आज बाँसुरी शास्त्रीय संगीत के मंच पर स्वतन्त्र वाद्य, संगति वाद्य, सुगम और लोक-संगीत का मधुर और लोकप्रिय वाद्य बन चुका है। सामान्य तौर पर देखने में बाँस की, खोखली, बेलनाकार आकृति होती है, किन्तु इस सुषिर वाद्य की वादन तकनीक सरल नहीं है। बाँसुरी का अस्तित्व महाभारतकाल से पूर्व कृष्ण से जुड़े प्रसंगों में उपलब्ध है। शास्त्रीय वाद्य के रूप में इसे उत्तर भारत के साथ दक्षिण भारत के संगीत में समान रूप से लोकप्रियता प्राप्त है। पण्डित रघुनाथ सेठ की छवि वर्तमान बाँसुरी वादकों में प्रयोगशील वादक के रूप में लोकप्रिय है। आज के अंक में हम पण्डित रघुनाथ सेठ की बाँसुरी पर चर्चा करेंगे।
सुर संगम- 47 : पण्डित रघुनाथ सेठ की संगीत-साधना
‘सुर संगम’ के एक नए अंक में, मैं कृष्णमोहन मिश्र, अपने समस्त संगीत-रसिकों का ‘रेडियो प्लेबैक इंडिया’ के मंच पर हार्दिक स्वागत करता हूँ। आज के अंक में हम आपके साथ भारतीय संगीत वाद्य, बाँसुरी और इस वाद्य के एक अनन्य स्वर-साधक, पण्डित रघुनाथ सेठ की सृजनात्मक साधना पर चर्चा करेंगे। आपको हम यह भी अवगत कराना चाहते हैं कि १५ दिसम्बर को श्री सेठ का ८१ वाँ जन्म-दिवस है। इस उपलक्ष्य में हम ‘सुर संगम’ के पाठकों-श्रोताओं की ओर से उन्हें बधाई-स्वरूप यह अंक प्रस्तुत कर रहे हैं।
बाँसुरी वादन के क्षेत्र में अनेक अभिनव प्रयोग करते हुए भारतीय संगीत को समृद्ध करने वाले अप्रतिम कलासाधक पण्डित रघुनाथ सेठ का जन्म १५ दिसम्बर, १९३१ को ग्वालियर के एक ऐसे परिवार में हुआ था, जहाँ बहन-भाइयों को तो संगीत से अनुराग था, किन्तु उनके पिता इसके पक्ष में नहीं थे। प्रारम्भिक शिक्षा ग्वालियर में ग्रहण करने के बाद, रघुनाथ सेठ १३ वर्ष की आयु में अपने बड़े भाई काशीप्रसाद जी के पास लखनऊ आ गए। काशीप्रसाद जी उन दिनों लखनऊ के प्रतिष्ठित गायक और रंगमंच के अभिनेता थे। उन्होने अपने अनुज के लिए विद्यालय की शिक्षा के साथ-साथ स्थानीय भातखण्डे संगीत महाविद्यालय (अब विश्वविद्यालय) में संगीत-शिक्षा के लिए भी दाखिला दिला दिया। उन दिनों महाविद्यालय के प्राचार्य, डा. श्रीकृष्ण नारायण रातञ्जंकर थे। शीघ्र ही रघुनाथ सेठ उनके प्रिय शिष्यों में शामिल हो गए। डा. रातञ्जंकर जी से उन्होने पाँच वर्षों तक निरन्तर संगीत-शिक्षा ग्रहण की। इसी दौर में उन्होने बाँसुरी को ही अपने संगीत का माध्यम चुना। लखनऊ विश्वविद्यालय से रघुनाथ सेठ ने पुरातत्व शास्त्र विषय से स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण किया और इसी अवधि में अन्तर विश्वविद्यालय युवा महोत्सव में उन्हें बाँसुरी वादन के लिए सर्वश्रेष्ठ वादक का राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ। आइए यहाँ रुक कर पण्डित रघुनाथ सेठ की बाँसुरी पर सुनते हैं, राग शुद्ध सारंग। यह द्रुत तीनताल की रचना है।
बाँसुरी वादन - रघुनाथ सेठ – राग शुद्ध सारंग – द्रुत तीनताल
१९ वर्ष की आयु में रघुनाथ सेठ, लखनऊ से बम्बई (अब मुम्बई) गए। वहाँ विख्यात बाँसुरी वादक पण्डित पन्नालाल घोष से मैहर घराने की बारीकियाँ सीखी। प्रारम्भ से ही संगीत में नये प्रयोग के हिमायती श्री सेठ ने लगभग दो दशक पूर्व मेरे द्वारा किए गए एक साक्षात्कार में अपने कुछ प्रयोगों की चर्चा की थी। आपके लिए आज हम उक्त साक्षात्कार के कुछ अंश प्रस्तुत कर रहे हैं। एक प्रश्न के उत्तर में उन्होने कहा था कि संगीत उनके लिए योग-साधना है। उनके अनुसार भारतीय संगीत की प्रस्तुति में गायक-वादक का व्यक्तित्व प्रकट होता है। सच्चे सुरॉ की सहायता से कलासाधक और श्रोता समाधि की स्थिति में पहुँचता है। यही सार्थक परमानन्द की अनुभूति है। उनके अनुसार एक ही राग की अलग-अलग प्रस्तुति अलग-अलग भावों की सृष्टि करने में सक्षम है। उन्होने यह भी बताया था कि संगीत