महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१५ दे श से बाहर बसे खानाबदोशों को रूलाने के लिए करीब २३ साल पहले एक शख्स ने फिल्मी संगीत की तिलिस्मी दुनिया में कदम रखा था। "चिट्ठी" लेकर आया वह शख्स देखते हीं देखते कब गज़लों की दुनिया का एक नायाब हीरा हो गया,किसी को पता न चला। उसके आने से पहले गज़लें या तो बु्द्धिजीवियों की महफ़िलों में सजती थीं या फ़िर शास्त्रीय संगीत के कद्रदानों की जुबां पर और इस कारण गज़लें आम लोगों की पहुँच और समझ से दूर रहा करती थीं। वह आया तो यूँ लगा मानो गज़लों के पंख खोल दिए हों किसी ने। गज़ल आजाद हो गई और अब उसे बस गाया या समझा हीं नहीं जाने लगा बल्कि लोग उसे महसूस भी करने लगे। गज़ल कभी रूलाने लगी तो कभी दिल में हल्की टीस जगाने लगी। गज़लों को जीने वाला वह इंसान सीधे-साधे बोलों और मखमली आवाज़ के जरिये न जाने कितने दिलों में घर कर गया। फिर १९८६ में रीलिज हुई नाम की "चिट्ठी आई है" हो, १९९१ के साजन की "जियें तो जियें कैसे" हो या फिर ३ साल बाद रीलिज हुई "मोहरा" की "ना कज़रे की धार" हो, उस शख्स की आवाज़ की धार तब से अब तक हमेशा हीं तेज़-तर्रार रही ...