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जीने के बहाने लाखों हैं, जीना तुझको आया ही नहीं....कभी सोचिये इस तरह भी

'ख़ून भरी माँग' १९८८ की राकेश रोशन की ब्लॉकबस्टर फ़िल्म थी जो एक ऑस्ट्रेलियन मिनि सीरीज़ 'रिटर्ण टू ईडन' (१९८३) से प्रेरीत थी। यह कहानी है एक विधवा की जिसकी हत्या उसी का प्रेमी करना चाहता था, पर वो मौत के मुंह से निकल आती है और अपने प्रेमी से बदला लेती है।

आओ झूमें गायें, मिलके धूम मचायें....क्योंकि दोस्तों जश्न है ये ज़िदगी

किसी स्कूली छात्र को अगर "गाँव" शीर्षक पर निबन्ध लिखने को कहा जाये तो वह जिन जिन बातों का ज़िक्र करेगा, जिस तरह से गाँव का चित्रण करेगा, वो सब कुछ इस गीत में दिखाई देता है, और जैसे एक आदर्श गाँव का चित्र उभरकर हमारे सामने आता है। फ़िल्म 'पराया धन' शुरु होती है इसी गीत से और गीत में ही फ़िल्म की नामावली को शामिल किया गया है।

इस दुनिया में जीना हो तो...क्या करें सुने इस गीत में

फ़िल्म की कहानी कुछ इस तरह की थी कि एक नाइट क्लब में साथ-साथ नृत्य कर सात युवाओं की एक टीम (जिसमे पाँच पुरुष और दो महिलाएँ थीं) नें उस डान्स कम्पीटिशन को जीता, और इनाम के रूप में उन्हें एक प्राइवेट विमान से 'प्राइज़ हॉलिडे' में भेजे जाने का ऐलान हुआ। लेकिन नियति को कुछ और ही मंज़ूर था।।

ये चमन हमारा अपना है....राज कपूर की जयंती पर सुनें शैलेन्द्र -दत्ताराम रचित ये गीत

इस कथानक पर फिल्म बनवाने के पीछे नेहरू जी के दो उद्देश्य थे। मात्र एक दशक पहले स्वतंत्र देश के सरकार की न्याय व्यवस्था पर विश्वास जगाना और नेहरू जी का बच्चों के प्रति अनुराग को अभव्यक्ति देना। फिल्म के अन्तिम दृश्यों में नेहरू जी ने स्वयं काम करने की सहमति भी राज कपूर को दी थी। पूरी फिल्म बन जाने के बाद जब नेहरू जी की बारी आई तो मोरार जी देसाई ने उन्हें फिल्म में काम करने से रोका। नेहरू जी की राजनैतिक छवि के कारण अन्य लोगों ने भी उन्हें मना किया।

ते की मैं झूठ बोलेया...पूछा राज कपूर ने समाज से, सलिल चौधरी की धुन में

पूरी फिल्म में नायक कुछ नहीं बोलता। केवल अन्त में वह कहता है- ‘मैं थका-हारा-प्यासा पानी पीने यहाँ चला आया, और सब लोग मुझे चोर समझ कर मेरे पीछे भागे, जैसे मैं कोई पागल कुत्ता हूँ। मैंने यहाँ हर तरह के लोग और चेहरे देखे। मुझ गँवार को तुमसे यही शिक्षा दी कि चोरी किये बिना कोई बड़ा आदमी नहीं बन सकता... क्या सचमुच चोरी किये बिना कोई बड़ा आदमी नहीं बन सकता?’

हम प्यार करेंगे....कहा राज कपूर के लिए साथ आये हेमंत कुमार और मदन मोहन साहब ने

यह एकमात्र गीत है, जिसमें हेमन्त कुमार ने राज कपूर के लिए स्वर दिया और ‘धुन’ राज कपूर द्वारा अभिनीत एकमात्र वह फिल्म है जिसका संगीत मदनमोहन ने दिया। इस फिल्म के बाद फिल्म संगीत के इन दोनों दिग्गजों ने राज कपूर के साथ कभी कार्य नहीं किया।

