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"तू मेरा कौन लागे?" क्या सम्बन्ध है इस गीत का किशोर कुमार से?

एक गीत सौ कहानियाँ - 85   ' तू मेरा कौन लागे... '   रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार। दोस्तों, हम रोज़ाना रेडियो पर, टीवी पर, कम्प्यूटर पर, और न जाने कहाँ-कहाँ, जाने कितने ही गीत सुनते हैं, और गुनगुनाते हैं। ये फ़िल्मी नग़में हमारे साथी हैं सुख-दुख के, त्योहारों के, शादी और अन्य अवसरों के, जो हमारे जीवन से कुछ ऐसे जुड़े हैं कि इनके बिना हमारी ज़िन्दगी बड़ी ही सूनी और बेरंग होती। पर ऐसे कितने गीत होंगे जिनके बनने की कहानियों से, उनसे जुड़े दिलचस्प क़िस्सों से आप अवगत होंगे? बहुत कम, है न? कुछ जाने-पहचाने, और कुछ कमसुने फ़िल्मी गीतों की रचना प्रक्रिया, उनसे जुड़ी दिलचस्प बातें, और कभी-कभी तो आश्चर्य में डाल देने वाले तथ्यों की जानकारियों को समेटता है 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' का यह स्तम्भ 'एक गीत सौ कहानियाँ'। इसकी 85-वीं कड़ी में आज जानिए 1989 की फ़िल्म ’बटवारा’ के लोकप्रिय गीत "तू मेरा कौन लागे..." के बारे में जिस...

चेहरा छुपा लिया है किसी ने हिजाब में....मजलिस-ए-कव्वाली के माध्यम से सभी श्रोताओं को ईद मुबारक

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 480/2010/180 आ प सभी को 'आवाज़' परिवार की तरफ़ से ईद-उल-फ़ित्र की दिली मुबारक़बाद। यह त्योहार आप सभी के जीवन में ख़ुशियाँ लेकर आए ऐसी हम कामना करते हैं। ईद-उल-फ़ित्र के साथ रमज़ान के महीने का अंत होता है और इसी के साथ क़व्वालियों की इस ख़ास मजलिस को भी आज हम अंजाम दे रहे हैं। ४० के दशक से शुरु कर क़व्वालियों का दामन थामे हर दौर के बदलते मिज़ाज का नज़ारा देखते हुए आज हम आ गए हैं ८० के दशक में। जिस तरह से ८० के दशक में फ़िल्म संगीत का सुनहरा दौर ख़त्म होने की कगार पर था, वही बात फ़िल्मी क़व्वालियों के लिए भी लागू थी। क़व्वालियों की संख्या भी कम होती जा रही थी। फ़िल्मों में क़व्वालियों के सिचुएशन्स आने ही बंद होते चले गए। कभी किसी मुस्लिम सबजेक्ट पर फ़िल्म बनती तो ही उसमें क़व्वाली की गुंजाइश रहती। कुछ गिनी चुनी फ़िल्में ८० के दशक की जिनमें क़व्वालियाँ सुनाई दी - निकाह, नूरी, परवत के उस पार, फ़कीरा, नाख़ुदा, नक़ाब, ये इश्क़ नहीं आसाँ, ऊँचे लोग, दि बर्निंग्‍ ट्रेन, अमृत, दीदार-ए-यार, आदि। इस दशक की क़व्वालियों का प्रतिनिधि मानते हुए आज की कड़ी के लिए हमने चु...

किसी नज़र को तेरा इंतज़ार आज भी है...हसन कमाल ने कुछ यूँ रंगा ये हिज्र और वस्ल का समां कि आज भी सुनें तो एक टीस सी उभर आती है

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 459/2010/159 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों जारी है ८० के दशक के दस चुनिंदा फ़िल्मी ग़ज़लों पर आधारित लघु शृंखला 'सेहरा में रात फूलों की'। ये दस ग़ज़लें दस अलग अलग शायरों के कलाम हैं। अब तक हमने इसमें जिन शायरों के कलाम सुनें हैं, वो हैं हसरत जयपुरी, शहरयार, नक्श ल्यालपुरी, इंदीवर, आरिफ खान, जावेद अख़्तर, इफ़्तिख़ार इमाम सिद्दिक़ी और कल आपने निदा फ़ाज़ली साहब की लिखी हुई ग़ज़ल सुनी। आज इस शृंखला की नवी कड़ी में पेश है शायर और गीतकार हसन कमाल का कलाम फ़िल्म 'ऐतबार' से। आशा भोसले और भूपेन्द्र की युगल आवाज़ों में यह ग़ज़ल है। और दोस्तों, पहली बार इस ग़ज़ल के बहाने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुनाई दे रहा है संगीतकार बप्पी लाहिड़ी का संगीत। युं तो बप्पी दा डिस्को किंग् का इमेज रखते हैं, और ८० के दशक में फ़िल्म संगीत का स्तर गिराने वालों में उन्हे एक मुख्य अभियुक्त करार दिया जाता है, लेकिन यह बात भी सच है कि भले ही वो डिस्को और पाश्चात्य संगीत पर आधारित गानें ही ज़्यादा बनाए, लेकिन शास्त्रीय संगीत, लोक संगीत और सुगम संगीत पर भी उनकी पकड़ मज़बूत...