में गूँज, अनुगूँज, समस्वरता और उप-स्वरों का विशेष महत्त्व होता है। यह सब गुण तानपूरा में होता है, इसीलिए गायन-वादन के प्रत्येक कार्यक्रम में तानपूरा मौजूद अवश्य होता है। आगे चल कर रघुनाथ सेठ ने अपनी बाँसुरी और अपने सगीत में अनेकानेक सफल प्रयोग किये। आइए, आपको बाँसुरी पर उनके बजाये राग ‘नट भैरव’ की एक रचना सुनते हैं। इस रचना के आरम्भिक 45 सेकेण्ड तक बिना तानपूरे के बाँसुरी वादन हुआ है। लगभग साढ़े तीन मिनट के बाद रचना में ताल का प्रयोग हुआ है, किन्तु पारम्परिक रूप से तबला या पखावज के स्थान पर नल-तरंग जैसे वाद्य और पाश्चात्य लय वाद्यों का प्रयोग किया गया है। इस रचना का शीर्षक उन्होने ‘सूर्योदय’ रखा है। आप यह रचना सुनिए और शीर्षक की सार्थकता को प्रत्यक्ष अनुभव कीजिए।
बाँसुरी वादन - रघुनाथ सेठ – राग नट भैरव – प्रयोग : सूर्योदय
श्री सेठ ने शास्त्रीय मंचों पर अपनी प्रस्तुतियों से श्रोताओं को सम्मोहित करने के साथ-साथ भारत सरकार के फिल्म डिवीजन के लगभग दो हज़ार वृत्तचित्रों में संगीत दिया है। वर्ष १९६९ में वे फिल्म डिवीज़न के संगीतकार हुए थे। उनके अनेक वृत्तचित्रों को राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। श्री सेठ ने संगीत का मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव का गहन अध्ययन किया है और इस विषय पर अनेक संगीत रचनाएँ भी की है। बहुआयामी संगीतज्ञ पण्डित रघुनाथ सेठ ने कई फिल्मों में भी संगीत निर्देशन किया है। उनके संगीत से सजी फिल्में हैं- ‘फिर भी’ (१९७१), ‘किस्सा कुर्सी का’ (१९७७), ‘एक बार फिर’ (१९८०), ‘ये नज़दीकियाँ’ (१९८२), ‘दामुल’ (१९८५), ‘आगे मोड़ है’ (१९८७), ‘सीपियाँ’ (१९८८) और ‘मृत्युदण्ड’ (१९९७)। आज हम आपको १९८२ में प्रदर्शित फिल्म ‘ये नज़दीकियाँ’ का एक मधुर गीत सुनवाते हैं। गणेश बिहारी श्रीवास्तव के गीत को पार्श्वगायक भूपेंद्र सिंह ने स्वर दिया है। इस गीत के साथ हम आज के अंक को यहीं विराम देते है।
फिल्म : ये नज़दीकियाँ – ‘दो घड़ी बहला गई परछाइयाँ...’ संगीत : रघुनाथ सेठ
और अब बारी है इस कड़ी की पहेली की जिसका आपको देना होगा उत्तर तीन दिनों के अन्दर, इसी प्रस्तुति की टिप्पणी में। प्रत्येक सही उत्तर के आपको मिलेंगे ५ अंक। सुर संगम की ५०वीं कड़ी तक जिस पाठक/श्रोता के सर्वाधिक अंक होंगे, उन्हें मिलेगा, एक विशेष सम्मान हमारी ओर से।
सुर संगम 48 की पहेली : इस ऑडियो क्लिप को सुन कर आपको राग पहचानना है। राग का सही नाम बताने पर आपको मिलेंगे 5 अंक।
पिछ्ली पहेली का परिणाम : सुर संगम के 47वें अंक में पूछे गए प्रश्न का सही उत्तर है- बाँसुरी और तीनताल। परन्तु इस बार सही उत्तर किसी ने भी नहीं दिया। आशा है इस अंक की पहेली का सही उत्तर देने का प्रयास आप अवश्य करेंगे।
अब समय आ चला है आज के 'सुर-संगम' के अंक को यहीं पर विराम देने का। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई होगी। हमें बताइये कि किस प्रकार हम इस स्तम्भ को और रोचक बना सकते हैं! आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए admin@radioplaybackindia.com के ई-मेल पते पर।
कृष्णमोहन मिश्र
झरोखा अगले अंक काआपने हिज़ मास्टर्स वायस (HMV) के रिकार्ड पर एक चित्र देखा होगा, जिसमें ग्रामोफोन के सामने एक कुत्ता बैठा हुआ अपने स्वामी का संगीत सुन रहा है। आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि यह कुत्ता अपने समय के सुविख्यात शास्त्रीय गायक उस्ताद अब्दुल करीम खाँ साहब का था। अगले अंक में हम इसी सुरीले कुत्ते के स्वामी उस्ताद अब्दुल करीम खाँ की अनूठी गायकी पर आपसे चर्चा करेंगे। अगले रविवार को प्रातः ९-१५ बजे आपसे फिर मुलाकात होगी....।
Comments
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