बहारों ने जिसे छेड़ा है....वही तराना ज्ञानदत्त का रचा साजे दिल बना राज कपूर का

१९४९ में प्रदर्शित फिल्म ‘सुनहरे दिन’ का निर्माण जगत पिक्चर्स ने किया था, जिसके निर्देशक सतीश निगम थे। फिल्म में राज कपूर की भूमिका एक रेडियो गायक की थी। अपने श्रोताओं के बीच यह गायक चरित्र बेहद लोकप्रिय है। इस फिल्म का संगीत वर्तमान में लगभग विस्मृत संगीतकार ज्ञानदत्त ने दिया था।

जिन्दा हूँ इस तरह...राज कपूर के पहले संगीत निर्देशक राम गांगुली ने रचा था ये दर्द भरा नग्मा

राज कपूर के फिल्म-निर्माण की लालसा का आरम्भ फिल्म ‘आग’ से हुआ था, जिसके संगीतकार राम गांगुली थे। दरअसल यह पहली फिल्म राज कपूर के भावी फिल्मी जीवन का एक घोषणा-पत्र था। ठीक उसी प्रकार, जैसे लोकतन्त्र में चुनाव लड़ने वाला प्रत्याशी अपने दल का घोषणा-पत्र जनता के सामने प्रस्तुत करता है। ‘आग’ में जो मुद्दे लिये गए थे, बाद की फिल्मों में उन्हीं मुद्दों का विस्तार था, और ‘आग’ की चरम परिणति ‘मेरा नाम जोकर’ में हम देखते हैं।

एक राधा एक मीरा, दोनों ने श्याम को चाहा...दादु की दिव्य चेतना में कायम रहे उनकी संगीत साधना

टी.पी. साहब ने ज़िक्र किया कि दादु, राज साहब को गाना सुनाओ। यह गीत मैंने 'जीवन' फ़िल्म के लिए लिखा था, 'राजश्री' वालों के लिए। दो ऐसे गीत हैं जो दूसरी फ़िल्म में आ गए, उसमें से एक है 'अखियों के झरोखों से' का टाइटल सॉंग, सिप्पी साहब के लिए लिखा था जो 'घर' फ़िल्म बना रहे थे, लेकिन वो कुछ ऐसी बात हो गई कि उनके डिरेक्टर को पसन्द नहीं आया, उनको गाना ठंडा लगा। तो मैंने राज बाबू को सुना दिया तो उन्होंने यह टाइटल रख लिया। फिर सिप्पी साहब ने वही गाना माँगा मुझसे, मैंने कहा कि अब तो मैंने गाना दे दिया किसी को। बाद में ज़रा वो नाख़ुश भी हो गए थे। तो यह गाना 'जीवन' फ़िल्म के लिए, प्रशान्त नन्दा जी डिरेक्ट करने वाले थे, उसके लिए "एक राधा एक मीरा" लिखा था मैंने। तो राज साहब वहाँ बैठे थे। तो यह गाना जब सुनाया तो राज साहब ने दिव्या से पूछा कि यह गीत किसी को दिया तो नहीं? मैंने कहा कि नहीं, दिया तो नहीं! राज साहब तीन दिन थे और तीनो दिन वो मुझसे यह गाना सुनते रहे। और टी.पी. भाईसाहब से सवा रुपय लिया और मुझे देकर कहा कि आज से यह गाना मेरा हो गया, मुझे दे द

एक दिन तुम बहुत बड़े बनोगे...और दिल से बहुत बड़े बने दादु हमारे

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 797/2011/237 'मे रे सुर में सुर मिला ले' शृंखला की सातवीं कड़ी में आप सभी का स्वागत है। रवीन्द्र जैन के लिखे और स्वरबद्ध किए गीतों की इस शृंखला में आइए आज आपको बतायें कि दादु को बम्बई में पहला मौका किस तरह से मिला। " झुनझुनवाला जी नें मुझे कहा कि तुम अभी थोड़ा धैर्य रखो, यहाँ बैठ के काम करो, अपने घर में जगह दी, और काम करता रहा, उनको धुनें बना बना के सुनाता था, उन्होंने एक फ़िल्म प्लैन की 'लोरी', जिसके लिए हम बम्बई गानें रेकॉर्ड करने आए थे, जिसका मुकेश जी नें दो गानें गाये। मुकेश जी का एक गाना मैं आपको सुनाता हूँ, जो कुछ मैं कलकत्ते से यहाँ लेके आया था - "दुख तेरा हो कि दुख मेरा हो, दुख की परिभाषा एक है, आँसू तेरे हों कि आँसू मेरे हों, आँसू की भाषा एक है "।"

