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एक हीं बात ज़माने की किताबों में नहीं... महफ़िल-ए-ज़ाहिर और "फ़ाकिर"

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१७ कु छ गज़लें ऐसी होती हैं,जिन्हें आप हर दिन सुनते हैं,हर पल सुनना चाहते हैं, और बस सुनते हीं नहीं, गुनते भी हैं,लेकिन आपको उस गज़ल के गज़लगो की कोई जानकारी नहीं होती। कई सारे लोग तो उस गज़ल के गायक को हीं "गज़ल" का रचयिता माने बैठे होते हैं। "जगजीत सिंह" साहब की ऐसी हीं एक गज़ल है- "वो कागज़ की कस्ती,वो बारिश का पानी"- मेरे मुताबिक हर किसी ने इस गज़ल को सुना होगा, मैंने भी हज़ारों बार सुना है। लेकिन इसके गज़लगो, इसके शायर का नाम मुझे तब पता चला, जब उस शायर ने अपनी अंतिम साँस ले ली। जिस तरह पिछले अंक में मैंने "खुमार" साहब के बारे में कहा था कि वे हमेशा "गुमनाम" हीं रहे, आज के शायर के बारे में भी मैं ऐसा हीं कुछ कहना चाहता हूँ। लेकिन हाँ ठहरिये, इतनी सख्त बात कहने की गुस्ताखी मैं आज नहीं करूँगा। दर-असल हर शायर का अपना प्रशंसक-वर्ग होता है, जिसके लिए वह शायर कभी "गुमनाम" नहीं होता। शायद ऐसे हीं एक प्रशंसक(नाम जानने के लिए पिछले अंक की टिप्पणियों को देखें) को मेरी बात बुरी लग गई। इसलिए आज के शायर के बारे में मैं