब का कलाम है और क्या ख़ूब उन्होने लिखा है कि "अहल-ए-दिल यूँ भी निभा लेते हैं, दर्द सीने में छुपा लेते हैं"। आज 'सेहरा में रात फूलों की' शृंखला में इसी ग़ज़ल की बारी। १९८१ की फ़िल्म 'दर्द' की यह ग़ज़ल है। इस फ़िल्म के गीतों की अगर बात करें तो इसमें

ज़िंदगी किस मोड़ पर लाई मुझे...पूछते हैं तलत साहब नक्श की इस गज़ल में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 353/2010/53 य ह है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल और आप इन दिनों इस पर सुन रहे हैं तलत महमूद साहब पर केन्द्रित शृंखला 'दस महकती ग़ज़लें और एक मख़मली आवाज़'। तलत साहब की गाई ग़ज़लों के अलावा इसमें हम आपको उनके जीवन से जुड़ी बातें भी बता रहे हैं। कल हमने आपको उनके शुरुआती दिनों का हाल बताया था, आइए आज उनके शब्दों में जानें कि कैसा था उनका पहला पहला अनुभव बतौर अभिनेता। ये उन्होने विविध भारती के 'जयमाला' कार्यक्रम में कहे थे। " कानन देवी, एक और महान फ़नकार। उनके साथ मैंने न्यु थिएटर्स की फ़िल्म 'राजलक्ष्मी' में एक छोटा सा रोल किया थ। उस फ़िल्म में एक रोल था जिसमें उस चरित्र को एक गाना भी गाना था। निर्देशक साहब ने कहा कि आप तो गाते हैं, आप ही यह रोल कर लीजिये। मं अगले दिन ख़ूब शेव करके, दाढ़ी बनाकर सेट पर पहुँच, और तब मुझे पता चला कि दरसल रोल साधू का है। मेक-अप मैन आकर मेरा पूरा चेहरा सफ़ेद दाढ़ी से ढक दिया। जब गोंद सूखने लगा तो चेहरा इतना खिंचने लगा कि मुझसे मुंह भी खोला नहीं जा रहा था। निर्देशक साहब ने कहा कि ज़रा मुंह खोल कर तो गा

रस्म-ए-उल्फ़त को निभायें तो निभायें कैसे- लता का सवाल, नक्श ल्यालपुरी का कलाम

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 121 ल ता मंगेशकर की आवाज़ में मदन मोहन के संगीत से सजी हुई ग़ज़लें हमें एक अलग ही दुनिया में ले जाते हैं। यूँ तो ये ग़ज़लें ज़्यादातर राजा मेहंदी अली ख़ान, राजेन्द्र कृष्ण, और कुछ हद तक कैफ़ी आज़्मी ने लिखे थे, लेकिन एक फ़िल्म ऐसी भी रही है जिसमें मदन साहब की तर्ज़ पर इनमें से किसी ने भी नहीं बल्कि गीतकार नक्श ल्यालपुरी ने कम से कम दो बहुत ही ख़ूबसूरत ग़ज़लें लिखी हैं। यह फ़िल्म थी 'दिल की राहें' और आज इस महफ़िल में पेश-ए-ख़िदमत है इसी फ़िल्म से एक बेहद ख़ूबसूरत ग़ज़ल लताजी की आवाज़ में। 'दिल की राहें' बनी थी सन् १९७३ में जिसका निर्माण किया था एस. कौसर ने। बी. आर. इशारा निर्देशित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे राकेश पाण्डेय, रेहाना सुल्तान, और दिलीप दत्त प्रमुख। छोटी बजट की फ़िल्म थी और फ़िल्म नहीं चली, लेकिन आज अगर इस फ़िल्म को कोई याद करता है तो १००% इसके गीत संगीत की वजह से। मदन मोहन के जादूई संगीत, गीतकार और शायर नक्श ल्यालपुरी के पुर-असर अल्फ़ाज़, तथा लता मंगेशकर, उषा मंगेशकर और मन्ना डे के मधुर आवाज़ों ने इस फ़िल्म के गीतों को एक अलग ही बुल