तू जो मेरे सुर में सुर मिला दे...दादु के इस मनुहार को भला कौन इनकार कर पाये

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 793/2011/233 "तू जो मेरे सुर में सुर मिला ले, संग गा ले, तो ज़िन्दगी हो जाये सफल"। यह बात किसी और के लिए सटीक हो न हो, रवीन्द्र जैन के लिए १००% सही है क्योंकि उनके सुरों में जिन जिन नवोदित गायक गायिकाओं नें सुर मिलाया, उन्हें प्रसिद्धि मिली, उन्हें यश प्राप्त हुआ, उनका करीयर चल पड़ा। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार सुजॉय चटर्जी का और इन दिनों इस स्तंभ में जारी है लघु शृंखला 'मेरे सुर में सुर मिला ले' जिसमें आप सुन रहे हैं गीतकार-संगीतकार रवीन्द्र जैन की फ़िल्मी रचनाएँ और जान रहे हैं उनके जीवन की दास्तान उनकी ही ज़ुबानी विविध भारती की शृंखला 'उजाले उनकी यादों के' के सौजन्य से। कल की कड़ी में आपने जाना कि किस तरह से जन्म से ही उनकी आँखों की रोशनी जाती रही और इस कमी को ध्यान में रखते हुए उनके पिताजी नें उन्हें गीत-संगीत की तरफ़ प्रोत्साहित किया। अब आगे की कहानी दादु की ज़ुबानी - " तो यहाँ अलीगढ़ में नाटकों में मास्टर जी. एल. जैन संगीत निर्देशन किया करते थे, आर्य-जैन समाज के, और उन्होंने सबसे पहले जो ग़ज़ल मुझे सिखाई थी,

श्याम तेरी बंसी पुकारे राधा नाम....दादु का ये गीत कितना सकून भरा है

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 792/2011/232 गी तकार-संगीतकार-गायक रवीन्द्र जैन पर केन्द्रित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'मेरे सुर में सुर मिला ले' की दूसरी कड़ी में आप सभी का फिर एक बार हार्दिक स्वागत है। दोस्तों, जैसा कि कल हमने कहा था कि रवीन्द्र जैन की दास्तान शुरु से हम आपको बताएंगे, तो आज की कड़ी में पढ़िए उनके जीवन के शुरुआती दिनों का हाल दादु के ही शब्दों में (सौजन्य: उजाले उनकी यादों के, विविध भारती)। जब दादु से यह पूछा गया कि वो अपने बचपन के दिनों के बारे में बताएँ, तो उनका जवाब था - " बचपन तो अभी गया नहीं है, क्योंकि जहाँ तक ज्ञान का सम्बंध है, आदमी हमेशा बच्चा ही रहता है, यह मैं मानता हूँ। उम्र में भले ही हमने बचपन खो दिया हो, लेकिन ज्ञान में अभी बच्चे हैं। तो अलीगढ़ में थे मेरे माता-पिता, अलीगढ़ से ही जन्म मुझको मिला, अलीगढ़ में ही हो गया था शुरु ये गीत और संगीत का सिलसिला। डॉ. मोहनलाल, जो मेरे पिताश्री के कन्टेम्पोररी थे, मेरे पिताजी का नाम पंडित इन्द्रमणि ज्ञान प्रसाद जी, तो मोहनलाल जी नें जन्म के दिन ही आँखों का छोटा सा एक ऑपरेशन किया, उन्होंने आँखें खोल

