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ढल गया हिज्र का दिन आ भी गई वस्ल की रात... फ़ैज़ साहब के बेमिसाल बोल और इक़बाल बानो की मदभरी आवाज़

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #८२ बा त तो दर-असल पुरानी हो चुकी है, फिर भी अगर ऐसा मुद्दा हो, ऐसी घटना हो जिससे खुशी मिले तो फिर क्यों न दोस्तों के बीच उसका ज़िक्र किया जाए। है ना? तो हुआ यह है कि आज से कुछ ३३ दिन पहले यानि कि २ अप्रैल के दिन महफ़िल-ए-गज़ल की सालगिरह थी। अब हमारी महफ़िल कोई माशूका या फिर कोई छोटा बच्चा तो नहीं कि जो शिकायतें करें ,इसलिए हमें इस दिन का इल्म हीं न हुआ। हाँ, गलती हमारी है और हम अपनी इस खता से मुकरते भी नहीं, लेकिन आप लोग किधर थे... आप तमाम चाहने वालों का तो यह फ़र्ज़ बनता था कि हमें समय पर याद दिला दें। अब भले हीं हमारी यह महफ़िल नाज़ न करे या फिर तेवर न दिखाए, लेकिन इसकी आँखों से यह ज़ाहिर है कि इसे हल्का हीं सही, लेकिन बुरा तो ज़रूर हीं लगा है। क्या?..... क्या कहा? नहीं लगा... ऐसा क्यों... ऐसा कैसे.... ओहो... यह वज़ह है.. सही है भाई.. जब महफ़िल में चचा ग़ालिब विराजमान हों और वो भी पूरे के पूरे ढाई महिने के लिए तो फिर कौन नाराज़ होगा.. नाराज़ होना तो दूर की बात है.. किसी को अपनी खबर हो तो ना वो कुछ और सोचे। यही हाल हमारी महफ़िल का भी था... यानि कि अनजाने में हीं हमने म

हम देखेंगे... लाज़िम है कि हम भी देखेंगे...

पाकिस्तान से कोई ताज़ा ख़बर है?... ज़रूर कोई बुरी ख़बर होगी। याद नहीं पिछली बार कब इस मुल्क से कोई अच्छी ख़बर सुनने को मिली थी। करेले जैसी ख़बरें वो भी नीम चढ़ी कि उनपर अफ़सोस करने के लिये न तो दिमाग़ के पास फ़ालतू-दिमाग़ रह गया है और न दिल के पास वो धड़कनें जो आंसू में ढल जाती हैं। नहीं दोस्त ये वाक़ई बुरी ख़बर है... और फिर जो कुछ मोबाइल पर कहा गया वो वाक़ई यक़ीन करने वाला नहीं था। इक़बाल बानों नहीं रहीं। हँसी कब ग़ायब हो गई, बेयक़ीनी कब यक़ीन में बदल गई, पता ही नहीं चला। एक ऐसे मुल्क में जहाँ ख़तरनाक ख़बरें रोज़मर्रा की हक़ीक़त बन चुकी हैं। जहां मौत तमाशा बन चुकी है वहां इक़बाल बानों की मौत ने उस आवाज़ को भी हमसे छीन लिया जो ज़ख़्म भरने का काम करती थी, जो रूह का इलाज थी। “दश्ते तंहाई में ऐ जाने जहां ज़िंदा हैं…” फ़ैज़ की ये नज़्म अगर सुननेवालों के दिलों में ज़िंदा है तो इसकी एक बड़ी वजह इक़बाल बानों की वो आवाज़ है जो इसका जिस्म बन गई। बहरहाल ये सच है कि 21 अप्रैल 2009 को इकबाल बानो अपने चाहने वालों को ख़ुदा हाफिज़ कहके हमेशा-हमेशा के लिये रुख़सत हो गईं। और इसी के साथ ठुमरी, दादरा,