घर के उजियारे सो जा रे....याद है "डैडी" की ये लोरी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 789/2011/229 'चं दन का पलना, रेशम की डोरी' - पुरुष गायकों की गाई फ़िल्मी लोरियों पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला की नवी कड़ी में आप सभी का मैं, सुजॉय चटर्जी, साथी सजीव सारथी के साथ फिर एक बार स्वागत करता हूँ। आज की कड़ी के लिए हमनें जिस गीत को चुना है वह है १९८९ की फ़िल्म 'डैडी' का। फ़िल्म की कहानी पिता-पुत्री के रिश्ते की कहानी है। यह कहानी है पूजा की जिसे जवान होने पर पता चलता है कि उसका पिता ज़िन्दा है, जो एक शराबी है। पूजा किस तरह से उनकी ज़िन्दगी को बदलती है, कैसे शराब से उसे मुक्त करवाती है, यही है इस फ़िल्म की कहानी। बहुत ही मर्मस्पर्शी कहानी है इस फ़िल्म की। पूजा को उसके नाना-नानी पाल-पोस कर बड़ा करते हैं और उसे अपनी मम्मी-डैडी के बारे में कुछ भी मालूम नहीं। उसके नाना, कान्ताप्रसाद के अनुसार उसके डैडी की मृत्यु हो चुकी है। पर जब पूजा बड़ी होती है तब उसे टेलीफ़ोन कॉल्स आने लगते हैं जो केवल 'आइ लव यू' कह कर कॉल काट देता है। कान्ताप्रसाद को जब आनन्द नामक कॉलर का पता चलता है तो उसे पिटवा देते हैं और पूजा से न मिलने

तुझे सूरज कहूँ या चन्दा...शायद आपके पिता ने भी कभी आपके लिए ये गाया होगा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 784/2011/224 न मस्कार! दोस्तों, इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में हम प्रस्तुत कर रहे हैं लघु शृंखला 'चंदन का पलना, रेशम की डोरी'। इस शृंखला में आपनें बलराज साहनी पर फ़िल्माया तलत साहब का गाया फ़िल्म 'जवाब' का गीत सुना था। आज एक बार फिर बलराज साहब पर फ़िल्माई एक लोरी हम आपके लिए ले आये हैं, और इस बार आवाज़ है मन्ना डे की। एक समय ऐसा था जब किसी वयस्क चरित्र पर जब भी कोई गीत फ़िल्माया जाना होता तो संगीतकार और निर्माता मन्ना दा की खोज करते। इस बात का मन्ना दा नें एक साक्षात्कार में हँसते हुए ज़िक्र भी किया था कि मुझे बुड्ढों के लिए प्लेबैक करने को मिलते हैं। मन्ना दा की आवाज़ में कुछ ऐसी बात है कि नायक से ज़्यादा उनकी आवाज़ वयस्क चरित्रों पर फ़िट बैठती थी। लेकिन इससे उन्हें नुकसान कुछ नहीं हुआ, बल्कि कई अच्छे अच्छे अलग हट के गीत गाने को मिले। आज उनकी गाई जिस लोरी को हम सुनने जा रहे हैं, वह भी एक ऐसा ही अनमोल नग़मा है फ़िल्म-संगीत के धरोहर का। १९६९ की फ़िल्म 'एक फूल दो माली' का यह गीत है "तुझे सूरज कहूँ या चन्दा, तुझे दीप कहूँ या तारा

चन्दन का पलना रेशम की डोरी....लोरी की मिठास और हेमंत दा की आवाज़

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 783/2011/223 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का सप्रेम नमस्कार! इन दिनों इस स्तंभ में आप आनन्द ले रहे हैं पुरुष गायकों द्वारा गाई फ़िल्मी लोरियों से सजी इस लघु शृंखला 'चंदन का पलना, रेशम की डोरी' का। आज के अंक की लोरी भी यही है जिससे इस शृंखला का नाम रखा गया है। हेमन्त कुमार की गाई हुई १९५४ की फ़िल्म 'शबाब' की लोरी "चंदन का पलना, रेशम की डोरी, झुलना झुलाऊँ निन्दिया को तोरी"। शक़ील बदायूनी के बोल, नौशाद का संगीत। लोरी फ़िल्माई गई है भारत भूषण पर। वैसे इस लोरी के दो संस्करण हैं, पहला हेमन्त दा की एकल आवाज़ में और दूसरे में लता जी भी उनके साथ हैं। एकल संस्करण में महल का दृश्य है जिसमें गायक बने भारत भूषण इस लोरी को गाते हैं और पर्दे के उस पार कक्ष में नूतन बिस्तर में बैठी हैं। राजा और दासियाँ/ सहेलियाँ छुप-छुप कर यह दृश्य देख रहे हैं। मैंने फ़िल्म तो नहीं देखी पर इस गीत के विडियो को देख कर ऐसा लगता है जैसे नूतन को नींद न आने की बिमारी है और उन्हें सुलाने के लिए राजमहल में गायक को बुलाया गया है लोरी गाने के लिए। नूतन

कहाँ तुम चले गए ...बस यही दोहराते रह गए जगजीत के दीवाने

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 780/2011/220 ज गजीत सिंह को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'जहाँ तुम चले गए' की अंतिम कड़ी में आप सभी का स्वागत है। दोस्तों, जगजीत सिंह का पंजाबी भाषा और पंजाबी काव्य को लोकप्रिय बनाने और दूर दूर तक फैलाने में भी उल्लेखनीय योगदान रहा है। शिव कुमार बटालवी की कविताओं को जनसाधारण तक पहुँचाने में उनका ऐल्बम 'बिरहा दा सुल्तान' उल्लेखनीय है। "माय नी माय मैं इक शिकरा यार बनाइया", "रोग बन के रह गिया है पियार तेरे शहर दा", "यारियां राब करके मैनुं पाएं बिरहन दे पीड़े वे", "एह मेरा गीत किसी नी गाना" इसी ऐल्बम के कुछ लोकप्रिय गीत हैं। १० मई २००७ को संसद के युग्म अधिवेषन में ऐतिहासिक केन्द्रीय हॉल में जगजीत सिंह नें बहादुर शाह ज़फ़र की ग़ज़ल "लगता नहीं है दिल मेरा" गा कर भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (१८५७) के १५० वर्ष पूर्ति पर आयोजित कार्यक्रम को चार चाँद लगाया। राष्ट्रपति अब्दुल कलाम, प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह, उप-राष्ट्रपति भैरों सिंह शेखावत, लोक-सभा स्पीकर सोमनाथ चटर्जी, और कांग्रेस अध्

इश्क़ से गहरा कोई न दरिया....सुदर्शन फाकिर और जगजीत का मेल

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 777/2011/217 'ज हाँ तुम चले गए' - इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी है जगजीत सिंह को श्रद्धांजली स्वरूप यह लघु शृंखला। कल हमारी बात आकर रुकी थी जगजीत जी के नामकरण पर। आइए आज उनके संगीत की कुछ बातें बताई जाएं। बचपन से ही जगजीत का संगीत से नाता रहा है। श्रीगंगानगर में उन्होंने पण्डित शगनलाल शर्मा से दो साल संगीत सीखा, और उसके बाद छह साल शास्त्रीय संगीत के तीन विधा - ख़याल, ठुमरी और ध्रुपद की शिक्षा ग्रहण की। इसमें उनके गुरु थे उस्ताद जमाल ख़ाँ जो सैनिआ घराने से ताल्लुख़ रखते थे। ख़ाँ साहब महदी हसन के दूर के रिश्तेदार भी थे। पंजाब यूनिवर्सिटी और कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी के वाइस चान्सलर स्व: प्रोफ़ सूरज भान नें जगजीत सिंह को संगीत की तरफ़ प्रोत्साहित किया। १९६१ में जगजीत बम्बई आए एक संगीतकार और गायक के रूप में क़िस्मत आज़माने। उस समय एक से एक बड़े संगीतकार और गायक फ़िल्म इंडस्ट्री पर राज कर रहे थे। ऐसे में किसी भी नए गायक को अपनी जगह बनाना आसान काम नहीं था। जगजीत सिंह को भी इन्तज़ार करना पड़ा। वो एक पेयिंग् गेस्ट बन कर रहा करते थे और शुरुआती दिनों में

ये जो घर आँगन है...जगजीत व्यावसायिक सिनेमा के दांव पेचों में कुछ मधुरता तलाश लेते थे

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 776/2011/216 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के इस नए सप्ताह में आप सभी का एक बार फिर से मैं, सुजॉय चटर्जी, साथी सजीव सारथी के साथ स्वागत करता हूँ। इन दिनों इस स्तंभ में जारी है ग़ज़ल सम्राट जगजीत सिंह पर केन्द्रित लघु शृंखला 'जहाँ तुम चले गए'। इस शृंखला में हमारी कोशिश यही है कि जगजीत जी की आवाज़ के साथ साथ ज़्यादातर उन फ़िल्मों के गीत शामिल किए जाएँ जिनका संगीत भी उन्होंने ही तैयार किया है। पाँच गीत आपनें सुनें जो लिए गए थे 'अर्थ', 'कानून की आवाज़', 'राही', 'प्रेम गीत' और 'आज' फ़िल्मों से। आज के अंक के लिए हमने जिस गीत को चुना है, वह है फ़िल्म 'बिल्लू बादशाह' का। यह १९८९ की फ़िल्म थी जिसका निर्माण सुरेश सिंहा नें किया था और निर्देशक थे शिशिर मिश्र। शीर्षक चरित्र में थे गोविंदा, और साथ में थे शत्रुघ्न सिंहा, अनीता राज, नीलम और कादर ख़ान। जगजीत सिंह फ़िल्म के संगीतकार थे और गीत लिखे निदा फ़ाज़ली और मनोज दर्पण नें। इस फ़िल्म में गोविंदा का ही गाया "जवाँ जवाँ" गीत ख़ूब मशहूर हुआ था जो हसन जहांगीर के ग़ैर फ़िल्मी ग

रिश्ता ये कैसा है....जिस रिश्ते से बंधे हैं जगजीत और उनके चाहने वाले

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 775/2011/215 न मस्कार! 'जहाँ तुम चले गए', इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी है गायक और संगीतकार जगजीत सिंह को श्रद्धांजली स्वरूप यह लघु शृंखला में जिसमें हम उनके गाये और स्वरबद्ध गीत सुन रहे हैं। अब तक हमने इस शृंखला में चार गीत सुनें जगजीत जी द्वारा स्वरबद्ध किए हुए, जिनमें से दो उन्हीं के गाये हुए थे, तथा एक एक गीत लता जी और आशा जी की आवाज़ में थे। आज जो गीत हम लेकर आये हैं, उसे भी जगजीत जी नें ही कम्पोज़ किया है, पर गाया है उनकी पत्नी और गायिका चित्रा सिंह नें। यह गीत है फ़िल्म 'आज' का "रिश्ता ये कैसा है, नाता ये कैसा है"। यह १९९० की फ़िल्म थी महेश भट्ट द्वारा निर्देशित। फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे राज किरण, कुमार गौरव, अनामिका पाल, स्मिता पाटिल और मार्क ज़ुबेर। फ़िल्म के तमाम गीत जगजीत और चित्रा सिंह नें गाये। फ़िल्म का शीर्षक गीत जगजीत जी का गाया हुआ था। फ़िल्म 'राही' के उसी गीत की तरह यह भी एक आशावादी दार्शनिक गीत था "फिर आज मुझे रुमको बस इतना बताना है, हँसना ही जीवन है, हँसते ही जाना है"। आज का प्रस्तुत गी

ज़िन्दगी में सदा मुस्कुराते रहो....आशा के स्वर जगजीत के सुरों में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 773/2011/213 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में इन दिनों हम श्रद्धांजली अर्पित कर रहे हैं ग़ज़ल सम्राट जगजीत सिंह को, जिनका पिछले १० अक्टूबर को देहावसान हो गया। 'जहाँ तुम चले गए' शृंखला की कल की कड़ी में हमने लता जी का शोक-संदेश आप तक पहुंचाया था, आइए आज कुछ और शोक-संदेश पढ़ें। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नें कहा कि जगजीत सिंह अपने गोल्डन वायस के लिए हमेशा याद किए जायेंगे। उनके शब्दों में - " by making ghazals accessible to everyone, he gave joy and pleasure to millions of music lovers in India and abroad....he was blessed with a golden voice. The ghazal maestro’s music legacy will continue to “enchant and entertain” the people. " गीतकार जावेद अख़्तर बताते हैं, " जगजीत सिंह की मृत्यु नें हिन्दी फ़िल्म और म्युज़िक इंडस्ट्री को कभी न पूरी होने वाले क्षति पहुँचाई है। मैंने उनको पहली बार स्कूल में रहते हुए सुना था जब मैं IIT Kanpur के एक कार्यक्रम में गया था, वह था 'Music Night by Jagjit Singh and Chitra'। " शास्त्रीय गायिका शुभा